Tuesday, September 27, 2011
7- मानो पूरा पहाड़ सम्वाद के लिए बेताब है !
महेश पुनेठा ने पिछ्ले पोस्ट मे अब तक की पूरी चर्चा को बहुत ही स्पष्ट और सम्प्रेषणीय तरीक़े से प्रस्तुत किया है और उस मे बहुत ही ज़रूरी टिप्पणिया जोड़ी हैं ; जिस से यह अनौपचारिक चर्चा एक स्तरीय विमर्श मे बदल गई है. केवल एक कमी रह गई. वह यह कि एक महत्व पूर्ण कविता इस आलेख से अलग रह गई ।
यूँ तो “ सरुली” कविता इतनी सरल, सहज और स्पष्ट है कि उस पर कुछ कह पाना कठिन है .लगभग असम्भव .कविता अपनी बात खुद ही मुकम्मल करती है . इसे कही से भी खोलने या व्याख्यायित करने की ज़रूरत नही। फिर भी मुझे लगा कि इस कविता कुछ कहे बिना यह चर्चा अधूरी होगी. अपनी सीमाओं को स्वीकारते हुए इस कविता पर दो चार बातें करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ.
महेश ने अपनी बात कहने के लिए जो फॉर्मेट चुना , बहुत प्रशंसनीय है. उत्तराखण्ड की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्र इस कविता की पत्र शैली की वजह से ही उभर कर आया है. इस चित्र मे वहाँ के आम घर परिवार की तमाम ज़रूरी डिटेल्ज़ बड़ी ही कलात्मकता के साथ दर्ज कर ली गई है. ऐसे कथ्य के लिए पत्र मे ही इस तरह का सटीक समय और स्पेस मिल सकता था . यह शिकायत आमने सामने का सम्वाद बना कर भी प्रस्तुत की जा सकती थी . लेकिन पत्र के साथ यह सुविधा हुई कि सरुली को अपनी पूरी भड़ास लिकालने का अवसर मिल गया . शायद अब सरुली अपने बौज्यू का ऐसा कोई भी पाखण्ड पूर्ण और वाहियात तर्क सुनने को तय्यार नही है, जो आज तक उस के मौन को, उस की गऊ सदृश सहंनशीलता को उस के स्त्रीसुलभ गुण के रूप मे जस्टिफाई करता आया है . और जो कि आमने सामने के संवाद मे उसे सुनना ही पड़ता. साथ मे वह अपने बौज्यू की पुरुष वादी मानसिक *कंडीशनिंग* का लिहाज करते हुए उन्हे सांत्वना भी दे रही है कि “मेरी फिक़र न करना मैं ठीक ठाक हूँ ” ऐसी प्रत्यक्ष झूठी दिलासाएं भी पत्र मे ही दी जा सकती हैं. जबकि बौज्यू और सरुली दोनो ही हक़ीक़त जानते हैं. और अपने पाठ मे यह वाक्य ज़बर्दस्त वञ्जना पैदा करता है.
दूसरे, इस का इकतरफा सम्वाद होना एक प्रतीकार्थ रूप मे आता है कि इस युग मे एक संवेदनशील पुरुष के पास चुपचाप ये शिकायतें सुनने के सिवा कोई चारा नही है. महेश का शिल्प पुरुष को बोलने का मौका ही नही देता ! और इस तरह यह सिंबोलिज़्म सफल प्रयोग है.
भाषा तो महेश की लाजवाब है ही . और उस का मुख्य कारण है लोक शब्दावली का सचेत और स्वाभाविक प्रयोग. इसी से इस भाषा की ताल इस के कथ्य की लय को, इस के आवेग को पूरा पूरा सहयोग देती चलती है. और यह जुगलबन्दी कविता मे आद्योपांत चलती है. ऐसे अनेक उदाहरणो पर अनायास ही ध्यान चला जाता है जहाँ कवि की शिल्प के प्रति सजगता प्रमाणित हो जाती है . लेकिन यह कवि की सफलता है कि कलात्मकता कही से भी अतिरिक्त और थौंपी गई नही प्रतीत होती है.
अस्तु, मुझे उम्मीद नही थी कि हम इस स्तर की चर्चा कर पाएंगे, और इतने सारे पहलुओं पर चर्चा कर पाएंगे . मुझे पता है हमारे पास और भी बहुत से प्रश्न है. हम ने अपने बाहर भीतर खूब टटोला . कुछ प्रश्नो के उत्तर हम खोज पाए , बहुत से अनुत्तरित रह गए. बहुत से नए प्रश्न भी खड़े हुए .
इस चर्चा के दौरान मुझे ऐसा लगा कि एक स्वप्न सा चल रहा है और स्व्प्न मे मानो इन कविताओ के कवि, उन के चरित्र, इस चर्चा के टिप्पणी कार, सब आपस मे बतिया रहे हैं . सब के पास अभी एक दूसरे से कहने के लिये बहुत कुछ है . मसलन निरंजन की छात्राएं निशांत की विलाप करती सखी को समझा रही हैं – अमा जी, तू हमारी फिक़्र न कर. पढ़ लिख कर हम अपना कमा कर खाएंगी , और अपने बच्चों को भी आत्म निर्भर होना सिखाएगी. लगता है उन्होने निशांत, साहिल , पुनेठा, की कविताओं के साथ गीता गैरोला, प्रदीप पाण्डेय की कविताएं या राजेश सकलानी की यह कविता भी पढ़ ली हैं ....
दीदियों और भुलियों
( उत्तराखंड आंदोलन के दौरान)
दीदियो और भुलियो! त्ुम जब भी याद आती हो /जैसे उकालों पर चढ़ती हुई हरा-भरा रंग उड़ाते /पाखों पर सुनाई पड़ती है तुम्हारी साँसें /अंधेरी सुबहों को तुम निकल पड़ती हो घास के / जागने पर हमें दिखाई पड़ता उजाला चाटियों पर /तुम्हारे पास भाषा सुरक्षित है /तुम्हारे पास आवाज सुरक्षित है तुम्हारे पास जब हम आते हैं दूर मैदानों से /धीरे-धीरे खुलने लगते हैं पहाड़ / फिर लग गया है पहाड़ों में बाघ कितनी बार खदेड़ा है तुमने बाघ को जिन्हें सत्ता की भूख ने खूनी बना दिया है /वे तुम्हारी आवाज से पस्त होते हैं।
ब्यूंस की टहनिया विनिता जोशी की परियों को उन की ईजाएं बन कर बताना चाह रही हैं कि हम मे भी एक परी उतरी थी एक दिन ...और हम भी एक दम परी हो गई थी..लेकिन पता न चला कब हमे काट कर छील कर बाँध कर खा लिया गया, जलादिया गया, गाड़ दिया गया रूखे पहाड़ों पर ...कब हमारी लोच और हरेपन का नाजायज़ फायदा उठाया गया , हमे पता ही न चला !! लेकिन तुम होशियार रहना , रेखा चमोली ने जो कहा , ध्यान से सुनना. वे तुम्हे गंगा कहेंगे तो तुम खुद को गंगा न मान लेना. तुम अनाम नदी बन कर बहती रहना !! वर्ना उनकी जाल मे फँस जाओगी .
निशांत की विलाप करती सखी ब्यूँस की टहनियों को सांत्वना दे रही हैं -- तुम चिंता मत करो बहन , मैं तुम्हारी बेटियों को सिखा दूँगी , खुद कटने के बजाय उन सभी भूखे जांनवरों को काटना, .जो तुम्हे खा जाना चाहते हैं . और साहिल की नाटी गाती औरतों से पुनेठा की सरुली पूछ रही है – सखी, सच सच बताना इस नाटी मे ऐसा क्या है कि तुम्हे अपने बोज्यू और उस घर की याद नही सताती !! और कैसा लगता है जब तुम्हारा मर्द दोपहर का भोजन ले कर खेत पर आता है , और तुम्हारे सारे काँटे कुम्बर निकाल लेता है !! साहिल की नाटी गाती स्त्री उत्तर देती है — हमे इन नाटियों और गीतों मे उसी तरह का संतोष मिलता है जिस तरह तुम्हे अपने बौज्यू को चिट्ठी लिख कर ! और फक़त देह के काँटे कुम्बर निकाल लेने से मन की टीस खत्म नही हो जाती.
प्रदीप सैनी की बाल सँवारती औरतों को झिंझोड़ते हुए ईशिता पूछ रही है कि बताओ तुम ने उन लड़कियों को क्या गुरु मंत्र दिया है...कौन सा रहस्य उन बच्चों के बालों मे गूँथ दिया है ? हम से शेयर करो और उन्हे आपस मे भी शेयर करने की सीख दो. यह छिपाव और झिझक और संकोच ही सम्वाद हीनता का कारण हैं . जब कि यह ऐसा समय है जहाँ संवाद ही हमे बचा सकता है.
कवि बुद्धि लाल पाल आरम्भिक बचैनी के बाद एक दम चुप हो कर शायद एक अच्छी सी कविता लिखने बैठ गए हैं. सुशीला पुरी, प्रदीप कांत, रेखा चमोली मानते है कि स्त्री का दर्द हर जगह एक सा है. जब कि अनूपसेठी भोगौलिक आधार पर स्त्री की समस्याओं मे वेरिएशन देख रहे हैं . मुझे तो आर्थिक वर्गों के आधार पर, सांस्कृतिक समुदायों और जातियो के आधार पर, और सामाजिक विकास के आधार पर भी स्त्री के दुख मे अत्यंत सूक्ष्म एवम जटिल विविधताएं दिख रही हैं, जिन का साधारणीकरण स्त्री विमर्श को भटका दे रही है . स्त्री विमर्श के *ग्लोबल* आन्दोलन से प्रेरित होने की बजाय मुझे इस की *लोकल* कुंजियाँ मे खोजने मे ज़्यादा दिलचस्पी है. .
घुघुती बासूती को लगता है कि ये सभी कविताएं उन की माँ को पढ़ानी चाहिए. विनीता जोशी को लगता है खोज खोज कर दुख के चित्र प्रकट करने से कुछ नही होगा, स्त्री का असल विद्रोह और उस की असल ताक़त भी उस के प्रेम मे छिपा है.
सुनीता, रेखा चमोली , अनूप सेठी कह रहे हैं कि हमारे समाज मे विद्रोह नही है तो कविता मे कहाँ से आएगा ? ईशिता और महेश पुनेठा कह रहे हैं कि कविता को एक कदम आगे लेना होगा. ये लोग परोक्ष रूप से शायद यह भी मान रहे हैं कि विद्रोह कविता मे आएगा तो समाज मे साफ साफ दिखेगा. मोहन श्रोत्रिय जी आशावान हैं कि “संभाव्य चेतना” के कुछ परिवर्तन कामी संकेत इन रचनाओं मे ज़रूर दिख जाएंगे . तमाम लोग मान रहे हैं कि अब तक पहाड़ की स्त्री ने अपना दुख कहने मे संकोच किया . अब वह कह देना चाहती है ... मेरा भी यही मानना है. उस का असल दुख है -- ‘न कह पाने का दुख’ . जो कि पहाड़ का असल दुख भी है .
“काश / ये पहाड़ बोलते होते / तो (सब से पहले) यही बोलते/ काश हम बोलते होते!”
वन्दना शुक्ला, अशोक कुमार पाण्डेय स्तब्ध हो कर देख रहे हैं... जहाँ एक ज़माने मे शम्मी कपूर और राजेश खन्ना छैल छबीले पोशाकों मे नाचते कूदते ; *या............हू * और *मेरे सपनो की रानी* गाते दिखाई पड़्ते थे वहाँ आज ये सब हो रहा है , पूरा पहाड़ गम्भीर और सार्थक सम्वाद करने के लिए बेताब हो रहा है ....
सच मे , यह एक अद्भुत और सुखद शुरुआत है !!... कितना गुरिल्ला शुरुआत , यह तो वक़्त बताएगा .
Labels:
कविता के बारे में
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
lokdharmi aalochak ramakant sharma ji ne f.b. par yah comment bheja hai......पहाड़ी स्त्रिओं पर पहली बार इतनी सार्थक चर्चा के लिए महेश जी और अजय जी को हार्दिक बधाई देने को मन हुआ . पहाड़ी स्त्री के जीवन संघर्ष और अदम्य जिजीविषा को वे भलीभांति समझते हैं ,
ReplyDeleteवास्तव में ही यह चर्चा अच्छी रही. अब इसे लेख की तरह लिख कर प्रकाशित करने पर विचार करना चाहिए.
ReplyDeleteपहाड़ की चेलि लेै पहाड़ कि ब्वारि ले कभै नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
ReplyDeleteकभै नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
रत्तै उठि पोस गाड़ण पाणि ले भरि लूण
बिन कलेवा रोट खाई त्वीले जाण छु घास काटण
सांझ पड़ि तु घर आई सासू की गालि खाई
पहाड़ की चेलि ले कभै पहाड़ कि ब्वारि ले नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
कभै नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
भान मजिले चुल लिपि ले फिरि गोरू मुचुण
गोरू का दगाड़ बै ब्वारि रित घर नि उंण
सुक लकाड़ ट्वेड़ि लाई सांझ पड़ि तु घर आई
पहाड़ की चेलि ले पहाड़ कि ब्वारि ले कभै नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
कभै नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
औसौजै में धान काटण चैत में ग्यू टिपण
मंगसिर में जाण ब्वारि त्वीले घास मांगंन
बारू मास बिति गईं तेरि बुति पुरि नि भई
पहाड़ की चेलि ले कभै पहाड़ कि ब्वारि ले नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
कभै नि खाया द्वि र्वाटा सुखैले
lok bhasha main is tarah ke lok geet bahut kam ho gaye hain jinamaim lok ke sukh-dukh bahut kam vyakt ho rahe hain. rajiv joshi sadhuvad ke patra hain ki unhone pahad ki stree ke sangharsh ko vyakt karate kumauni lokgeet ko yahna prastut kiya. pahad ki stree ne khabhi bhi do roti sukh se nahi khaye kyunki usake pas itani furasat hi nahni hai.
ReplyDeletelok bhasha main is tarah ke lok geet bahut kam ho gaye hain jinamaim lok ke sukh-dukh vyakt ho rahe hain. rajiv joshi sadhuvad ke patra hain ki unhone pahad ki stree ke sangharsh ko vyakt karate kumauni lokgeet ko yahna prastut kiya. pahad ki stree ne khabhi bhi do roti sukh se nahi khaye kyunki usake pas itani furasat hi nahni hai.
ReplyDeleteपहाड़ की नारी पर रची कविताओं के बहाने एक अच्छी बहस देखने को मिली। कविताओं ने तो दिल को हिलाया ही, अपने इर्द-गिर्द देखने को मजबूर भी किया। इस लम्बी बहस को सरूली ने भी दिषा दी। महेष पनेठा की कविताओं में परिवेषीय विम्ब,आम जन से उठी ठेठ लोक भाशा तो है ही। ये कविताएं सच्ची बयानी भी हंै। वास्तविकता का बखान भी हंै पीड़ा भरी व्यथा कथा भी है। पहाड़ आकर देखो सरूली नहीं सरूलियाँ हैं इधर। कविताओं की आलोचनाओं में यह सब सराहा भी गया पर कविताओं में विद्रोह न होने की आलोचना भी हुई। इन कविताओं ने कइयों को रूलाया। दस वर्श पहले यह दर्द और भी गहरा होता(कल भेजा गया लोकगीत देखिए वहाँ वदनतोड़ काम व थकान के बाद भरपेट गालियों के साथ भोजन की चटनी है)। दरअसल महेष पनेठा जिस दौर के कवि हैं उसकी असलियत यही है। यहाँ विद्रोह है ही नहीं या बहुत कम है, घुटा-घुटा सा है। यहाँ तक कि सरूली के अन्दर भी नहीं है। सरूली की बाप को चिठ्ठी न तो कोई विद्रोह है न हीं कोई आषा। विद्रोह के लिए तो साथ चाहिए हाथ चाहिए। सरूली का कोई नहीं है। न बाप न भाई न पति न कोई औरत जात। पुनेठा जी की कविताएं ये हाथ जुटाती हैं। सूरज को भी मात देने वाली पहाड़ की औरत मुक्ति की नही सोचती इसेे ही औरत की जिन्दगी मानती है। समाज ने उसे सहनषीलता की मूर्ति बना दिया है। मुक्ति की राह भी नहीं सूझती, कहीं बात भी नहीं उठती। अपनी कविताओं से पुनेठा जी यह बात दमदार तरीके से दिल को छूने और पलट देने की हद तक उठाते हैं। उनकी कविता में यह ताकत सच्ची व्यथा-कथा से ही आती है। किसी पहाड़ी औरत को यह कविता सुनाई जाय तो वह षायद गला भर कर कह उठे मेरे दुख मत कह दो तो। ये कविताएं सरूली में मुक्ति की चाह जगाती हैं, उसके इर्द-गिर्द साथ और हाथ जुटाती हैं खमोषी ताड़ती हैं। कवि के दौर की यही असलियत है और यही जरूरत भी। समाज की तस्वीर दिखती है। विद्रोह की आग उगलने वाली कविताएं अच्छी लगती और साहित्य की कसौटी में खरी भी, पर वे सच्ची बयानी के बजाय हवाई होती। आज के दौर की ये कविताएं घस्यारियों से कुछ घस्यारे पैदा करेंगी जरूर। दस साल बाद की सच्ची कविता में विद्रोह भी दिखेगा खुद-ब-खुद।
ReplyDeleteईशिता का मेल:
ReplyDeleteराजीव जोशी जी की कविता पढ़ कर अच्छा लगा, हलांकि पूरी तरह से समझ नहीं आई। पर इतना तो समझ आया कि कविता, पहाड़ी स्त्री के कठिन जीवन को ले कर लिखी गई है। पूरी चर्चा के दौरान मैं इन्तज़ार करती रही कि इन भैगोलिक कष्टों को सीधे सीधे सह रही औरत कुछ कहेगी। परन्तु ऐसा हुआ नहीं। मैं जिस पाहाड़ी सामाज से आती हूं, वहां, जीवन की इन भैगोलिक कठिनाइयों से अधिक अपने आप को व्यक्त करने के अधिकार का ना होना अधिक कष्ट देता है। यहां लोक गीतों में भी, मैके को बेतरह याद करने के गीत हैं। सुख के और प्रेम के गीत न हों ऐसा नहीं है, परन्तु स्त्री जीवन के दर्द की बात करते हुए ऐसे ही गीत ज्यादा हैं। ज्यादा से ज्यादा कुछ गीतों में अपने उपर परिवार के अन्य सदस्यों के अधिकार की बात कही गई है, जिसे वे जीवन का अंग मानते हुए स्वीकार करती हैं। यहां औरतों के दर्द मिलते जुलते प्रतीत होते हैं परन्तु हर एक के जीवन में उन का स्वरूप अलग होता है, इसलिए वे व्यक्तिगत दुख बने रहते हैं, समाज के दर्द का रूप नहीं लेते। इस पर, चोटी गूथते हुए जो संस्कार मां बेटी को देती है, उन में मुख्य है, अपने दर्द को सार्वजनिक न होने देने का संस्कार! इसके चलते वे इस व्यक्तिगत दुख की बात बहुत बार जुबान पर नहीं लातीं, आपस में बतियाते हुए भी नहीं। दर्द को सार्वजनिक न होने देने का संस्कार बहुत गहरा है। मेरे समाज में यह बहुत बहुत बड़ा स्त्रियोचित गुण है। सिस्टम में कुछ गलत हो रहा है, ऐसा लगते हुए भी वे इसे चुपचाप चलते रहने देना चाहती हैं, क्योंकि गलत होते हुए भी यह गुण परिवार नामक संस्था को चलाए रखने के लिए आवश्यक है, ऐसा वे मानती हैं। स्त्री को सम्मान मिलते हुए परिवार चल सकते हैं, ऐसा वे अभी स्वीकार नहीं कर पा रहीं। फिर भी मैं इन्जार कर रही हुं कि किसी दिन तो वे अपना दर्द सांझा करना चाहेंगी। मैं देखना चाहती हूं कि उस दर्द की भाषा क्या होगी, श्सब्द कैसे रहेंगे और इससे भी अधिक िकइस बात को उनके अपने समाज में किस तरह से लिया जाएगा।
ईशिता शुरू से जिस ओर संकेत कर रही हैं वह पुरुष सत्तात्मक समाज में स्त्री के वजूद के साथ जुड़ा हुआ महत्वपूर्ण मसला है । ‘कुछ न कहना , चुपचाप सहना ‘ वाली भाषा और व्यवहार स्त्री बचपन से अपने आस –पास देखती आई है । यह पहाड़ी स्त्री के साथ जुड़ा हुआ नहीं बल्कि किसी भी समाज में स्त्री की अस्मिता के साथ जुड़ा हुआ मसला है । समाज के सबसे छोटी और सबसे महत्वपूर्ण संस्था परिवार से स्त्री के विरुद्ध यह नीति- शास्त्र शुरू होता है और बात –बात में ‘लोग क्या कहेंगे ‘ जैसे फिकरों से जोड़ा जाता है । यह संस्कार चोटी बनाते हुए माँ से बेटी तक ही संप्रेषित नहीं होते बल्कि बेटों तक भी संप्रेषित होते हैं जब उन्हें सिखाया जाता है कि मेहमानों को चाए –पानी देने , खाना बनाने और घर का अन्य काम करने में सहयोग तक देना उनकी शान के खिलाफ है और यह सब पूरी तरह से उनका नहीं बल्कि लड़कियों का काम है । पुरुष परिवार में अपनी परवरिश के दौरान जान जाता है कि घर –बाहर के महत्वपूर्ण मामलों में निर्णायक भूमिका पुरुष को ही निभानी है और स्त्री का काम लिए गए निर्णयों की पालना करना है । पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों का यह विभाजित संस्कार लेकर हर पीढ़ी का पुरुष और स्त्री आगे बढ़ते हैं और जानते हैं कि समाज में स्त्री की हैसियत क्या है । आज भी मित्र ऐसे चुटकुले sms करते हैं जो स्त्री को दोयम दर्जे का प्राणी साबित करते हैं। इससे पुरुष का अहं तुष्ट होता है । लड़कियों या औरतों को गाड़ी चलते देख फिकरे कसते हैं और दूरी बनाए रखने की सलाह देते हैं । पहाड़ की स्त्री और पुरुष में भी परिवार और समाज से यह संस्कार जाने अनजाने चले आते हैं कि घास –लकड़ी के लिए जाना और साथ –साथ परिवार की भी जिम्मेदारियाँ निभाना , सुबह से रात तक खपे रहना किसका काम है । यह मसला केवल आर्थिक स्वतंत्रता का ही नहीं बल्कि बल्कि स्त्री के साथ जुड़े हुए ‘चरित्र‘ शब्द का भी है , जिसके चलते सीता अग्नि परीक्षा से गुजर कर धरती में समा गई थी ।
ReplyDeleteऐसा नहीं है बदलाव के संकेत चीन्हे नहीं जा सकते । मैं इस बहस के शुरू होने के बाद से ही लड़कियों , लड़कों , अध्यापकों और गाँव से जुड़ी महिला कर्मचारियों से इस मुद्दे पर जानकारी जुटाता रहा हूँ और आशान्वित हूँ कि आने वाली पीढ़ी न केवल बराबरी के मसले पर बल्कि ‘चरित्र और नैतिकता’ के मसले पर भी नए दौर कि कविता –कहानी के साथ सामने आएगी । जोड़ना चाहूँगा कि कथा साहित्य और प्रयोगशील सिनेमा इस मसले को ले कर अधिक मुखर है ।
हाल ही में सृजन समय का कविता विशेषांक आया है जिसमें स्त्री पर कुछ कविताओं (नरेश सक्सेना, पवन करण, विष्णु खरे और कात्यायिनी की) पर शालिनी माथुर का लेख है. उसमें भी यथास्थिति से आगे की कविता की मांग (सी) की गई है.
ReplyDeletei like that expression........ माँग (सी)!
ReplyDeleteजी अनूप जी, और नरेश सकसेना ने प्रतिक्रिया भी दी है...
ReplyDeleteशालिनी माथुर ने जिस निर्मम भाव से पवन करन की कविताओं का विश्लेषण किया है वह बताता है कि चीज़ों को दूसरी तरफ से भी देखा जा सकता है.जो पुरुष -दृष्टि से छूट रहा है, नारीवादी दृष्टि उसे कितनी अलग दृष्टि से देख सकती है. मुझे लगता है इस दृष्टि से ये लेख पठनीय है. हिंदी कविता में स्त्री विषय पर लिखा हुआ ये एक जरूरी लेख है और वे इस विषय पर एक पुस्तक भी लिखना चाहती हैं अतएव हिंदी कवि और कवयित्रियों को सावधान हो जाना चाहिए. यद्यपि शालिनी माथुर की इस बात से मैं सहमत हूँ कि यथार्थ के नाम पर स्त्री को हमेशा दबा, कुचला हुआ दिखाते रहना पर्याप्त नहीं है, उसके संघर्ष को भी सामने लाना चाहिए. लेकिन किसी कवि पर ये बाध्यता लादी नहीं जा सकती कि वह यथार्थ को किस तरह प्रस्तुत करे
.