“ भूमण्डलीकरण के बाद कुछ ऐसी परिस्थिति बनी है कि इस समय शासक वर्ग
का सब से क्रूर हमला आदिवासियों पर है . इस लिए अब मैं अपनी कविता को सब से ज़्यादा
इन्ही पर केन्द्रित करना चाहता हूँ . यह बहुत कठिन है और मेरे पास जानकारियाँ बहुत
कम हैं . हालाँकि मैंने अपने लेखन , नौकरी और राजनीतिक कर्म की शुरुआत धनबाद से की
थी और तभी झारखण्ड आन्दोलन और आदिवासियो के संघर्षों से जुड़ गया था , लेकिन बीच मे इन से रिश्ता टूटा
हुआ सा था . आन्दोलन का पतन भी द्देखा और निराश भी हुआ , जैसा कि मध्यवर्गीय आदमी
होता है. मगर अब एक बार फिर मुक्तिबोध की यह उक्ति मेरे लिए प्रासंगिक हो रही है.
----- ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे / तोड़्ने ही होंगे .....!”
---- वरिष्ठ कवि एवम समालोचक मदन कश्यप
कुछ दिन पूर्व शिमला मे मेरे
अनुरोध पर मदन जी ने अपनी कविता “ अपना ही देश’ का बेहद आत्मीय पाठ किया . हालाँकि पाठ से पूर्व उन्होने यह
घोषणा करना बेहद ज़रूरी समझा कि यदि इस कविता मे श्रोताओं को कुछ त्रुटियाँ *नज़र* आईं तो इस का श्रेय अजेय को ही जएगा, क्यों कि
उन्ही के आग्रह पर यह पाठ कर रहा हूँ! मेरे लिए यह घोषणा एक सुखद आश्चर्य था !
आदिवासियों पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है . तमाम स्वदेशी विदेशी आभिजात्य शब्दकारों ने आदिवासियों को अपनी अपनी *नज़र* से देखने दिखाने की कोशिश की है . और निश्चय ही इन तमाम तरह के लेखन के चलते आदिम समाजों और मानसिकताओं की हैरतंगेज़ परते हमारे सामने खुलीं हैं .
इधर निर्मला पुतुल , अनुज लुगून, और प्रभात जैसे आदिवासी हिन्दी कवियों ने आदिवासी जीवन के कुछ अनकहे मर्मों पहलुओं को भी छुआ है, अपनी ठेठ *देसी* नज़र से .
सालों से इस विषय को बहुत शिद्दत से पढ़ने के बाद मुझे महसूस हुआ है कि आदिवासी विमर्श को सम्पूर्णता मे समझने के लिए हमें एकाँगी दृष्टि का सहारा नही लेना चाहिए . हमे इन की समस्याओं को सब की *नज़र* से परख़ना चाहिए ... यानि कि अन्दर वालों की नज़र से भी और बाहर वालों की नज़र से भी, और लगातार परखते रहना चाहिए . तुम्हारी आंतरिक सुरक्षा की तीसरी कड़ी के रूप मे मदन जी यह कविता मुझे बहुत ज़रूरी लगी .
आदिवासियों पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है . तमाम स्वदेशी विदेशी आभिजात्य शब्दकारों ने आदिवासियों को अपनी अपनी *नज़र* से देखने दिखाने की कोशिश की है . और निश्चय ही इन तमाम तरह के लेखन के चलते आदिम समाजों और मानसिकताओं की हैरतंगेज़ परते हमारे सामने खुलीं हैं .
इधर निर्मला पुतुल , अनुज लुगून, और प्रभात जैसे आदिवासी हिन्दी कवियों ने आदिवासी जीवन के कुछ अनकहे मर्मों पहलुओं को भी छुआ है, अपनी ठेठ *देसी* नज़र से .
सालों से इस विषय को बहुत शिद्दत से पढ़ने के बाद मुझे महसूस हुआ है कि आदिवासी विमर्श को सम्पूर्णता मे समझने के लिए हमें एकाँगी दृष्टि का सहारा नही लेना चाहिए . हमे इन की समस्याओं को सब की *नज़र* से परख़ना चाहिए ... यानि कि अन्दर वालों की नज़र से भी और बाहर वालों की नज़र से भी, और लगातार परखते रहना चाहिए . तुम्हारी आंतरिक सुरक्षा की तीसरी कड़ी के रूप मे मदन जी यह कविता मुझे बहुत ज़रूरी लगी .
अपना ही देश
हमारे पास नहीं है
कोई पटकथा
हम खाली हाथ ही नहीं
लगभग खाली दिमाग आएं
हैं मंच पर
विचार इस तरह
तिरोहित है
कि उस के होने का
अहसास तक नहीं है
बस सपने हैं जो हैं
मगर उनकी भी कोई भाषा नहीं है
कुछ रंग हैं पर इतने
गड्डमड्ड
कि पहचानना असंभव
वैसे हमारी आत्मा के
तहखाने में हैं कुछ शब्द
पर खो चुकीं हैं उस
की ध्वनियाँ
निराशा का एक शांत
समुन्दर हमारी आँखों में है
और जो कभी आशा की
लहरें उठतीं हैं उस में
तो आप हत्या हत्या
कह कर चिल्लाने लगते हैं
माफ कीजिएगा
हम किसी और से नहीं केवल अपनी हताशा से लड़ रहे हैं
आप इसी को देश द्रोह बता रहे हैं
हम हिंस्र पशु नहीं
हैं
पर बिजूके भी नहीं
हैं हम चुपचाप संग्रहालय में नहीं जाना चाहते
हालांकि हमारे लेखे
आपकी यह दुनिया
किसी अजायब घर से कम
नहीं है
हम कमज़ोर भाषा मगर
मज़बूत सपनों वाले आदमी हैं
खुद को कस्तूरी मृग
मानने से इनकार करते हैं
आप जो भाषा को खाते
रहे
हमारे सपनों को खाना
चाहते हैं
आप जो विचारों को
मारते रहे
हमारी संस्कृति को मारना
चाहते हैं आप जो काल को चबाते रहे
हमारे भविष्य को
गटकना चाहते हैं
आप जो सभ्यता को
रौन्दते रहे
हमारी अस्मिता को मिटाना
चाहते हैं पर हमारे संघर्षों का इतिहास हज़ार साल पुराना है
आप बहुत बोल चुके
हैं हमारे बारे में
इतना ज़्यादा कि
अब आप को हमारा
बोलना भी गवारा नहीं है
फिर भी हम बताना
चाहते हैं
कि आप जो कर रहे हैं
वह कोई युद्ध नहीं केवल हत्या है
हम हत्यारों को
योद्धा नहीं कह सकते
ये बक्साईट के पहाड़ हमारे पुरखे हैं
आप इन्हें सेंधा नमक
सा चाटना बन्द कीजिए यह लाल लोहा माटी हमारी माता है
आप बेसन के लड्डू सा इन्हें भकोसना बन्द कीजिए
ये नदियाँ हमारी बहनें हैं
इन्हे इंग्लिश बीयर की तरह गटकना बन्द कीजिए
उधर देखिए
बलुआई ढलानों पर काँटों के जंजाल के बीच
बौंखती वह अनाथ लड़की
जनुम हटा हटा कर कब्र देखना चाह रही है
कहीं उसकी माँ तो दफ्न नहीं है वहाँ
वह बार बार कोशिश कर रही है हड़सारी हटाने की
जिस के नीचे पिता की
लाश ही नहीं
उस की अपनी ज़िन्दगी
दबी हुई है
आप के सिपाहियों के
डर से
शेरनी की माँद तक
में छिप जातीं हैं लड़कियाँ हमें शांत छोड़ दीजिए अपने जंगल में
हम हरियाली चाह्ते हैं आग की लपटें नहीं
हम मांदल की आवाज़ें सुनना चाहते हैं
गोलियों की तड़तड़ाहट
नहीं
न पर्वतों पर खाऊड़ी
है
न ही नदी किनारे
बड़ोवा अगली बरसात में
फूस का छत्रा बन जाएंगी हमारी हमारी झोंपड़ियाँ
हमें अपना अन्न उगाने दीजिए
अपना छ्प्पड़ छाने
दीजिए
भला आप क्यों बनाना
चाहते हैं यहाँ
मिलिटरी छावनी
यहा तो चारों तरफ
अपना ही देश है
देखिये आसमान से
बरसने लगी है
वर्षा की कोदो के
भात जैसी बूँदें
अब तो बन्द कीजिए
गोलियाँ बरसाना !
*****************************
`जनुम = काँटों का
जाल
हड़सारी = कब्र पर
रखा पत्थर
खाऊड़ी, बड़ोवा = जंगली घास
madan kashyap ji kee kavitaon kee main bahut badi prshnsika hoon.. unhe padhti aai hoon.. unke sarokar va unka lekhan namneey hai.. hardik abhaar ajey aapne is kavita ko share kiya..
ReplyDeleteमदन कश्यप, जाहिर तौर पर उन कवियों में से हैं मैं खुद को जिनकी परम्परा में शामिल करना चाहता हूँ. नब्बे के दशक के आरम्भ में जब मैंने अभी कविता पढ़ना शुरू ही किया था तो इंडिया टुडे के वार्षिकांक में मदन कश्यप की कविता "तुम्हारे साथ-साथ" पढ़ी थी...और उसके बाद तो उन्हें ढूंढ-ढूंढ के पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ...फिर उनसे मिलना उन कुछ विरल अनुभवों में रहा जब कवि से मिलकर कविता पर विश्वास और बढ़ गया...हर बार.
ReplyDeleteशिमला के इस आयोजन के बारे में भी उनसे लंबी बात हुई थी. उन्होंने बताया कि पहले यहाँ हिमाचल के मंत्री आया करते थे...उन्होंने शर्त रखी कि वह तभी आयेंगे जब मंत्री नहीं आयेंगे. आयोजकों ने मंत्री को नहीं बुलाया...लेकिन उसी दिन शमशेर सम्मान था, वह पशोपेस (या बकौल थानवी साहब पेसोपश:) में थे...फिर उन्होंने फैसला वहाँ जाने का किया.
खैर कविता के बाद कविता पर बात करने की जगह ये बातें करना शायद विषयान्तर ही है..लेकिन कभी कह नहीं पाया...और आज रोक नहीं पाया. कविता पर थोड़ी देर बाद...
कविता वही कहती है जो आदिवासियों की आवाज है।
ReplyDelete