इस के अलावा हर पर्व की तरह इस मे भी पुरखों के लिए सत्तू और तेल का पिण्ड दान सुर - कवा:ड़ि अर्पित किया जाता है. सुर सूखे सत्तू और तैल का मिश्रण होता है जिसे उपलों और जुनिपर की पत्तियों वाली आग मे जला कर होम किया जाता है. मान्यता है कि धुँए के सहारे यह पिण्ड दान आकाश मे बैठे पित्तरों तक पहुँच जाता है. कवा:ड़ि सत्तू की गूँदी हुई टिक्कियाँ होती हैं. जिन मे अँगूठे के दवाब से तैल रखने के लिए जगह बनाई जाती है. यह सारा अर्पण छत पर एक पत्थर पर सजा कर रखा जाता है . कुछ परिवारों में समस्त ज्ञात पुरखों के नाम पुकार कर कवाःड़ि अर्पित किये जाने की परम्परा है. अंत मे अज्ञात पुरखों के लिए एक साँझा कवाःड़ि रखा जाता है. माना जाता है कि यह सारी खाद्य सामग्री पक्षियों के माध्यम से पित्तरों को प्राप्त होती है. इस पर्व का विशेष आकर्षण है, उतनो सुद. दिन के इस भोज आनन्द विवाहित बेटियाँ अपने माईके में ही लेतीं हैं. आज घर मे एक खास डिश बनती है-- नुदु ए म्हर . आटे को दूध मे पका कर इसे घी के साथ खाया जाता है. दूध कि क़िल्लत हो तो यही व्यञ्जन छाछ मे भी पकाया जा सकता है. तब इसे बोति कुल्डु कहा जाएगा . उतना पर्व के साथ एक रोचक मिथक यह भी जुड़ा है कि आज के दिन शीत देवता चन्द्रभागा संगम मे उतरता है और स्नान करता है.वह साक्षात बरफ का आदमी होता है. उस के हाथ मे बरफ की छड़ी होती है. बुज़ुर्गों का मानना है कि वह कहीं दिख जाए तो उस से नज़र नहीं मिलानी चाहिए. यदि किसी की नज़र मिल गई या गलती से उस का नाम ज़ुबान पर आ गया तो शीत उस आदमी को *ले लेता है*. वह इक्कीस दिनो तक नदी मे ही निवास करता है. इन दिनो नदी जम जाती है.. 22 वे दिन वह बाहर निकलता है. उस दिन नदी किनारे इतनी ठण्ड होती है कि पत्थर चटक कर उस पार पहुँच जाते है. 23 वे दिन खेत पर आता है . 24वे दिन (6 फरवरी को) चूल्हे मे घुस जाता है. इस दिन चूल्हे की आग मे सेक नही होता. यह साल का सबसे ठंडा दिन होता है. 25 वे दिन वह ‘मगम” ( मवेशियों के वन गमन का रास्ता) की ओर प्रस्थान करता है . उस दिन स्त्रियाँ और बच्चे भुर्ज की टहनियों से मवेशियों की पीठ् झाड़ते हुए गीत गा कर शीत को विदाई देते हैं. :
“बरफ की डलियाँ तोड़ो ‘डैहला’ के हार पहनो शीत देवता अपने ‘ठार’ जाओ बेज़ुबानों को छोड़ो” (मूल पटनी से हिन्दी अनुवाद) मान्यता है कि कभी कभी शीत मवेशियों के शरीर पर चिपका रह जाता है और वर्ष भर उन्हें बीमारियों से परेशान करता है. पटन घाटी के अन्य भाषा भाषी समुदायों में भी इस लोक अनुष्ठान के अपने अलग अलग पाठ हैं. शीत इली रीत अति.... अर्थात शीत चला गया , अब राहत मिलेगी. 14 फरवरी को वह अपने घर (ग्लेशियर) की तरफ लौट जाता है. और धीरे धीरे तापमान मे फर्क़ आना आरम्भ हो जाता है. अपने घर पहुँचते पहुँचते शीत बहुत कमज़ोर हो जाता है. उस का आकार छोटी सूई जितना रह जाता है. गर्मियों मे ग्लेशियर के अन्दर जोगणियाँ ( पहाड़ की देवियाँ ) उसे फूँक मार मार कर जिलाए रखतीं हैं. तापमान के उतार चढ़ाव के बावत आदिवासियों की यह गणना एक दम सटीक होती है. यह मेरे क़बीले मे एक महत्वपूर्ण पर्व है, वर्ष के तमाम बड़े उत्सवों की तिथि उतना के आधार पर ही तय होती है . यह नए साल की शुरुआत तो है ही , वर्ष भर के त्यौहारों की शुरुआत का भी प्रतीक है. तो उस आदिम पक्षी की तरह ही मैं भी इस भीषण ठण्ड मे “शुई ती” बोल कर आप सब को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं देता हूँ , और शीत से निपटने की तय्यारी करता हूँ...... आखिर आज उस के गाँव मे उतरने का दिन है, और आने वाले 25 दिन बहुत भारी बीतने वाले हैं !
`शुई ती` - दोस्त।
ReplyDeleteबहुत प्यारी पोस्ट है अजेय भाई ! जानने को मिला, आपको अपनी मिट्टी की ओर खींचने वाले प्यार का रहस्य। बहुत सुन्दर जानकारी उपलब्ध करायी है आपने।
ReplyDeleteआपके शहर से एक बार होकर गया हूँ अब जल्द ही इस वर्ष दूसरी बार फ़िर से जाना हो सकता है, रोहतांग सुरंग कितनी तैयार हो चुकी है?
ReplyDeleteइसी ब्लॉग पर आप को एक लिंक मिलेगा LAHOUL SPITI - रोहताँग टनल के अन्दर ... आप को लेटेस्ट जानकारी मिल जाएगी.
Deleteशुई ती जी...
ReplyDeleteरोहतांग पार का यह जगत हमारे लिए बाल्टी में जमा हुआ बर्फ ही है. आपने 'शुई ती' बोलकर और गर्मजोशी से उसके अर्थ खोलकर एक गिलास जल बनाकर भेंट किया है. अब यह धरती और प्यारी लग रही है.
ReplyDeleteशुई - ती :-)
ReplyDeleteबेहतर रहा "शुई ती " के बारे में जानना ...हालाँकि लाहुल के संस्कृति और रिवाजों से बाकिफ हूँ फिर भी ...बेहतर व्याख्या ...!
ReplyDeletenice Ajay ji
ReplyDeleteबरफबारी के इस दौर से हम भी दो चार हो रहे हैं आजकल...जहाँ तक नजर जाती है- बरफ ही बरफ. यही यहाँ का जीवन है जिसे स्वीकार कर लेना होता है.
ReplyDeleteमकर संक्राँति पर शुभकामनाएं.
जानकारी बहुत ज्ञानवर्धक रही.
ReplyDeleteVery nicely written Ajay ji...keep it up !!!!
ReplyDeleteशुरुआत तो बई जरा निर्मल जी जैसी है...!
ReplyDeleteनिर्मल वर्मा ? यदि उनका चोङ्रोःलि से परिचय होता यदि उन्होने उतना का भोज चखा होता और साक्षात शीत को देखा होता तो वे पाठक को उन बियावान मानसिक सुरुंगों मे कभी न भटकाते...... उन के अनुभव दूसरे थे, अतः सरोकार भी दूसरे. बचपन मे उन्हे खूब पढ़ा है.... ज़रूर कुछ असर छूट गया होगा.
ReplyDeleteअजेय भाई,
ReplyDeleteआपने लाहुल स्पीति में मकर सक्रांति पर बेहतर और करीब की जानकारी दी है। हम अपने रीति रिवाज़ों से दूर होते जा रहे हैं, ऐसे में इन जानकारियों को उजागर करना हमें अपनी संस्कृति से करीब रहने में काफी योगदान देता है। मैं लाहुल औ किन्नौर में मकर सक्रांति और लोहड़ी मनाने के रिवाज़ों से परिचित नहीं हूँ, अतः आपके इस लेख से बहुत ही रोचक जानकारी मिली! संस्कृति से आपका यह जुड़ाव ही आपको हिमाचल में उभर रहे उन समकालीन कवियों में भी ला खड़ा करता है जिन्होंने बेहतर कविताएँ लिखने के लिए बाहर नहीं बल्कि अपने भीतर अधिक झाँका और बाहर देखा भी तो अपने भीतर के तापमान को बचाए रखा। लेख के लिए बधाई! लम्बे कमैंट के लिए क्षमा!
थेंक्स भाई, आप ने बरीक़ी से पढ़ा , और समय निकाल कर प्रतिक्रिया की. लम्बा कमेंट तो पोस्ट की सफलता होती है.
ReplyDeleteShui Teee!
ReplyDeleteAApkey prose mein bhi aapki kavita ki hi tarah bahut saari bhavnayen umad aati hain. Lahoul ke jeevan, ( sardiyon ke kathin jivan) ki tasweer samne aati hai..... jo shabdon mein nahi kaha gaya wo bhi. Seedhe seedhe shabdon ke bina kah paana sahitya mein uplabdhi hai. Hai na! Aur ye nanhi chidiya to bahut hi pyari hai, bahut hi vafadaar!
Ishita R. Girish
थेंक्स . प्रकृति जो कह देती है , जैसी कि ये चिड़िया ..... हम उस का शतांश भी कह पाते !!
Deleteतो भी कोशिश करते रहना चाहिए .
अच्छा लगा पढ़ कर । दृश्य आँखों के सामने साकार हो गया । शीत अभी तक पीछा कर रहा है ...
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