Sunday, November 6, 2011
क्या धर्म का अरण्य इतना बीहड़ होता है ?
प्रदीप सैनी शिवालिक की वादियों में पाँवटा (हिमाचल) नामक शहर मे वक़ालत करते हैं . छात्र जीवन से ही गम्भीर रचना कर्म में लीन , हिमाचल के चर्चित युवा कवियों में से एक प्रदीप की रचनाएं मुख्य धारा की पत्रिकाओं मे बहुत कम देखने को मिलती हैं .तिब्बत पर लिखी गई उन की ये ताज़ा कविताएं मुझे बहुत पसन्द आईं . कवि की अनुमति से ये अप्रकाशित रचनाएं खास इस ब्लॉग के पाठकों के लिए :
सुनो भिक्षु
भिक्षु
सुना है मैंने
तुम तिब्बत से आए हो
तुम्हारे लिए मेरे पास सवाल हैं कईं
संशय त्याग दो
मुझे नहीं है कोई रुचि
उन मन्त्रों में छिपे
आध्यात्मिक रहस्य को जान लेने की
जिन पर ख़ुद का यक़ीन
बनाए रखने के लिए
बुदबुदाते रहते हो उन्हें निरंतर
मेरे सवाल बड़े सीधे और सरल हैं
मैं जानना चाहता हूँ
कितने वर्षों का अपमान, पीड़ा और निर्वासन
विद्रोह को जन्म देता है
क्या धर्म का अरण्य
इतना बीहड़ होता है
तुम जो सुन नहीं पाते हो
मिट्टी की पुकार
ये जो नौनिहाल है तुम्हारे
सिर्फ शक्ल सूरत से ही
तिब्बती होने का भ्रम देते हुए
साइबर कैफ़े और स्नूकर क्लबो में
भंग पीकर मस्त है जो
क्या इन्हें बताया है तुमने
ठीक-ठीक क्या घटा था
बरसों पहले तिब्बत के भीतर
क्या ये जानते हैं अब
घट रहा है क्या तिब्बत के भीतर
कुछ तो बोलो भिक्षु
यूँ मौन न रहो
यह स्वाँग तुम्हें गूंगा कर देगा
सवालों के जवाब से पहले
धर्म गुरु की तरफ मत ताको
उनके सिर पर सुनहरा ताज है
उनकी विवशता समझो
अपने भीतर झाँको भिक्षु
भीतर
यही तो सिखाया था धर्म ने भी पहले-पहल
फिर चूक कहाँ गया धम्म्
या चूके तुम
शांति जिसकी तलाश में शुरु की थी यात्रा तुमने
उसकी मंजिल कोई पुरस्कार
तो हरगिज़ नहीं था
ये कैसे हितैषी हैं तुम्हारे
जो खरीद रहे हैं तुमसे तुम्हारी आवाज़
मुझे बताओ भिक्षु
क्या है देती सुनाई कहीं तिब्बत की आवाज़
सिर्फ बुदबुदा रहे हो तुम
कोई जवाब नहीं देते हुए
ऐसा तो नहीं भिक्षु
खो दिया है तुमने भी अपना स्वर
अभी अगर प्रार्थना चक्रों ने
क्षीण नहीं की है तुम्हारी श्रवण शक्ति
तो सुनो भिक्षु
उन सभी नदियों का विलाप
जो पिछली लगभग आधी सदी से जारी है
जिनमें नहाने से अक्सर ही
कतराते रहें होंगे तुम्हारे पुरखे
जाओ उन नदियों को ढाँढस बंधाओ
भिक्षु लौट जाओ
लौट जाओ अपने देश
शरण
चाहे धर्म की ली गई हो
या पड़ौसी मुल्क की
तुम हमेशा शरणार्थी की कहलाए जाओगे
तुमने सुना भिक्षु
मैनें क्या कहा
माँ ही सिखा सकती है बोलना
लौटा सकती है खोई हुई आवाज़
तुतलाहट से फिर करनी होगी शुरुआत
कितनी ही बार करना होगा रियाज़
बोलने से पहले एक मुकम्मिल लफ़्ज़
तिब्बत ।
साइबर कैफ़े में तिब्बती लड़की
वह आती है यहां बिला नागा
करती है चैट लिखती है ई-मेल कई
एक अलग दुनिया है उसके पास
होती है वह जिससे रुबरु
किसी लापता धुन पर
करती है घंटो रियाज़
मुश्किल ही है मगर यहाँ से बाहर
उसे सुन पाना एक ख़ामोशी है
जो उसकी आवाज़ में शरणार्थी है
कौन हैं वे
जिनसे इतना बतियाती है यहां
कि लगता है सुन पाते हैं वे उसे
साहस कर पूछ बैठता हूँ
चाबी सी लगती है उसे मेरी उत्सुकता
खुलता है एक निषिद्ध द्वार
जिसके भीतर अपने लिए मिट्टी तलाशते
दुनिया भर में बिखरे उसके दोस्त हैं
जो तिब्बती में बोलते हैं मगर तिब्बत नहीं बोलते
बातों ही बातों में वह बताती है
इन दोस्तों की बदौलत
उसने घूमें है कई देश
नाम जिनके वह गिनाती है
मैं चाहता हूं पूछना
उसने घूमा है क्या कभी तिब्बत
या कभी तिब्बत ही आ गया हो घूमने
उसके स्वपन में कभी
मगर पूछ नहीं पाता
क्या जानती है वो
मिची-मिची सी उसकी आँखों के अलावा
नक़्शे में दुनिया के कहाँ है तिब्बत ।
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पांवटा साहिब देहरादून से बहुत ही करीब है अजेय भाई। शायद लाहौल ही नहीं शिमला भी उससे दूर है, फ़िर प्रदीप सैनी तो देहरादून के हुए न ! खैर। तिब्बत को प्रदीप सैनी की निगाहों से देखने पर बहुत से द्रश्य आंखों के सामने आते रहे पर शायद उनके आशय इस रूप में न थे जैसे प्रदीप के यहां।
ReplyDelete'क्या धर्म का अरण्य इतना बीहड़ है कि..." तीखे प्रश्नों से साक्षात कराती कविता !!
ReplyDeleteप्रदीप भाई और उनकी कविताओं से मेरा पहला परिचय फेसबुक से ही हुआ। उनकी समझ और परिक्वता ने मुझे निरंतर अपनी ओर आकर्षित किया । उनकी कविताएं कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर मुझे प्रभावित करती रही हैं। पिछले दिनों उनकी प्यारी प्रेम कविताएं पढ़ने को मिली और आज एक अलग भावभूमि की कविताएं । यह इस बात का प्रमाण है कि प्रदीप किताबी कवि नहीं है ,उनके पास एक व्यापक अनुभव लोक है। अपने आसपास को वह चैकन्नी नजर से देखते हैं और गहराई में उतरते हुए उससे संवाद स्थापित करते हैं। प्रस्तुत कविताओं से लगता है कि उनके पास कहने के लिए बहुत कुछ है। ऊपर से देखने में भले कविता में पूछे उनके सवाल सीधे-सरल लगते हों पर अपने आशय में बहुत व्यापक एवं गहरे हैं। इनके उत्तर सीधे-सरल नहीं हो सकते । वह धर्म की राजनीति की आरे हमारा ध्यान खींचते हैं। अंदर झाँकने के लिए प्रेरित करते हैं। धर्म कैसे विद्रोह की आग को ठंडा कर देती है उसकी ओर संकेत करते हैं। यह बिल्कुल सच है कि धर्म की शरण से नहींे मिलेगी मुक्ति ,नहीं मिलेगी कोई आवाज । मातृभूमि ही लौटा सकती है खोई हुई आवाज । धर्म हमेशा संघर्ष की धार को भौंथरा ही करते आए हैं। साथ ही भटकाते भी। इन कविताओं में निर्वासन की पीड़ा और विडंबना दोनों ही व्यक्त हुई है।
ReplyDeleteइन कविताओं के लिए प्रदीप भाई तो बधाई के पात्र हैं ही अजेय जी आप भी ।
जो तिब्बती में बोलते हैं मगर तिब्बत नहीं बोलते..
ReplyDeleteनिर्वासन पर एक बेहतरीन रचना-श्रृंखला. प्रदीप में बहुत संभावना है. कविता की सादगी और कथ्य की मजबूती ने सोचने पर मजबूर कर दिया है. बधाई...
# विजय गौड़ ,प्रदीप को आप अपना ही समझिए विजय भाई. कभी मिलिए इस *सच रचने* वाले वक़ील् कवि से. बाहर से यह जितना मासूम और क्यूट दिखता है भीतर से उतना ही गम्भीर और कड़ा है. ज़ाहिर है भाई , आप के आशय निश्चित रूप से भिन्न होंगे. आप ने यदि तिब्बत नही तो कम से कम उन स्थानों को ज़्यादा बारीक़ी से पढ़ा है, जहाँ तिब्बत की संस्कृति और उस का धर्म ज़िन्दा है. आप के बिम्ब और आशय इस सीरीज़ को समृद्ध करेंगे .तिब्बत पर कुछ लिख रखा है तो भेजिए. तंज़िन त्सुंडुए को तो आप ने यहाँ पढ़ा ही है , इस बार अनूप सेठी जी ने एक और तिब्बती कवि की रचनाए भेजी हैं . मतलब उन का अनुवाद. अगले पोस्ट मे दे रहा हूँ .
ReplyDelete# महेश पुनेठा , भाई मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि तिब्बतियों के निर्वासन के मूल मे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से धर्म ही था. मतलब धर्म और उस की राजनीति. मतलब धर्म तंत्र . जहाँ सत्ता का संचालन धार्मिक संस्थाएं करने लगती हैं . बहुत बड़ा प्रश्न यह है कि आज तिब्बतियों को मुक्ति किस के लिए चाहिए ? दलाई लामा जी संस्था के लिए, या कि तिब्बती जन के लिए ?
कुमार जी ....बहुत बहुत साधुवाद, इतनी सारगर्भित कवितायेँ पढवाने के लिए !
ReplyDeleteसच रचना ही वास्तविक कवि कर्म है !
बड़ी आक्रामक शैली में लिखी गई है" क्या धर्म का अरण्य इतना बीहड़ है?" चीन ने जिस तरह तिब्बत पर कब्ज़ा किया, क्या वह बिल्कुल अनदेखा कर दिया जाने वाला कृत्य है? यह कवि का तिब्बत-प्रेम ही है या कुछ और जो निर्वासित तिब्बतियों को लगभग कठघरे में खड़ा करके उन्हें लताड़ता है? मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कविता की अंतर्वस्तु से अलग करके कविता को कैसे देखूं. अलग भी करूं तो कितना?
ReplyDeleteप्रदीप सैनी एक कवि के रूप में भाषा के स्तर पर बहुत प्रभावित करते हैं, पर भाषा कविता की स्वतंत्र इकाई नहीं होती. भाषा और अंतर्वस्तु के बीच गहरा रिश्ता होता है. इस बात को युवा कवियों को तो नज़रंदाज़ नहीं ही करना चाहिए. मेरी कामना है प्रदीप सैनी अपनी काव्य-प्रतिभा को सही ढंग से मूर्त रूप दे पायें.कि
दोनों ही कविताएं बहुत सीमित चित्रों को रख रही हैं भाई अजेय। तिब्बत मैंने देखा नहीं लेकिन तिब्बति बहुत हैं देहरादून में। बहुत बचपन में तिब्बत से भा़ग कर आये उस समय के बच्चे आज बच्चों के बाप हैं। अ़गली पीढियां जो बेशक देहरादून में ही पैदा हुईं लेकिन उनके दोस्त यारों में स्थानीय जन के हम उम्र फ़िर भी नहीं। लम्बे समय से अपने ही तरह का व्यापार करते हुए भी उनका अपना कोई प्रिय ग्राहक नहीं। सोच रहा हूं कि क्या यह सब एक खास धर्म की उपज है या एक ऎसी प्रव्रत्ति जो बहुत अकेले में अपना निर्वासन खुद तय करके ज्यादा सुरक्षित मह्सूस करती है। बहुत धार्मिक हो कर रक्त शुद्धता का खेल खेलने वाली मानसिकता भी अपने ही बीच पनप रहे अन्तर्विरोध को रोक पाने में बहुधा असमर्थ रह्ती है। लेकिन तिब्बति युवाओं में भी बगावत का कोई स्वर इस रूप में सुनायी नहीं देता कि अपनी मर्जी से ही कोई संबंध वह स्थानीयता के साथ बना पाया हो। आखिर इसकी वजह क्या है ? प्रदीप उसे सिर्फ़ धर्म के साथ जोड़ कर देख रहे हैं, जो बहुत तार्किक लगता नहीं। बहुत से सवाल और भी हैं जो बहुत सामान्य होते हुए भी जरूरी हैं जैसे एक लम्बे समय से मैंने किसी तिब्बति को कोई स्थायी रोजगार में संलग्न नहीं देखा। बावजूद रहने खाने और ओड़ने पहनने के ढंग में कोई लाचार तिब्बति भी न देखा। तिब्बत छोड़कर शरणार्थी कहलाये जाते तिब्बतियों के जीवन का सत्य पूरी तरह से कविता में पकड़ न पा रहा हूं।
ReplyDeleteतिब्बत पर लिखी यह कविता एक अलग दुनिया में लेकर जाती है, जो आज का सच है। कवि की तिबित के प्रति प्रेम साफ झलक रहा है। इन दो अच्छी कविताओं ने कवि की संवेदना और समझ का कायल बना दिया मुझे। बहुत-बहुत बधाई...
ReplyDeleteयही कविताएँ तो फिर से पढ़ना चाहता था जो मेरे चेतन -अवचेतन में घुमड़ रही थीं । तब से जब पहली बार ऊना में प्रदीप सैन्नी ने सुनाई थीं । संयोग देखिए ,एक ब्लॉग पर प्रदीप जी की प्रेम कविताएँ पढ़ कर उन्हें मेल करने वाला था कि कम से कम पुनः पढ़ने के लिए ही सही , यह कविताएँ भेजें । प्रदीप निश्चित रूप से असाधारण हैं कि नयेपन के साथ कथ्य को प्रस्तुत करते हैं । जानी -समझी बात भी इस लहजे में कि लगे , इस ओर तो ध्यान गया ही नहीं गया था । उनकी दृष्टि व्यापक ही नहीं तार्किक भी है । अजेय और प्रदीप - शुक्रिया ।
ReplyDeleteआप सभी का शुक्रिया ....जिन्होंने इन कवितायों को पढ़ा और उन पर अपनी राय व्यक्त की ....... दोनों कवितायेँ अलग अलग समय में लिखी गयी हैं .....सुनो भिक्षु वर्ष २०१० में और साइबर कैफे में .... लगभग दस साल पहले २००० में.........और तिब्बती शरणार्थियों के बारे में और तिब्बत के बारे में हमेशा से मन में एक बेचैनी बनी रही है ........ये कवितायेँ उस बेचैनी को पकड़ने की कोशिश से जन्मी हैं....और ये सिलसिला अभी आगे चलेगा ......ऐसा लगता है |
ReplyDelete# मोहन क्षोत्रिय , मोहन क्षोत्रिय जी आपने बिलकुल दरुस्त कहा कि कविता की भाषा को उनकी विषयवस्तु से अलग करके नहीं देखा जा सकता है | मैंने वही कहा जो मैं कहना चाहता हूँ ...... जैसा मैं सोचता हूँ ..... और यह बिलकुल जरूरी नहीं की सभी की राय उससे मेल खाती हो | लेकिन विषयवस्तु और भाषा दोनों पर सभी की प्रतिक्रियाओं का खुले दिल से स्वागत करता हूँ ......ये कवितायेँ तिब्बती शरणार्थियों को समझने की प्रक्रिया का हिस्सा हैं ..... और तिब्बत की राजनीति, रणनीति और धर्म को समझने की भी ...... आप अगर कविता की अंतर्वस्तु से अपनी असहमति स्पष्ट करते तो यक़ीनन ये इस पूरी बातचीत को एक सार्थक मुकाम तक पहुँचाने में मददगार होता | मोहन जी आपने अपना समय दिया और महतवपूर्ण सलाह भी......आपका आभार |
#विजय गौड़ , विजय भाई .... मैं उतना ही आपका हूँ जितना हिमाचल का ....... आपने जो बातें उठाई हैं .....वे बहुत महत्वपूर्ण हैं ....... आप भी तिब्बती शरणार्थियों को करीब से देख समझ रहे हैं ........आपका ये कथन कि वे वर्षो बाद भी स्थानीयता से कोई सम्बन्ध नहीं बना पाए हैं ...सही है ...और वे अपनी एक अलग दुनिया में जी रहे हैं ......लेकिन जो बात परेशान करती है वह यह कि कैसे वे अपनी दशा और अपने देश के हालात को लेकर उदासीन हैं ...... एक और बात कि उनके लिए रक्त शुद्धता वाला नियम सिर्फ भारतियों के लिए है ........ लेकिन यही तिब्बती शरणार्थी यूरोप और अन्य विकसित देशों के निवासियों से सम्बन्ध बनाने के इच्छुक हैं..... आपने कहा कि क्यूँ मैं इसे सिर्फ धर्म से जोड़ कर देख रहा हूँ ...... वह इसलिए कि तिब्बत की राजनीति और धर्म को एक दुसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता ........ विजय भाई .....अगर आप साइबर कैफे वाली कविता देखे तो वहां कोई भी सवाल धर्म से जुड़ा नहीं है ......वह कविता तिब्बती युवाओं कि उस प्रवृति को केंद्र में रखती है जिसकी बात आपने भी की है ....... कि कैसे वे स्थानीयता से नहीं जुड़ पाए और अपनी अलग दुनिया में रमे हुए हैं | और विजय भाई ....... ये सभी बातें एक कविता में सिमट जायें ...... ये अगर असंभव नहीं तो कठीन तो है ही ........ इसीलिए इस श्रृंखला में अभी बहुत कुछ बाकी है ....जो अपना समय खुद तय करेगा |
बड़ी अच्छी बहस चल रही है तिब्बत और तिब्ब्त पर कविताओं पर. इस बार संतोष इस बात का भी है कि कवि ने अपना पक्ष भी रखा है.
ReplyDeleteप्रदीप की ये कविताएं बेचैन करने वाली हैं. मोहन श्रोत्रिय जी की बात भी अपनी जगह ठीक लग रही है, विजय गौड़ की भी और स्वयं कवि प्रदीप की भी.
असल में तिब्बत का मसला बड़ा पेचीदा है. भारतवर्ष जिसने तिब्बतियों को शरण दी, राजनैतिक या आधिकारिक स्तर पर खुद तिब्बत की आजादी को लेकर दोटूक नहीं है. लोकतंत्र के दीवार-छत विहीन तंबू में तिब्बती भी समाए हुए हैं. उधर तिब्बत की आजादी के प्रयत्न शायद बौद्ध धर्म के अहिंसा के सिद्धांत के कारण गांधी की जोशीली (?) अहिंसा के बराबर भी नहीं आ पाते और तिब्बत की आजादी का 'संघर्ष' तो दूर इच्छा मात्र बन कर रह जाता है. यह बात नई पीढ़ी के स्वरतंत्रता-आकांक्षी तिब्बतियों के आक्रामक स्वर को सुन कर और ज्यादा स्पष्ट होती है. लेकिन उनके सामने भी हिंसा का सहारा न लेने का नैतिक बंधन तो है ही.
तिब्बतियों को आर्थिक मदद मिलती रही है. हांलाकि इससे उनके भीतर अपनी पहचान को खो देने का मद इतना ज्यादा पैदा नहीं हुआ पर भारतीयों से एक दूरी जैसी बनी रही है. अन्ना हजारे के आंदोलन में जिस तरह सिविल सोसाइटी (फंडिड संस्थाओं) के अंतर्विरोधों का अध्ययन किया जा रहा है, उसी तरह की छाया तिब्बती आंदोलन पर भी हो सकती है. आर्थिक मदद मानवीय कर्म है, तत्समय जरूरी भी होता है और उससे लोगों का जीवन संवर भी जाता है, पर आजादी पाने जैसे जज्बे पर पानी पड़ने की आशंका भी रहती है. यह 'आर्थिक मदद' भी बड़ा पेचीदा मसला है. अवैध मदद से तथाकथित आजादी के आतंकवादी पैदा होते हैं, वैध और सामाज-सेवार्थ मदद से घुन लगता है. शायद तिब्बती इसी घुन और धर्म की ओवरडोज के शिकार हैं.
प्रदीप कुछ इसी तरह की दुखती रग पर अंगुली रखने की कोशिश कर रहे हैं. विजय गौड़ ने यही सच दूसरी तरह से देखे हैं.
आप लोग बताएं, क्या पता मैं ही किग्भ्रमित होऊं.
आह !
ReplyDeleteकोई तो देख ही लेता है मेरे दर्द को ......अब क्या कहूँ मैं ! कह कह कर खाली हो गया हूँ . दुहराव न समझें तो :
" अरे , नहीं मालूम था मुझे
हवा से पैदा होतीं हैं कविताएं !
क़तई मालूम नहीं था कि
हवा जो सदियों पहले लन्दन के सभागारों
और मेनचेस्टर के कारखानों से चलनी शुरू हुई थी
आज पॆंटागन और ट्विन –टॉवर्ज़ से होते हुए
बीजिंग के तह्खानों में जमा हो गई है कि हवा जो अपने सूरज को अस्त नही देखना चाहती
आज मेरे गाँव की छोटी छोटी खिड़कियो को हड़का रही है
हवा के सामने कविता की क्या बिसात ?
हवा चाहे तो कविता में आग भर दे
हवा चाहे तो कविता को राख कर दे
हवा के पास ढेर सारे डॉलर हैं
आज हवा ने कविता को खरीद लिया है
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है ."
मैं १९९७, २००० और २००७ में जांसकर गया था। समूचे उत्तराखण्ड को जिस तरह से विश्व पूंजी ने अपनी गिरफ़्त में लिया है और एन जी ओ किस्म की चेतना का विस्तार किया है, जांसकर की स्थिति उससे ज्यादा भिन्न न दिखी थी, उसका उत्तरोतर विकास ही सामने रहा। बल्कि एक फ़र्क था तो यही कि उत्तराखण्ड में उस विश्व पूंजी का विस्तार कुछ ऊर्जावान युवाओं के नेत्रत्व में जारी रहे हुए उन्हें भ्रष्ट करता हुआ और जरूरी सवालों से भटकाता हुआ है जबकि जांसकर में तो सीधा नियंत्रण किया जा रहा है। और एक खास बात जो है वह यही कि खुद को ज्यादा बौद्ध धर्म का अनुयायी बताते हुए वे स्थानीय निकटताओं को हांसिल करता है। वहीं मालूम हुआ कि समूचा यूरोप बौद्ध धर्म का अनुयायी होने की ओर है। बल्कि आस्ट्रेलिया में तो बौद्ध धर्म का काफी बोल बाला है। दुनिया के स्तर पर भारत को आध्यात्मिक गुरू दिखलाने को बैचेन मानसिकता जिस तरह से विश्व पूंजी की गिरफ़्त में है क्या तिब्बती शरणार्थी उससे बच पा रहे हैं ? यह बाते कविता के संदर्भ से जरा हट कर हैं, लेकिन जरूरी लगी तो फ़िर से यहां लौटना हुआ।
ReplyDeletevijay bhai, यही बात है , जो कविता मे आना चाह रही है. और आएगी एक दिन. हम हिमालय मे बैठ कर यह खतरा बहुत साफ साफ सूँघ पाते हैं. दुख है कि धर्म और संस्कृति की आड- मे तमाम अवाँछित चीज़ें व्यवस्था और समाज मे घुस रहीं हैं. क्यों कि यही सॉफ्टेस्ट टार्गेट हैं .
ReplyDeleteइन कविताओं की यात्रा करते हुए ऐसा लगता है जैसे मैं किसी बेहद उदासीन वक़्त में ठहर गये लोगो से मिल रही हूँ जो शरणार्थी शब्द के अधीन जैसे दबे पड़े और खो गये है और कवि सीधे सरल सवालो से उनके वजूद की उस दबी खोई आंच को देखना और दिखाना चाहता है. अपने सामने व्यतीत हुए एक आम दैनिक लम्हे तक की गहराई में उतर कर जाता है अस्तित्व के वास्तविक सवालों को दबोच कर बैठे सारे स्वांगो और निरर्थक तठस्थता की पूरी विवेचना करता है यह कविताएं उन सभी देखे अनदेखे दृश्यों व्यक्तियों परिस्थितयों के प्रति बहुत बेचैनी जगाती है ... क्या हम इस बेचैनी से कुछ कर सकेंगे ..
ReplyDeleteवास्तव में क्या धर्म का अरण्य इतना बीहड़ है कि निर्वासित किसी और देश में एक कोने में दुबका पड़ा अपना देश बसा कर ऐसी गहन उदासीनता में जी सके ...दुनियाँ भर में बिखरे .. जो तिब्बती में बोलते है पर तिब्बत नहीं बोलते ...
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