ग्वालियर के अशोक कुमार पाण्डेय की ये ताज़ी कविता बहुत दिन पहले प्राप्त हुई थी . इस ब्लॉग पर चल रहे एक बहस के कारण इस सशक्त रचना को इतनी देरी से लगा पा रहा हूँ .इस का मुझे बेहद अफसोस है.उम्मीद है कि यह कविता अब तक कहीं नही छपी है. अशोक सच मुच *अपनी कविता के कलेजे मे प्राण* डाल देते हैं. एक धीर प्रशांत प्रौढ़ नायक की तरह यह कविता मुझे इस बदहवास समय मे सम्वेदनाओं के घरौंदों को बचाते हुए चलने की प्रेरणा देती है.मैं अशोक मे एक बड़े फलक शदीद कविता लिखने की सच्ची प्यास देखता हूँ . उनकी लम्बी कविता "अरण्यरोदन ....." से तो हिन्दी पाठक परिचित हैं ही :
मैं लिखता हूँ कविता
जैसे समंदर लिखता है बादल
कविता के कलेजे में रख दिए हैं मैंने प्राण
और उम्र की तमाम चिंताएँ सपनों की चमकीली बोतल में डाल
बहा दी हैं समंदर में
मैं दूर से देखता हूँ समंदर से सीपियाँ बटोरते बच्चों को
मेह की चादर लपेटे देखता हूँ बादलों को
घरौदों को बचाते हुए चलता हूँ समंदर किनारे
बूढ़े क़दमों की सावधानियों को उन्हीं की नज़र से देखता हूँ
लौटते हुए पैरों के निशान देखता हूँ तो चप्पलों के ब्रांड दीखते हैं धुंधलाए हुए से
मैं बारिश को उनमें घुलता हुआ देखता हूँ
मैं खेतों की मेढों पर देखता हूँ खून और पसीने के मिले-जुले धब्बे
फसलों की उदास आँखों में तीखी मृत्यु-गंध देखता हूँ
मेरे हाथों की लकीरों में वह तुर्शी बस गयी है गहरे
मेरी सिगरेट इन दिनों सल्फास की तरह गंधाती है
मैं अपने कन्धों पर तुम्हारी उदासी की परछाइयां उठाये चलता हूँ
तुम देखती हो मुझे
जैसे समंदर देखता है नीला आसमान
मैं बाजरे के खेत से अपने हिस्से की गरमी
और धान के खेत से तुम्हारे हिस्से की नमी लिए लौटा हूँ
मेरी चप्पलों में समंदर किनारे की रेत है और आँखों में मेढों के उदास धब्बे
मेरे झोले में कविताएँ नहीं कुछ सीपियाँ हैं और कुछ बालियाँ
समय के किसी उच्छिष्ट की तरह उठा लाया हूँ मैं इन्हें तुम्हारे लिए
यह हमारा प्रेम है बालियों की तरह खिलखिलाता
यह हमारा प्रेम है सीपियों सा शांत
यह हमारे प्रेम की गंध है इन दिनों ... तीखी
मैं लिखता हूँ कविता
जैसे तुम चूमती हो मेरा माथा
बहुत सुन्दर भाव भरे हैं।
ReplyDeleteखूबसूरत कविता...
ReplyDeleteमेरे कॉंवेंट शिक्षित भतीजे ने कहा,*ताज़ा* कविता.हालाँकि उस के पास कोई तर्क नही था. इस से याद आया कि खुद अशोक ने भी कहा था *ताज़ा* कविता .और तर्क के साथ कहा था. हम हिन्दी सीख रहे हैं अभी भी !
ReplyDeleteAshok bhai ki kavitaon main vaicharik paripakwata mujhe bahut bhati hai.yah kavita bhi usaka apavad nahni.ek or achhi kavita ke liye badhai.....
ReplyDeleteaapne bahut sundar kavita share ki hai dada.
ReplyDeletehum ise pahle parh chuke hain..baar baar parhne jaisee :-)
मुझे ख़ुशी है कि इस कविता के जन्म की साक्षी रही हूँ..देर रात अशोक का मेसेज आया पढ़िए दी मेरी नई कविता बताइए तो कैसी लगी ..और मेरा जबाब था भाई, बस एक शब्द ''शानदार''
ReplyDeleteमैं पहले भी इस कविता पर टिप्पणी कर चुका हूं. एक बिल्कुल अलग तरह की कविता है यह, स्वयं अशोक की अन्य कविताओं से भी अलग. एक बेहद परिपक्व रचना जहां 'बादल', 'समंदर', 'आसमान' और 'माथा' अपने प्रचलित अर्थों से भिन्न अर्थ-छवियाँ प्रस्तुत करते हैं. एक ख़ास तरह की चित्ताकर्षक चित्रात्मकता है पूरी कविता में.
ReplyDeleteवाह... बहुत जीवंत... यादगार रचना... कवि को बधाई...
ReplyDeleteअच्छी कविता , सच्ची कविता
ReplyDeleteजितना सुंदर अशोकजी को कवितायें लिखती हैं उतनी ही गहरी प्यास जन्म लेती है पाठक के हर्दय में उन्हे पढ़ने को....
ReplyDeleteकविता के कलेजे में प्राण रखें बिना कविता नहीं निकलती. प्रेम के साथ उसका वातावरण भी खूब है. बधाई . अजय और अशोक जी को.
ReplyDeleteमैं यह कविता पहले भी पढ़ चुकी हूँ. तब भी सन्न रह गयी थी, आज फिर उसी स्थिति में हूँ. प्रेम के सम्पूर्ण भावों से भरी...यह हमारा प्रेम है बालियों सा खिलखिलाता, यह हमारा प्रेम है सीपियों सा शांत...
ReplyDeleteShukriya Ajey ji!
अशोक भाई की कविताएं गहरे और विराट सरोकारों की कविताएं हैं, जिनमें निजी संबंध भी पूरी दुनिया को अपने में समट लेते हैं और एक वैश्विक चेतना पैदा करते हैं। यह कविता अत्यंत भावपूर्ण और आत्मीय होने के साथ समूची मानवता और प्रकृति को अपने काव्य सरोकारों में समाहित करने वाली कविता है।
ReplyDeleteबहुत ही जीवंत..दिल-दिमाग को झकझोर देने वाली कविता
ReplyDeleteआप सबका बहुत-बहुत आभार...
ReplyDeleteदिल खुश हुआ ...... बहुत अच्छी कविता
ReplyDeleteशुक्रिया प्रदीप भाई...
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता है.
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