इस नव वर्ष एक छंद लिखा है . यूं ही....... 'जस्ट फॉर अ चेंज' ।
पहले कभी छन्द नहीं लिखे . न कभी ऐसा विचार मन मे आया . जानकार लोग इस के शिल्प पर ज़्यादा ध्यान न दें . मैंने बस वज़न का खयाल रखा है और जहाँ मिल सकता था तुक मिला लिया है। नव वर्ष की शुभ कामनाओ के साथ ..........
आत्महत्या के खिलाफ एक किसान गीत
पहले कभी छन्द नहीं लिखे . न कभी ऐसा विचार मन मे आया . जानकार लोग इस के शिल्प पर ज़्यादा ध्यान न दें . मैंने बस वज़न का खयाल रखा है और जहाँ मिल सकता था तुक मिला लिया है। नव वर्ष की शुभ कामनाओ के साथ ..........
आत्महत्या के खिलाफ एक किसान गीत
चिड़िया चहकी मुर्गा बोला और क्षितिज ने रंग बिखेरे !
लम्बी चादर तान के जाने कितनी सुबहें खो बैठे
कल क्या होगा इस शंका मे कितना जीवन भूल गए हम
दिन भर सुविधाओं के भ्रम मे दुख के चुनते शूल गए हम
कितनी शामें टाल गए जो जी सकते थे झूम झूम हम
कितनी नदियाँ चूक गए जो पी सकते थे घूँट घूँट हम
क्या बादल थे कैसी बिजली भीनी मिट्टी मस्त हवाएं !
छाता ले कर बैठ रहे सब उकड़ूँ हो कर जिसम समेटे
धो सकती थी दर्द ज़खम सब बारिश ऐसी थी वो झमाझम
भीग ही जाते खूब पसर कर धूप लगी जब नरम मुलायम
हो सकता था जीना उस पल नाहक भटके घूम घूम हम
कितनी नदियाँ चूक गए जो पी सकते थे घूँट घूँट हम
दूर किनारे नज़र टिका कर लहरों पे हम बहते जाते !
मिला नहीं उस पार मसीहा अच्छे थे मझधार ही यारो
कितने रंग थे कितनी यादें कितनी ध्वनियाँ कितने मौसम
शीतल जल था गरम रेत थी मूँगा मोती कुछ भी नहीं कम
कितने सागर तैरे जिन मे खो सकते थे डूब डूब हम
कितनी नदियाँ चूक गए जो पी सकते थे घूँट घूँट हम
पत्थर जंगल माल मवेशी हरसू बजते ढोल नगाड़े !
अच्छा खासा जोत रहे थे इस जीवन की मुश्किल खेती
इसी ज़मीं को खोद सुखों के बो सकते थे बीज यहीं हम
कहीं पे खिलते फूल खुशी के हो सकते थे कहीं कहीं गम
रो सकते थे गा सकते थे सो सकते थे यहीं कहीं हम
टूटे दिल और फटी बिवाई सी सकते थे चूम चूम हम
कितनी शामें टाल गए जो जी सकते थे झूम झूम हम
कितनी नदियाँ चूक गए जो पी सकते थे घूँट घूँट हम
27 दिसंबर 2011
अजेय भाई, मजा आ गया।
ReplyDeleteबहुत अच्छे!
ReplyDeleteSainni Ashesh said:
ReplyDeleteIbtidaa-e-ishq hai...
Aage-aage dekhiye...
Sundar!
Baaqi, wo jaanen
Jo jaanate hain...
Mujhse zyaada aur behtar!
कमाल है जी कमाल।
ReplyDeleteekdam naye shilp main prabhawshali kavita .....sundar....ati sundar...
ReplyDeletezidee Dhun Said:
ReplyDeleteआपका छंद जिसे आपे छंद जैसा कह रहे हैं, मुझे तो अच्छा लगा। लेकिन छंद के बारे में कोई जानकारी नहीं है, इसलिए चुप नहीं रहा। लेकिन ऐसी सशक्त रचनाएं रही हैं जिनमं छंद का फूरी तरह पालन नहीं किया गया, बस वे छंद के आसपास रहीं।
चुप रहा की जगह चुप नहीं रहा लिख बैठा। कृपया नहीं हटाकर पढ़ियेगा।
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteमुझे तो बहुत मज़ा आया..छंद तो है ही लेकिन विषय का ट्रीटमेंट कमाल का है. नए साल पर इस नए प्रयोग का स्वागत!
Waah waah!
ReplyDeleteछंद के व्याकरण वगैरह की जानकारी तो मुझे बिलकुल नहीं है पर इस छंद कविता की आतंरिक के साथ बाहरी लय ने इसे लोकगीत की हद तक गेय बना दिया है.अब तो ऐसा लग रहा है कि इसी भाव में छंद से बाहर इतना ही सशक्त शायद नहीं कहा जा सकता था.
ReplyDeleteनया ले आउट भी अच्छा लगा.बीच बीच में इसमें भी प्रयोग करते रहें.जस्ट फॉर ए चेंज.