Sunday, September 25, 2011

६-दुःख और विवशता के चित्रण से आगे की कविता रचे जाने की आवश्यकता

मैं इस चर्चा में भाग लेने से हिचक रहा था क्योंकि कहीं कोई बात अपनी कविताओं की वकालत या बचाव सी प्रतीत न हो। पर अजेय जी का बहुत आग्रह रहा। कुछ अन्य मित्र भी यही चाहते थे। सो मैं अपना पक्ष रखने का साहस कर रहा हूँ।
आज भले स्त्री का पदार्पण जीवन के हर क्षेत्र में हो गया हो पर पहाड़ की अधिसंख्यक औरतों का जीवन अभी भी बहुत नहीं बदला है। पहाड़ी औरत का कठिन जीवन संघर्ष अविरल बना हुआ है। यह संघर्ष दोहरा है। अन्य स्त्रियों की भाॅति सामंती मूल्यों और पुरूषसत्तात्मक समाज से तो उसका संघर्ष है ही साथ में प्रकृति से संघर्ष अलग से। प्रकृति के साथ जूझते हुए वह जिस तरह घास-लकड़ी जुटाती है तथा फसल पैदा करती है ऐसा संघर्ष अन्य क्षेत्रों की महिला को षायद ही करना पड़ता हो। सामंती व्यवस्था से चले आ रहे अत्याचार-अन्याय-षोषण-उत्पीड़न तो षेष दुनिया की स्त्रियों की तरह उसके साथ लगे ही हैं प्रकृति से संघर्ष उसके खाते में अतिरिक्त हैं। इसलिए ‘पहाड़ी औरत’ आह भरती हुई कहती है-क्या-क्या बाताऊँ दीदी/और भी बहुत सारे संघषर््ा हैं /हमारी जिंदगी में। स्त्री जीवन के ये संघर्ष पहाड़ के कवियों की कविता खूब आए हैं। इन कविताओं में सामंती मूल्यों के चलते बदहाल हुई उसकी जिंदगी के चित्र की अपेक्षा पहाड़ी औरत पर अतिषय काम के बोझ और प्रकृति के साथ उसके संघषर््ा को अधिक स्थान मिला है। यहाँ मैं अपनी बात ‘ब्यूँस की टहनियाँ’( अजेय) , ‘ढाँक से फिसल कर मृत हुई अपनी सखी से विलाप करती एक स्त्री’( सुरेष सेन निषांत ) , ‘ औरत और घासनियाँ’( मोहन साहिल ) तथा ‘संवारना’ ( प्रदीप सैनी ) तक ही सीमित रखना चाहुँगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि यहाँ उल्लिखित चारों कविताएं बहुत मर्मस्पर्षी हैं। अपने-अपने तरीके से पहाड़ की औरत के संघर्ष, पीड़ा और षोषण को व्यक्त करती हैं। इस प्रकार पहाड़ी औरत के प्रति पाठक के मन में संवेदना पैदा करने में सक्षम हैं। इनके संदर्भ में युवा कवि अषोक कुमार पांडे का यह कहना बिल्कुल सटीक है कि जिस पीड़ा के लिए हमारे मन में और चेतना में गहनता होती है। वह एक लयबद्धता के साथ ही सामने आती है। वास्तव में यहाँ पीड़ा के साथ गहनता से जुड़ाव दिखाई देता है। ये सभी कविताएं मिलकर पहाड़ की स्त्री के जीवन-संघर्ष की अभिव्यक्ति को व्यापकता प्रदान करती हैं। उसका एक कोलाज सा प्रस्तुत करती हैं। एक दूसरे की पूरक सी प्रतीत होती हैं। इन कविताओं के द्वारा पहाड़ की स्त्री के जीवन को गहराई और व्यापकता से समझा जा सकता है। पहाड़ के इस दर्द को जो इन कवितओं में मुखरित हुआ है वही जान-समझ या महसूस कर सकता है जिसने माँ-बहन-पत्नी के रूप में उस स्त्री को नजदीक से देखा हो। स्वयं को उस स्त्री के स्थान पर रखा हो। ये कविताएं ऊपर से देखने में भले एक सी दिखती हों पर बारीकी से देखने पर अंतर साफ-साफ दिखाई देता है। यह अंतर कथ्य में भी है और षिल्प में भी। अजेय की कविता में पुरूषसत्तात्मक समाज द्वारा किए जाने वाले षोषण की ओर संकेत मिलता है तो निषांत की कविता में अतिषय काम के बोझ और प्रकृति के साथ उसका संघर्ष आता है , साहिल की कविता में पहाड़ी औरत के दुःख के साथ-साथ उसके उल्लास के क्षण भी दिखाई देते हैं और प्रदीप की कविता में मूल्यों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तंातरण की प्रक्रिया।
‘ब्यूँस की टहनियाँ’ कविता में पुरूषसत्तात्मक समाज द्वारा औरतों का किस तरह से अपने हित में इच्छानुसार उपयोग किया जाता है इसको सफलतापूर्वक पूरी कलात्मकता से व्यक्त किया है। यह कविता उस मिथक को गलत सिद्ध करती है जिसमें यह माना जाता है कि आदिवासी समाज में औरत मुख्यधारा के समाज की औरतों की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र हैं। ब्यूँस की टहनियों के माध्यम से कवि द्वारा बहुत अच्छी तरह उन औरतों के षोषण-प्रक्रिया को समझा दिया गया है। यहाँ उनके षारीरिक षोषण की ओर भी संकेत किया गया है। उनके प्रति समाज की उपेक्षा और उदासीनता को हम यहाँ देख सकते हैं- हम ब्यूँस की टहनियाँ / रोप दी गई रूखे /पहाड़ों पर /छोड़ दी गई बेरहम हवाओं के सुपर्द / काली पड़ जाती है हमारी त्वचा /खत्म होने वाली सर्दियों में /मूर्छित खड़ी रह जाती हैं हम । साथ ही इस कविता में उनकी जीवटता को भी दिखाया गया है- अर्द्ध निद्रा में /मौसम के खुलते ही /हम चूस लेती हैं पत्थरों से /जल्दी-जल्दी खनिज और पानी । यही जीवटता है जिसके चलते पहाड़ की औरत ताकतवर कहलाती है। ‘अब क्या बताएं / कैसा लगता है ’ पंक्ति उनकी पीड़ा की गहराई को बताती है। ऐसी पीड़ा जिसको व्यक्त भी नहीं किया जा सकता है। कैसी विडंबना है कि इस सारे संघर्ष के बावजूद भी औरत केवल इसलिए जिंदा है कि अपनी जैसी कुछ औरों को पैदा कर सकें। यहाँ षोषण की निरंतरता भी प्रकट हुई है। वर्षों से यह जारी है और आगे भी समाप्त होने की संभावना नहीं दिखाई देती है। यह बात हमें अन्य दो कविताओं में भी दिखाई देती है जिसकी बात ईषता ने भी की है। पर अच्छी बात यह है कि यह कविता अपने अंत में यह संकेत देती है कि जब षोषण की पराकाष्ठा हो जाएगी तो प्रतिरोध निष्चित है। ब्यूँस की टहनियों का कड़कर टूट जाना कहीं ना कहीं अंडरटोन प्रतिरोध है। बावजूद इसके इस कविता में भी औरत का असहायपन ही अधिक झलकता है जो पहाड़ी स्त्री का कटु यथार्थ है।
इस कविता में एक अच्छी बात और है कि औरत की पीड़ा के कारण बाहर दिखाई देते हंै जो अन्य में औरत की नियति की तरह लगते हंै। यह कविता काव्यात्मकता की दृष्टि से यहाँ पोस्ट सभी कविताओं में से सबसे सषक्त है। अजेय इस कविता के साथ ‘आदिवासी बहनों के लिए ’ नहीं भी लिखते तब भी यह कविता अपने आषय को पूरी तरह स्पष्ट कर रही है।
इन कविताओं में मोहन साहिल की कविता सबसे अलग इस रूप में है कि इसमें केवल दुःख ही दुःख न होकर श्रम का सौंदर्य और प्रेम भी है। इस कविता में प्रकृति औरत की सहेली की तरह प्रस्तुत हुई है। यहाँ प्रकृति की सुंदरता मनुष्य की उपस्थिति से बढ़ जाती है-साल भर सुनसान रहे जमीन के ये टुकड़े /दरातियों की लय और चूड़ियों की खनक के बीच/कुछ दिन रहेंगे आबाद। जीवन की उत्सवधर्मिता के दर्षन होते हैं इस कविता में जो इसे एक अलग रंग प्रदान करती है। यही उत्सवधर्मिता है जो इस कविता को ऊँचाई प्रदान करती है तथा उदास मन को जीने की ताकत देती है। धूप-छाँव की तरह है यह कविता। जिंदगी भी कुछ इसी तरह होती है। कथ्य की ही सबलता ही है कि इसके षिल्प की ओर बहुत अधिक ध्यान नहीं जाता है।
सुरेष सेन निषांत की कविता में दुःख की सघनता है। उनकी कविता की षुरूआती पंक्तियाँ ही इस बात को व्यंजित कर देती हैं कि पहाड़ी औरत को कभी भी चैन नहीं रहा। उसे कभी भी सुंदर सपना देखने तक की फुरसत तक नसीब नहीं हुई। उसके पास इतना समय भी नहीं रहा कि कोई प्यार भरा गीत गुनगुना सके। कैसी विडंबना है कि पहाड़ी स्त्री मरने के बाद ही सो पाती है जीते जी उसके हिस्से कभी सकून की नींद भी नहीं आई। इस कविता में इस विडबंना को तो बहुत गहराई तक उभारा गया है फलस्वरूप पाठक को द्रवित कर देती है । उसकी आँखें नम हुए बिना नहीं रह पाती । यह कविता की बहुत बड़ी ताकत है । पर भावुकता भी उतनी ही अधिक है जो पाठक को कहीं पहुँचाती नहीं है। इस बात पर आष्चर्य होता है कि जिस बात को कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए उसे कविता में भुलाने की बात कहती है। ‘भूल जाओ’ या ‘सोई रहो’ जैसी पंक्तियाँ आग में पानी डालने जैसी हैं। जहाँ आक्रोष या गुस्सा होना चाहिए था वहाँ एक सांत्वना का स्वर क्यों? सब कुछ स्वीकार करने का भाव थोड़ा खटकता है। मोहन साहिल की कविता की तरह इस कविता का स्वर भी लोकगीत के नजदीक लगता है। लोक को पकड़ने की क्षमता के चलते ही यह संभव है।
प्रदीप सैनी की कविता अपनी संष्लिष्टता से पाठकों का ध्यान खींचती है। वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर यह संष्लिष्टता यहाँ दिखाई देती है। यह कविता माँ-बेटी के बीच की अंतःक्रिया का सुंदर बिंब खींचती है । इस कविता में औरतें एक-दूसरे को संबल प्रदान करती हुई दिखती हैं। सदियों का संचित रहस्य सूत्र जो इतिहास में कहीं दर्ज नहीं उसको बाँटती हैं। इन्हीं के सहारे बेटियाँ अपने जीवन को साधती हैं। यह पीढ़ी दर पीढ़ी संस्कारों के हस्तांतरण की प्रक्रिया भी है।
बहस में एक बात उभरकर आई है कि पहाड़ी औरत पर लिखी गई तमाम कविताओं में विद्रोह का स्वर नहीं सुनाई देता है। इधर पहाड़ की औरत पर लिखी अन्य कविताओं को पढ़ते हुए मुझे भी यह लगा। षायद इसके कारण कवि के अंदर-बाहर दोनों जगह मौजूद हैं। बाहर इस रूप में कि पहाड़ी समाज में औरत के विद्रोह की मुखरता हमें नहीं के बराबर दिखाई देती है जिसकी बात अनूप जी ने भी अपनी टिप्पणी में कही है। अंदर कहने से मेरा आषय कवि की अपनी सीमाओं से है । यह मानना पड़ेगा कि पहाड़ी औरत के भीतर विद्रोह दबे-छुपे रूप में जितना भी है हम कहीं न कहीं उसे पकड़ने में असफल रहे हैं। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में ही कहूँ, यहाँ जल-जंगल-जमीन को लेकर जो भी तमाम आंदोलन हुए हैं उसमें महिलाओं की भूमिका बढ़ चढकर रही है जो उनके विद्रोही तेवर को ही बताती है। षराब विरोधी आंदोलन तो पूरी तरह से महिलाओं द्वारा ही खड़े किए गए हैं। विद्रोह है ही नहीं यह नहीं कहा जा सकता है। छुपा-छुपा है जो बहुत कम दिखाई देता है। पर उसे पकड़ना ही होगा। उसको स्वर देने की आवष्यकता है।
हाँ , सामंती मूल्यों के विरूद्ध कहीं कोई विद्रोह साफ-साफ नहीं दिखाई देता है तो उसका कारण समाज द्वारा उनकी कंडीषनिंग करना है जो कमोबेष हर समाज में उपस्थित है। एक बात और कहना चाहुँगा विद्रोह तो छोड़िए पहाड़ी स्त्री से जुड़ी बहुत कम कविताएं जो प्रष्न भी खड़ा करती हों। अधिकांष कविताओं में तो पहाड़ी औरत की विवषता ही अधिक झलकती है। उससे निकलने वाले मार्ग का संकेत तक भी नहीं है। आष्चर्य की बात है कि पहाड़ की स्त्रियों को लेकर अब तक जितनी भी कविताएं पढ़ने को मिली कमोवेष एक सा ही स्वर मिला जिनमें दुःख और संघर्ष की बहुलता है। ऐसी कविता रचे जाने की जरूरत है जो केवल दुःख का बयान ही नहीं करते रहे बल्कि उससे निकलने के रास्ते का संकेत भी करे।
ईषिता जी का यह कहना बिल्कुल जायज है कि आखिर षोक गीत बनने की नौबत आए ही क्यों ? यह स्थिति बदलनी क्यों नहीं चाहिए? कविता किसने लिखी है यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि जो अनुभव उसमें आए हैं वे कितने प्रमाणिक हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। सवाल स्त्री या पुरूष द्वारा लिखे जाने का नहीं बल्कि दृष्टि का है। नियतिवादी दृष्टि से यदि देखेंगे तो हमारे मन में सिर्फ दया या सहानुभूति ही पैदा होगी आक्रोष या विद्रोह नहीं। घटनाओं या परिस्थितियों को जब तक द्वंद्वात्मक और समग्रता से नहीं देखा तथा विष्लेषित नहीं किया जाएगा तब केवल द्रवित करने वाली कविता ही रची जाएगी। ईषता जी कहती हैं औरत विद्रोह करना नहीं चाहती केवल अपने मन की बातें करना चाहती है। मुझे ऐसा नहीं लगता षायद उसे कोई रास्ता नहीं दिखता इसलिए वह केवल मन की बातें कहकर ही संतोष कर लेती है। वह सार्वजनिक रूप से खुद को व्यक्त क्यों नहीं करती हैं? यहीं पर सोचने की आवष्यकता है कि आखिर ऐसा क्यों है ?क्यों नहीं उसके मन में विद्रोह पैदा होता है?यह उसकी कंडिषनिंग का परिणाम ही तो नहीं ? उसको इस सबके लिए अपना भाग्य जिम्मेदार लगता है। ऐसा तो नहीं कि उन्हें उसी रूप में तैयार किया जाता है। उनका पालन-पोषण इस तरह से होता है कि वे सारी बातों को स्वीकार कर लेती हैं। यहाँ मुझे सिमोन द बऊआ की बात याद आती है कि औरत पैदा नहीं होती है उसे औरत बना दिया जाता है। बचपन से ही उसके भीतर औरतपन पैदा किया जाता है। हमारे समाज में बेटियों को चुप रहकर सहना ही सिखाया जाता है। एक तरह से समझौता करना । प्रतिकार करने की बात तो कही ही नहीं जाती है। सहनषीलता को उनका सबसे बड़ा गुण बताया जाता है। जरूरत है अब कविता में औरतों को क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए पर भी बात होनी चाहिए। उसके दुःख और विवषता के चित्रण से आगे की कविता रचे जाने की अवष्यकता है जिसमें पीड़ा से मुक्ति का मार्ग दिखाई देता हो।
-- Mahesh Chandra Punetha

15 comments:

  1. बहुत सुन्दर समीक्षा की है मगर यदि साथ मे चारो कविताये भी लगा देते तो और भी अच्छा रहता और पढने वाला उससे तादातम्य बैठा लेता।

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  2. आज के अमर उजाला में ढाँक पर घास काटने गई महिला की मौत की खबर छपी है । घासनियों में , पहाड़ी ढांखों के वीरान में न जाने स्त्री के कितने दुख –दर्द बिखरे पड़े हैं । इस ओर सुरेश सेन निशांत और मोहन साहिल ने ध्यान खींचा है ।
    पुनेठा जी ने पहाड़ की स्त्री के संदर्भ में विरोध के स्वर न होने के पीछे औरत की जिस कंडीशनिंग की बात की है वह सही है । कविता और कहानी दोनों के संदर्भ में । मैंने ऊपरी पहाड़ी क्षेत्रों की जिस स्त्री स्वतंत्रता की ओर इशारा किया था अजेय ने रेखा चमोली की कविता के संदर्भ में पुनः उस सूत्र को पकड़ा है । यह अराजक टिप्पणी नहीं है बल्कि हरनोट ने ‘दारोश’ जैसी कहानियों के माध्यम से एक प्रतिशत दुर्घटनाओं को कहानी में ला कर इस परंपरा का नकारात्मक पक्ष प्रस्तुत किया है । ‘हरण’ या ‘दारोश’ जैसी घटनाओं का इस तरह साधारणिकरण नहीं किया जा सकता । अजेय से सुबह इस बारे में बात हो रही थी । इस परंपरा के साथ स्त्री की स्वतंत्रता का बहुत महत्वपूर्ण पहलू जुड़ा हुआ है। सभ्य शहरी समाज की मर्यादा के सामने यह परंपरा कितनी टिक पाएगी यह तो समय बताएगा ।
    उरसेम द्वारा उठाया गया प्रश्न -कविता किसके लिए -का प्रश्न हमेशा रचनात्मक समाज के रहेगा । तब तक , जब तक समाज और साहित्य के अंतरसंबंधों की जटिलता कम नहीं होती ।
    हिमालय की स्त्री के जीवन साथी चुनने या बदलने का निर्णय को यहाँ की परंपरा से जुड़े मेलों के संदर्भ में देखना जरूरी है ।

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  3. अजेय भाई...यह नेट पर हुई सबसे सार्थक चर्चाओं में से एक है...बधाई...

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  4. और कुमार विकल याद आये

    दुःख को कविता में रो देना
    यह कविता की रात है
    दुःख से लड़कर कविता लिखना
    गुरिल्ला शुरुआत है!

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  5. महेश भाई के लेख ने इस पूरी बहस को एक नया मुकाम दिया है ........ जिस तरीके से उन्होंने कवितायों की बारीकियों को पकड़ा है.........वह जबरदस्त है.......और जो बात उन्होंने यहाँ कही की अब कविता को वह राह भी दिखानी होगी जिस पर चल कर औरतें अपनी स्थिति को बदल सकें......मैं उस में यही जोड़ना चाहूँगा कि यदि ऐसा संभव न भी हो पाए तो भी कविता में स्त्री के उस राह पर बढ़ते क़दमों के निशान तो आने ही चाहियें..........

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  6. अच्छा आलेख है, उद्धृत कविता-अंशों की व्याख्या के आधार पर इतना ही कह सकता हूं. संदर्भित कविताएं पढ़ी होतीं तो और कुछ भी जोड़ सकता था. महेश पुनेठा एक अत्यंत संवेदनशील कवि होने के साथ-साथ एक सहृदय समीक्षक भी हैं, ऐसे में उनके मूल्यांकन को प्रामाणिक न मानना खुद अपनी राय से विमति ही कही जाएगी. मैं यह ज़रूर जोड़ना चाहूँगा ककि यशस्वी आलोचक लुकाच 'ऐतिहासिक चेतना'की अगली अवस्था 'वास्तविक चेतना' को बताते हैं, तो लुसिएं गोल्डमान एक क़दम आगे बढ़कर 'संभाव्य चेतना' का ज़िक्र करना ज़रूरी समझते हैं और इस तरह सौंदर्यशास्त्र की एक नई पर ज़रूरी कसौटी को निरूपित कर देते हैं. उस चेतना के 'नवांकुर'कहीं रचनाओं में ज़रूर मिलने चाहिए. ज़ाहिर है, अभी वे नहीं दिख रहे तो भी कुछ संकेत उस परिवर्तनकामी चेतना के दिखने लगें तो रचना की 'उम्र' बढ़ जाएगी. 'वयस्क'और 'दीर्घायु' दोनों ही अर्थों में.

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  7. Mahesh Punethaji ki baat bahut sahi hai. Dar asal main kehna ye chah rahi thi ki, vidroh ki baat baad me sochegi, paley apney dil ki baat bol to le. wo jo bolti hai, wo puri tarah se mann ki baat nahi hoti. conditioning ki baat hai na, uss ki bhawnaon ko sahi shabd nahi miltey, aksar. Aur bhi kahungi, jab kuchh aur samay hoga.

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  8. मोहन जी आपने यथास्थिति से आगे बढ़ने के तीन बिंदु सही सुझाए हैं. इन कविताओं पर यहां चर्चा कई दिन से चल रही है. अगर आप समय निकाल कर नीचे दिए गए Older posts के लिंक पर जाएंगे तो ये सभी कविताएं मिल जाएंगी. फिर आपकी टिप्‍पणी इस चर्चा को आगे बढ़ाएगी.
    यहां मैं महेश पुनेठा जी को धन्‍यवाद भी देना चाहता हूं कि उन्‍होंने अपनी बात रखी और कविताओं को खोला. अपनी बात में अपनी कविताओं का जिक्र न करके जिस शालीनता और संकोच की दुर्लभ होती जा रही परंपरा का निर्वाह किया, वह प्रशंसनीय और अनुकरणीय है.

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  9. # मोहन श्रोत्रिय जी , आभार. आप की टिप्पणी इस चर्चा मे ज़रूरी बातें जोड़ रही हैं. हमे सम्बल मिला है . कृपया समय निकाल कर कविताएं पढ़ें और बेबाक टिप्पणी दें .
    # वन्दना , यदि आप बिना कमेंट बॉक्स खोले नीचे स्र्क्रॉल करेंगी सभी कविताएं ब्लॉग पर नज़र आ जाएंगी , आप पढ़ सकती हैं.
    # निरंजन , मैं इस पुरातन प्रथा को कायम रखने की पैरवी नही कर रहा .
    महज़ अपनी बात की पुष्टि के लिए यह उदाहरण मैने दिया था . हम जानते हैं , आदिम समाज मे महिला कुछ मामलो मे काफी स्वतंत्र थी .अपना जीवन साथी चुनना भी उन मे से एक था ( बाद मे स्मृति कारों ने इसे गन्धर्व विवाह कहा ) . सभ्यता के विकास के साथ पुरुष वर्चस्व बढ़ा . उस के चलते ही स्त्री हरण ( असुर / राक्षस/ पिशाच विवाह) आदि प्रथाएं समानंतर रूप से प्रचलन मे आईं . कालांतर मे आर्यों के प्रभाव मे विवाह की *सुसंस्कृत्* पद्धतियों — दैव / आर्ष / ब्राह्म / प्रजापत्य (सुधी जन इस सूची / वर्तनी को सुधारें , मैं कंफिडेंट नही हूँ ) का रुख अपनाया गया... लेकिन सँवरने की इस प्रक्रिया मे यहाँ कुछ जटिलताएं भी घुस गईं ..... ( कारण वही सामंती / पुरष वर्चस्ववादी सोच ). अब लाहुल के समाज मे क्या हुआ कि कथित सामाजिक जागरण ( 1940- 50 का दशक) के युग मे राक्षस विवाह (मनु का शब्द ) और अरेंज्ड विवाह दोनो प्रचलित थे .... गन्धर्व विवाह और स्वयम्वर का कॉंन्सेप्ट युगो पहले खत्म हो गया था. समाज पर अभी भी सामंती सोच हावी थी . उस से निजात पाने की ज़रूरत ही नही समझी गई थी. ...तो उस समय यहाँ की स्त्री ने अपने पति को चुनने की स्वतंत्रता को इस अनूठे तरीक़े से ज़िन्दा रखा था . अरेंज्ड मेरिज की बजाय हरण / राक्षस विवाह को चुनना तत्कालीन स्त्री का विद्रोह था. ठीक यही विद्रोह रेखा चमोली की कविता मे है जहाँ स्त्री गंगा बन कर पूजे जाने /बाँध दिए जाने के बनिस्बत किसी अनाम पहाड़ी नदिया की तरह अबाध बहना पसंद करती है !! उस पीढ़ी की लाहुली स्त्री ने समाज के दबाव मे आ कर एक झूठे सम्मान को ता उम्र झेलने बजाय "हर लिया जाना, अपहृत होना " बेहतर समझा .... और जब हरने वाला अपना प्रेमी ( न सही प्रेमी, अपनी पसन्द का पुरुष ही) हो तो क्या बात है !! और आप ने ठीक कहा ... उस ज़माने मे ( कही कही आज भी) पहाड़ गाँव के मेलों का यही वास्तविक महत्व था. मै फिर से कहता हूँ कि मैं आज और भविष्य मे भी इस परम्परा को क़ायम रखने का हिमायती क़तई नही हूँ . आज की लाहुली स्त्री के पास इस परंपरा रूपी भद्दे नाटक के विकल्प है. कोर्ट विवाह को समाज मे स्वीकृति है . क्यों कि इस प्राचीन परम्परा की आड़ मे कभी कभी बहुत अवाँछित/ अशोभनीय / कुत्सित घटनाए घट जाती हैं .....जिन मे से एक एस आर हरनोट की बहुचर्चित "दारोश" कहानी मे आप ने पढ़ रखी है .और मैं खुद भी एक ऐसी घटना का चश्मदीद गवाह रहा हूँ .

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  10. ajay bhai aap bahut hi sarthak karyr kar rhe hain.mahesh ji ne jis shiddat se kavitaon ko samjha aur tippni ki hai bahut achha laga.bahut door se bhitar tak dekh pana mushkil hota hai.aurat ko mard ka dushman ya mard ko aurat ka dushman bnakar dikhane ka idhar faishan chal pra hai.hum log gaon me rahte hain jahan aurat aur mard aik dusre ke poorak hain.prem chad ke godan me hori aur dhniya jaisa sath aaj bhi hai.dukho ko alag -alag nhin kata ja sakta.theog ke gaon me pati khana bhi bnata hai aur ghaas bhi katta hai lakin ye dekhne ke liye to ghasni tak kavi ko jana padega.library ya khoobsurat kamro me baithkar ye asmbhav lagta he khaas kr heel wale jute pehnnewalon ke liye to ye bilkul anhoni jaisa hai. bahut kuch likhna chahta hun anup sethi ka man mumbai me rahte hue bhi pahadi ghasniyon me bhatkta rehta he, isse bahut sukoon milta he aap ko is sare kam ke liye bahut bahut badhai.
    mohan sahil

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  11. mahan sahil ji....der aaye par darust aaye.....

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  12. भाई कविता पर ऐसी गंभीर बहस की मैं सराहना किए बिना नहीं रह पा रहा हूं। हालांकि यह बहस पहाड़ की कविता, खासकर पहाड़ की औरतों को अपने घेरे में लेता है लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो समकालीन कविता और समकालीन स्त्री भी बहस में निश्चय ही शामिल हो रही हैं और यह इस बहस की सबसे बड़डी सफलता है। मेरा सुझाव है कि इस तरह की बहसें होती रहनी चाहिए। आपका बहुत-बहुत आभार....

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  13. बहुत ही गंभीर बहस है यदि इसके फ़लक को और अधिक विस्तार दिया जा सके

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  14. स्त्री चाहे पहाड़ की हो या कहीं और की उसे दुःख और विवशता से आगे तो जाना ही होगा. बहुत सी चीजों को अस्वीकार करने का साहस उसे अपने भीतर पैदा करना होगा चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो. ऐसा कोई भी परिवर्तन एक दिन में नहीं होता. इसके लिए भी एक कंडीशनिंग की आवश्यकता है और इस काम में आज की कविता और कहानी मतलब साहित्य, और दृश्य मीडिया अपना बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं. समीक्षा सधी हुई और संतुलित है. बधाई.

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  15. कवितायेँ सम्प्रेष्णशील हैं , पहाड़ के जनजीवन का स्त्री पक्ष/दृष्टि से मार्मिक चित्रण है.निःसंदेह कहीं कही आक्रोश है परन्तु उसका स्वरुप आत्मघाती ही अधिक है.रचनाएँ पहाड़ की दीदी- भुलि के दर्शन तो कराती हैं पर ये तस्वीर उनका stereotype ज्यादा है. इस चित्रित स्त्री में कोई करवट,कोई अंगड़ाई कोई सुगबुगाहट भी नहीं मिली...पहाड़ के जनांदोलनों से लेकर शराब विरोधी मोर्चे तक में दो दो हाथ करती स्त्री को मैं 'मिस' करता रहा.

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