Thursday, July 23, 2009

विजय गौड़ के " रक्सेक् " से

विजय गौड़ हिमालय के आर- पार घूमते हैं, हिमालय को बड़ी शिद्दत से जानते हैं ....गत वर्ष यहाँ केलंग में इस यायावर कवि से मुलाक़ात हुई. मैं शर्मिंदा था कि यहां के दर्रों, पगडण्डियों, नदी -नालों, वनस्पतियों, जीव जंतुओं और लोगों के बारे मुझे ही जानकारियां दे रहे थे. इन विकट भूखण्डों को देख कर लिखने और जान कर लिखने में क्या फर्क़ है, इन की कविताएं पढ़ कर समझ पाया .



http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=अजेय



हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह से उन की एक कविता



भेड़ चरवाहे

एक
लकड़ी चीरान हो या भेड़ चुगान
कहीं भी जा सकता है
डोडा का अनवर
पेट की आग रोहणू के राजू को भी वैसे ही सताती है
जैसे बगौरी के थाल्ग्या दौरजे के
वे दरास में हों
रोहतांग के पार या,
जलंधरी गाड़ के साथ-साथ
बकरियों और भेड़ों के झुण्ड के बीच
उनके सिर एक से दिखायी देते हैं

विभिन्न अक्षांशों पर टिकी धरती
उनके चेहरे पर अपना भूगोल गढ़ दे
पर पुट्ठों पर के टल्ले तो एक ही बात कहेगें

दो
ऊँचे पहाड़ों पर देवता नहीं चरवाहे रहते हैं
भेडों में डूबी उनकी आत्मायें
खतरनाक ढलानों पर घास चुगती हैं

पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर रक्त बनकर दौड़ता है
उड्यारों में दुबकी काया
बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी भोंथरा कर देती है
ढंगारों से गिरते पत्थर या, तेज़ उफनते दरिया भी
नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को



ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर


उठी रहती हैं उनकी निगाहें
वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक ले जा सकते हैं भेड़ों को
पर सबसे वाजिब जगह बुग्याल ही हैं
ये भी जानते हैं



ऊँचाईयों का जुनून जब उनके सिर पर सवार हो तो भी


भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़


निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक




भेड़ों के बदन पर चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का खेल खेलते हुए भी रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर कब्जा करती व्यवस्था जारी है,
ये जानते हुए भी कि रुतबेदार जगहों पर बैठे



रुतबेदार लोग
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक



जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती घास है
और है फूलों का जंगल




बदलते हुए समय में नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मदद की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी कम पड़ जायेगें




भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें



उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सूनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने
अपने खुरों से की

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http://www.likhoyahanvahan.blogspot.com/

1 comment:

  1. ये रात भर चलने वाले....

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