अग्निशेखर का चर्चित काव्य संग्रह ‘जवाहर टनल’ लम्बी प्रतीक्षा के बाद आज डाक से प्राप्त हुआ. पुस्तक के ब्लर्ब से उदयप्रकाश को उद्धृत करते हुए बिना किसी भूमिका के यह शीर्षक कविता यहाँ लगा रहा हूँ .....
“ अग्निशेखर की कविताओं में अपनी लाचार जलावतनी मे अपने मृत पुरखों का तर्पण करते हुए उस निर्वासित खानाबदोश की मार्मिकता है जो हमारी अपनी अंतश्चेतना में किसी खोए हुए तिब्बत, फिलिस्तीन या येरूशलम को जागृत करती है.”
जवाहर टनल
गीले और घने अँधेरे से भरी थी
जवाहर लाल नेहरू सुरंग
और हम दहशत खाए लोग
भाग रहे थे सहमी बसों में
जवाहर लाल नेहरू सुरंग में
जैसे कूट कूट कर भर गया था अँधेरा
इतने वर्ष
और टप टप गिरती बूँदें ये
ज़ार ज़ार रो रहा था पाँचाल पर्वत
नेहरू के गुमान पर
या हमारे हाल पर
हमारी बसें फँसी पड़ीं थीं सुरंग में
और अब उनका धुआँ भी
शामिल था
अँधेरे में
कानों में अभी भी गूँज रही थी
जेहादियों की गालियाँ
उनके उद्घोष
धमकियाँ
ठांय ठायं !!
गोलियों की अठखेलियाँ
हथगोले और बमों के अट्टहास
अल जेहाद !
अल जेहाद !
अल जेहाद !
जवाहर लाल नेहरू सुरंग में
हमारे सिकुड़े शरीरों के अन्दर दबे कोलाहल में
छिपी बैठीं
लहुलुहान स्मृतियाँ इस समय
क्यों जाग रहीं थीं
गीले अँधेरे में
शून्य में उभर रही थीं
बलात्कृत हो रहीं थीं
छटपटाती बिलखती
हमारी बहनें
घरों के दरवाज़ों पर
खून की टपकतीं छींटें उकेरते
ये नये नये भित्ति चित्र
हमारे सामने
सुरंग में फँसे थे हम
नीले थे हमारे चेहरे
और होंठ थे पीले
पपड़ियाए
जैसे सूखी बिवाई फटी थी
हमारी धरती सौन्दर्यशास्त्र की
झेलती अकाल
दशकों से
टुकुर टुकुर देखती
सूने आकाश में कभी नहीं प्रकटा
इन्द्रधनुष यहाँ
कि गा उठती घुटनों तक फूलों से भरी
उपत्यका कोई
भीतर उस के
फिलहाल हमें सुरंग से होते हुए
निकलना था
पर्वतों के दूसरी तरफ
शेष हिन्दुस्तान में
एकमात्र था इत्मीनान
कि जैसे तैसे बचा लाए थे
हम खौफ ज़दा बहु बेटियाँ अपने साथ
बच्चों के स्कूली बस्ते
और कृषकाय बुज़ुर्गों की शेष ज़िन्दगी
यही थी उपलब्धि इस वक़्त
हमारे पाँच हज़ार वर्षों की
बाकी सब छूट गया था पीछे
अखरोट और चिनारों की हरी छाँव में
स्टापू का खेल
चिमेगोईयाँ
पर्वतों के धुँधलके में ओझल हो जातीं
चिड़ियों को देख
हमारा उदास हो जाना
पीछे छूट गया था
इतिहास और संवत्सर अपना
मिथक
देवता और तीर्थ अपने
मेले ठेले
तीज त्यौहार
घर बार अपना
उनकी स्मृतियाँ थीं हमारे साथ भागतीं
चुपचाप
जैसे
मुँह अँधेरे भागते गाँव से
चली आई थीं दौड़ती कुछ दूर
हमारी गायें भी
सामान लदे ट्रकों के पीछे
बसें चिंघाड़ रहीं हैं अँधेरे में
जैसे लगा रही हों गुहार
जवाहर लाल नेहरू के ‘आनन्द भवन’ में
परंतु यह सच था
कि हम नहीं थे इलाहाबाद में इस समय
जहाँ गंगा थी
जमुना थी
सरस्वती थी
आपस में घुल मिल
हम थे अँधेरे में
ठिठुरती ठ्ण्ड में
सँकरी श्वास नली में अवरुद्ध
हवा के कण जैसे
और संसार था ईर्ष्या से भरा
हमारे प्रति
जबकि हम भाग रहे थे स्वर्ग से
भिंची हथेलियों में जान थी हमारी
कमीज़ अन्दर थे छिपाए
चिनार के पत्ते
और जेबों में ठूँस भरी थी
गाँव की मिट्टी
जहाँ तक मेरी बात है
मैंने कमीज़ के अन्दर खोंस रखी थीं
ललद्यद की कविताएं
जिन्हे छू छू कर
इस गीले और सघन अँधेरे में
मैं हो रहा था तनिक तनिक ज़िन्दा
“अरे पगले ,
कौन मरेगा और मारेंगे किस को ?”
कान में कह रही थी लल्द्यद मुझसे
तय था कि हम भाग रहे थे
और गढ़ी जा रही थी अफवाहें
सेंकी जा रही थीं
लोकतंत्र के तवे पर
झूठ की रोटियाँ
ये मानवाधिकारों के दिन थे
और हमारे नहीं थे मानवाधिकार
चुप थीं भेड़ें
और यही था सद्भाव
कसाई बाड़े का
चिंघाड़ रहे थे वाहन
आतुर थे हम
सुरंग से बाहर थी रोशनी
सुरंग से बाहर थी उम्मीदें
सुरंदग से बाहर थी सुरक्षा
सुरंग से बाहर थे कवि, कवि कलाकार
और संस्कृतिकर्मी
खुला था आसमान सुरंग से बाहर
और
हम उतरे पर्वतों से शरणार्थी केम्पों में
फैल गए सम्विधान के फफोले तम्बुओं में
बिलबिलाए कीड़ों की तरह
जुलूसों में
धरनों में
हम उछले नारों में
दब गए अत्याचारों में
यहाँ धूप थी
तेज़ाब था
लू थी
साँप थे
बिच्छू थे
रोग थे
श्मशान था
ओढ़ने को आसमान था
सोने को हिन्दुस्तान था
मेरा देश महान था .
aankh nam ... hoth chup.... dil se nikli aavazen sirf vahi sun sakte hai jinke paas dil ho. hamare mahan desh ke mahan rajnitigy na to sharmsaar hain.. na udvelit... koi kitna jhelega. kab tak ?
ReplyDeleteरोमांचकारी कविता ! आतंक का जीवंत अनुभव !
ReplyDeleteखून के धब्बो के भित्तिचित्र.....कल्पना से परे...
ReplyDeleteक्या यह सच नहीं है कि भारत की ’आज़ादी’
ReplyDeleteअब भी उस ’जवाहरलालनेहरू-टनल’ में घुट
रही है ?
बेहतरीन कविता !
ReplyDeleteaapke dost ke rachna bahut achhi lagi.. ek drashya ankhon ke saamne ubhar kar man ko andolit kar gaya..
ReplyDeletebadiya prastuti ke liye dhanyavad.
टनल के अंदर के बिम्ब दिल दहला देने वाले हैं । कविता पढ़ लेने की बाद आप विस्थापन की पीड़ा को महसूस कर सकते हैं ।सबसे बड़ा सवाल व्यवस्था से है जो बाहरी है ।
ReplyDeleteकृपया व्यवस्था को 'बहरी' पढ़ा जाए ।
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