दिनांक 28.05.2012 को कुल्लू में भाषा एवम संस्कृति विभाग हिमाचल
प्रदेश के तत्वाधान मे साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा दो रोचक पुस्तकों का लोकार्पण
आयोजित किया गया.
पहली किताब का नाम था “पश्चिमी हिमालय में नाग परम्परा” . देवप्रस्थ साहित्य एवम कला संगम कुल्लू द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक वस्तुतः विभिन्न लोगों द्वारा लिखे
गए पचास के लगभग निबन्धों का एक संकलन है. जो मुख्यतः हिमाचल प्रदेश व इस के
निकटवर्ती इलाक़ों मे जनश्रुतियों और विभिन्न भाषाओं मे उपलब्ध इस विषय के अधिकारिक
विद्वानो के पूर्ववर्ती लेखन पर आधारित है
. सर्वश्री तोबदन , विद्यासागर नेगी , विद्याचन्द ठाकुर तेज राम नेगी तथा केशवचन्द्र
जैसे प्रबुद्ध लेखक इस मे शामिल हैं. हालाँकि
एकाध लेखों मे अपने अनुसंधानात्मक अप्रोच
के कारण मौलिकता की झलक भी मिलती है. ऐसे
लेखों मे ठोस ताज़ा स्थापनाएं देने का उपक्रम बेशक बहुत दबा
दबा और अंडरटोन दिखता हो,लेकिन कुछ ज़रूरी प्रश्न अवश्य खड़े होते हैं . मसलन लोक परम्परा
मे नागों व नारायणों का संघर्ष. (डॉ. मौलू
राम ठाकुर) 18 नागों और 18 ही नारायणो का तिलिस्म (टि. दानवेन्द्र सिंह) ,
इत्यादि. इन सद्य अनुसंधानित पौराणिक/ लोकिक अवधारणाओं पर नए सिरे से बात करने की सम्भावनाएं ज़रूर पैदा
होती हैं . बहरहाल 420 पृष्टों की यह पुस्तक साहित्य अकादमी दिल्ली से फंडेड 1.50 लाख
के प्रोजेक्ट के अंतर्गत छापा गया और इस की कीमत 350/- अंकित है . इसे हीरा लाल ठाकुर तथा विद्या शर्मा ने मिलकर सम्पादित किया है . पुस्तक चर्चा के
सत्र में कुछ दिलचस्प बातें दर्ज कर पाया .
# निरंजन देव शर्मा का पत्र
उन की अनुपस्थिति मे स्थानीय भाषा अधिकारी ने पढ़ा. अपने पत्र मे युवा साहित्य आलोचक
कुछ लोक धारणाओं से खासे अभिभूत नज़र आए. मसलन, नागो का अर्धमानवो की श्रेणी मे रखा जाना और कहीं कहीं उन का मानव रूप मे उपस्थित हो
जाना उन्हे डार्विन के विकासवाद के सूत्रों की पुष्टि करता दिखाई दिया .
# कवि कथाकार सुदर्शन वशिष्ठ अधिकारिक
सूत्रों के हवाले से सूचित किया कि नाग
ऊँचे परवतों के वासी थे और जल स्रोतों के
स्वामी भी . यह तथ्य बाद की चर्चाओं मे
असंख्य लोक मान्यताओं , कथाओं , गीतों और जनश्रुतियों के संदर्भों से भी उभर कर आया . लेकिन एक वैज्ञानिक तथ्य के
चलते यह मान्यता बहुत चौंकाने वाला है कि साँप ऊँचे पर्वतों पर सर्वाईव नही करते.
मसलन लाहुल मे पश्चिम की ओर जाहलमा से ऊपर,
दक्षिण की ओर राल्हा से ऊपर, और स्पिति मे ताबो /लरी से ऊपर साँप प्राकृतिक रूप से
ज़िन्दा नही रह सकते .
# प्रख्यात अनुवादक एवम रूसी भाषा के विद्वान डॉ. वरयाम सिंह ने
विद्वानो से अपील की , कि मिथक और इतिहास दो अलहदा विषय हैं इन्हे परस्पर मिला कर
खुद कंफ्यूज़ न हों और पाठकों को भी कंफ्यूज़ न करें.
# साहित्य अकादमी के उप सचिव बृजेद्र त्रिपाठी ने स्पष्ट किया कि हमारे
पास इतिहास को समझने की दो दृष्टियाँ हैं . पहला पाश्चात्य है . जिस मे इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर वैज्ञानिक
ढंग से गढ़ा जाता है . दूसरा भारतीय है, जिस मे पुराणों और महाकाव्यों को ही इतिहास समझने की परम्परा है . भारत के ज़्यादातर
विद्वान इसी दृश्टि से परिचालित हैं . लेकिन मैं यह दर्ज करना क़तई भूल गया कि त्रिपाठी जी ने कौन सी दृष्टि को अधिक
न्यायोचित और प्रासंगिक बताया !
# विश्व विख्यात पर्वतारोही एवम हिमालय विद कर्नल प्रेम चन्द ने एक अंतिम
प्रश्न द्वारा सभा को स्तब्ध कर दिया कि यह “पश्चिमी हिमालय” जिस की संस्कृति पर विवेच्य पुस्तक छापी
गई है, इस का सही सही भौगोलिक विस्तार
कहाँ से कहाँ तक माना गया है ? क्या यह महज हिमाचल प्रदेश तक ही सीमित है ? सम्बद्ध विद्वानो की चुप्पी से प्रतीत होता था
कि उन्हो ने पुस्तक कंसीव करते समय शायद
इस अति महत्वपूर्ण बिन्दु पर ध्यान ही नही दिया था और आनन फानन हिमाचल के कुछ सुपरिचित लेखकों से
निबन्ध लिखवा कर इसे पुस्तकाकार छाप दिया.
# तत्पश्चात जङ-जुङ भाषा और बोन संस्कृति के प्रमुख पैरोकार छेरिंग दोर्जे
ने भी तस्दीक किया कि पश्चिमी हिमालय का क्षेत्र सतलुज शिपकीला से
ले कर काश्मीर के उस पार सुदूर बल्तिस्तान
मे कराकोरम के अंतिम छोर पर रोन्दू होर्स शू बेंड तक फैला
है और इस पूरे भूभाग से ही एक अति समृद्ध
नाग संस्कृति हिमालय के आर पार तक फैल गई थी . जिस के कुछ अंश हिमाचल मे भी दिख जाते हैं.
अस्तु, अब इसे एक गफलत ही मान
लिया जाय. इन सेमिनारों मे हम सतत इम्प्रोवाईज़ करते रहें
!
...............................................................................................................................जारी , अगले अंक मे समाप्य
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डार्विन के विकासवाद से इतना भी अभिभूत नहीं हूँ । यह मेरी नहीं मौलूराम जी की धारणाओं में से एक है । मेरी रुचि के कारण कुछ और हैं - मसलन मेरे लेख का आरंभ -
ReplyDelete#मानव सभ्यता के विकास में ताकतवर समुदायों दुयारा मूल निवासियों को विस्थापित करके अपना बर्चस्व स्थापित करने का इतिहास सर्वविदित है । बर्चस्व के इस संघर्ष में अकसर मूल निवासी या तो निर्वासित या विस्थापित हुए हैं या फिर आक्रांताओं का आधिपत्य स्वीकार करने को विवश । इतिहास अपने आप में बहुत जटिल विधा है ,यानि वैज्ञानिक दृष्टिकोण का न होना इतिहास को वर्तमान संदर्भों में भ्रमित कर सकता है, परिणाम स्वरूप मानव समाज की सोच किसी भी दिशा में प्रवाहित हो सकती है । इतिहास को केवल पौराणिक ग्रन्थों कि बहुलता पर नहीं बल्कि उनकी प्रामाणिकता की कसौटी पर भी खरा उतरना होता है । इसलिए किसी भी ग्रंथकार दुयारा की जाने वाली व्याख्या इतिहास का आकलन करने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है । जब हम किसी ऐसी पुस्तक की आलोचनात्मक व्याख्या करते हैं तो यह आवश्यक होता है कि इन सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखें ।
# अपने आलेख से उस संदर्भ को कॉपी-पेस्ट कर रहा हूँ , जिससे आप मुझे अभिभूत हुआ जान पड़ रहे हैं -
# भूमिका में मौलूराम जी लिखते हैं –“ हो सकता है कि नाग मूल में अर्ध मानव या अर्ध सर्प रहे हों , और इन में से धीरे –धीरे मनुष्य के गुण और स्वरूप अधिक उभर आए हों , वे मानव जाति के रूप में फैल गए हों और शेष सर्प जाति में ही रहे होंगे । यह परिवर्तन डार्विन के विकास सिद्धान्त के अनुकूल है । “....आगे वे कहते हैं कि मानव समाज के जिन लोगों ने नागों कि पूजा की हो , या जिन लोगों ने नागों को आराध्य देव माना हो वे नाग कहलाये हों । “ इन्हीं तथ्यों के साथ लेखक ने पौराणिक संदर्भों विस्तार से वर्णन किया ही है ।
अब यह पाठक के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस तथ्य से प्रभवित होते हैं तथा आगे के अध्ययन या शोध के लिए आधार बनाते हैं । यहाँ विद्वान लेखक दुयारा पाठक पर कुछ थोपा नहीं जा रहा न ही कुछ प्रमाणित करने का आग्रह है ।
;)
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