खबला – मयाड़ घाटी का प्रवेश द्वार
16 अप्रेल 1995, प्रातः 8:30 बजे. हम मयाड़ घाटी के लिए प्रस्थान कर गए हैं. आज का डेस्टिनेशन है—चाँगुट गाँव . हम पिछले कल की गलती नहीं दुहराना चाहते थे. आज हम भारी नाश्ता कर के रवाना हुए हैं. मयाड़ घाटी में जाने का मतलब है विश्व के दुरूहतम पर्वत मालाओं मे से एक , ज़ंस्कर रेंज को चीरते हुए उत्तर की ओर चलते चले जाना. भौगोलिक कारणो के चलते यह क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़ गया है, और आदिम संस्कृति के कुछ अवशेष यहाँ फॉसिल की तरह बचे रह गए हैं. शुरू में घाटी ‘U’ आकार की है. दोनों तरफ सापड़ ढाँक और बीच में शोर मचाती हुई मयाड़ नदी. नदी के मुहाने पर घना वेजिटेशन है. ज़्यादातर पाईन प्रजाति के पेड़ हैं. सुबह की बर्फानी हवा में बिरोज़े की तीखी गन्ध घुल रही है. सहगल जी ने मुझे फोबरङ शिखर दिखाया है. सफेद चोटी पर पसरी सुनहरी धूप देखते हुए मैं मंत्रमुग्ध सा चल रहा हूँ . चौहान जी नज़रें ज़मीन पर गड़ाए हुए चल रहे हैं. सहगल जी आदतन कुछ गुनगुनाते हुए कदम बढ़ा रहे हैं. खड़ी चट्टान को काट कर सड़क बनाई गई है. किसी ज़माने में जब सड़क नही बनी थी तो रास्ता इस ढाँक के ऊपर से हो कर जाता था. यह रास्ता खबला कहलाता है.नदी का अधिकतर हिस्सा हिमस्खलन के कारण बर्फ से ढका है. कहीं कहीं विशाल क्रेवासेज़ से उफनती नदी के दर्शन होते हैं तो मैं अवाक उसे देखता रह जाता हूँ. साथ मे कुछ स्थानीय लोग भी हैं – एक अधेड़ मर्द , दो स्त्रियाँ और एक संभवतः स्कूल में पढ़ने वाली लड़की. मैं उन लोगों से घाटी के बारे पूछता जाता हूँ और अपनी समझ के अनुसार वे उत्तर देते जा रहे हैं. ये लोग बहुत मिलनसार एवं निश्छल हैं. बाहरी सभ्यता के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा और नया सीखने की अकूत लालसा लिए हुए. अपनी अभिव्यक्ति मे ये लोग बेबाक हैं . आम ग्रामीण लोगों की तरह ये संकोची , शरमीले और रूढ़िवादी न हो कर बिन्दास, ज़िन्दादिल और उदार हैं. अपने पिछड़ेपन को ले कर इन मे कोई हीनभावना भी नहीं दिख रही रही है.
अखरोट, कुकुम और ठ्रुङ :
लगभग पौन घण्टा चलने के बाद घाटी ““V” आकार में खुलने लगी है. अब सर पर आकाश भी थोड़ा बड़ा लग रहा है. चौहान जी की आँखें भी उसी अनुपात में चौड़ी होती जा रही हैं.एक छोटी सी समतल जगह पर हमने विश्राम किया है. सड़क के नीचे अखरोट का एक पेड़् और कुछ अन्य प्रजाति के झाड़ उगे हुए हैं. पूछने पर उन्हो ने बताया कि यह ठ्रुङ हैं. ठ्रुङ एक महत्वपूर्ण भैषजीय वनस्पति है. इस की लकड़ी बहुत मज़बूत होती है. हल का पत्तर (आधार भाग) इसी लकड़ी का बनता है. मुझे याद आता है, मेरे नाना जी इस की छाल के छोटे छोटे बण्डल मँगाते थे. इन्हे उबाल कर वे जोड़ों के दर्द के लिए काढ़ू तय्यार करते थे. हमारे उस सहयात्री मयाड़ वासी को भी जड़ी बूटियों की खूब जानकारी है. उस ने आस पास जो भी वनस्पति नज़र आती है उन के नाम और भैषजीय गुण बताना शुरू कर दिया है. स्मृतियो और सूचनाओं की इस अलग ही क़िस्म के खज़ाने पर फिदा हो रहा हूँ मैं . ये अशिक्षित लोग हैं . और ये बेशक़ीमती जानकारियाँ इन की स्मृतियों मे पीढ़ी दर पीढ़ी दर्ज हुई हैं. क्या आधुनिक शिक्षा स्मृतियों की इस आदिम धारा को बाधित नहीं कर देगी ? थोड़ा मायूस और आशंकित मन से उस छोटी लड़की की ओर देखता हूँ जिस की आँखों मे शिक्षित होने का अभिमान है और सभ्य संसार के सपने तैर रहे हैं. उस ने मुझे सड़क के ऊपर खाली जगह दिखाई है जहाँ पर बरफ नही है और सुन्दर पीले फूल खिल रहे हैं. उस ने बताया कि ये कुकुम के फूल हैं. लाहुल के लोक गीतों मे इस फूल का ज़िक़्र बाज़दफा आता है. इसी फूल के नाम पर तो उदय पुर के निकट एक स्थान का नाम कुकुम सेरि पड़ा है, जहाँ जल्द ही सरकारी कॉलेज खुलने वाला है. लाहुल का पहला कॉलेज. पास जा कर उन फूलों की महक सूँघने का प्रयास करता हूँ. मेरा अनुमान था कि इस का फ्लेवर केसर सा होगा ; जो कि गलत निकला.
पहला गाँव
शकोली मयाड़ घाटी का पहला गाँव है. कुल सात घरों का यह गाँव दयार के जंगल के बीच बसा है. सातों घर ठाकुरों के हैं. ये स्वाङ्ला परिवार हैं. मुझे बताया गया कि मयाड़ में चाण जाति के लोग नहीं हैं. हाँ , एक जगह लोहारों के चार घर हैं. यहाँ सभी बोद नही हैं. करपट गाँव तक स्वाङ्ला लोग अधिक संख्या में बसे हुए हैं. इन की रिश्तेदारी भी पटन और मयाड़ घाटी के स्वङ्ला समुदाय मे है. आपस में ये पटनी भाषा मे बात करते हैं. लेकिन मयाड़ के बोद समुदाय के लोगों के साथ ये त्रुटिहीन मयाड़ी भाषा बोल लेते हैं जो कि भोट भाषा के निकट है.ये लोग अपनी भाषा मे बतियाए हैं , हमे चाय नाश्ते का निमंत्रण भी मिला है. मेरी बड़ी इच्छा है कि किसी घर में जा कर एक कप कड़क चाय पिऊँ, इन का रहन सहन देखूँ. लेकिन सहगल जी मना कर देते हैं . उन का विचार है कि यदि भीतर गए तो औपचारिकताओं मे समय बरबाद हो जाएगा और हमें देरी हो जाएगी. हम ने यहाँ नल से पानी पी कर अरक (दारू) की बोतल ली है. एक खाली बोतल मांग कर उस मे पानी मिलाया है. इन्होंने पैसे नहीं लिए. हाँ, वापसी पर खाली बोतल ज़रूर लौटा जाने को कहा है . ढक्कन वाली बोतल की यहाँ बड़ी वेल्यू है. पहले मिट्टी के बतिक (छोटी सुराही) में दारू रखा जाता था. अब बोतलों का ही प्रयोग होता है. यहाँ से सहगल जी ने मेंतोसा के दर्शन कराए हैं . जिस रोमाँच के साथ पर्यटक इस का नाम लेते थे, उतना चित्ताकर्षक नही है यह. बाद मे उस स्थानीय व्यक्ति ने पुष्ट किया कि मेंतोसा का सर्वोच्च शिखर तो ओगोलुङ नाले के पश्चिम में बहुत भीतर जा कर ही दिखता है. यह उस की कोई शाखा है.
लोक गीतों मे पाडर –पाँगी
हम मयाड़ नदी के दक्षिण तट पर चल रहे हैं. इस तरफ मुख्य रूप से जुनिपर के पेड़ है . उस पार वाम तट पर घारी, चिमरट, षेळिंग , बलगोट आदि गाँवों के मनोहारी दयार के जंगल देखते हुए अभी अभी हम तमलू से आगे हुए हैं. मयाड़ घाटी की जो भौगोलिक छवि मेरी कल्पना मे बनी हुई थी, धीरे धीरे ध्वस्त होती जा रही है. यह रोमाँचक तो है, लेकिन उस तरह से क़तई नहीं जो मैंने सोच रखा था. असल में यह लाहुल की अर्द्ध मरुभूमि वाले टेरैन से अलग ही एक दुनिया है. बीहड़ किंतु हरा भरा. यहाँ के नदी नाले बहुत सक्रिय हैं. भीषण गर्जना करते नालों के मुहानों पर भीमकाय बोल्डरों के ढेर बने हुए हैं. उन ढेरों में गौर से देखें तो सैंकड़ों हरे हरे कोमल सिब्लिंग्स पत्थरों की कठोरता को चुनौती देते हुए वहाँ उग रहें हैं. मैंने नोटिस किया कि ज़्यादातर गाँव भी इन मुहानों पर ही बसे हैं. बाढ़ के मलबों के ठीक ऊपर. और साफ दिखता है कि इन नालों को सक्रिय हुए बहुत अरसा नहीं हुआ है अभी. मतलब यह कि यहाँ का आदमी भी प्रकृति के विनाशकारी तत्वों से बहुत ज़्यादा नहीं डरता. सृजन और विनाश का प्राकृतिक संघर्ष यहाँ अपने चरम रूप मे दिखता है . सच कहूँ तो ऐसे रोमाँच की कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने.
वह स्थानीय आदमी बहुत ज़्यादा बातूनी नहीं है. वह तब तक कोई सूचना शेयर नही करता जब तक कि उसे ज़रूरी न लगे . या पूछ ही न लिया जाए. लेकिन वे स्त्रियाँ कम्युनिकेट करने के लिए बहुत उत्सुक जान पड़तीं हैं. मुझे उन की खिचड़ी भाषा बड़ी आत्मीय लग रही है. और उस में बहुत ताक़त है . छोटी लड़की उन की बातों पर बार बार हँस पड़ती है. कभी कभी एकदम असहज हो जाती है. उसे लगता है कि वे लोग ज़्याद ही भदेस हो रहीं हैं. लेकिन उन स्त्रियो को कोई परवाह नही है कि स्कूल जाने वाली लड़की क्या सोच रही है. सहगल जी बीच बीच मे किसी लोकगीत का मुखड़ा गुनगुना देते तो वे स्त्रियाँ झट से उसे पूरा कर देतीं. मर्द भी सहज भाव से साथ साथ गाने लगता...
“ देशो ता भलिये मायाड़ी देशा....”
“खबुला , हेरि शुणि जाणा खबुला....”
“सोना पोति नेड़े क दूर ए , लाल रंगा है”
“पाडेरी मुलुका बुरा ए , ज़िन्दा पड़ेर ज़िन्दा ना ए”
टेक खत्म होने पर सभी ठहाका मार कर हँस पड़ते हैं.. लडकी इस गायन मे भाग लेने से झिझक रही है. लेकिन अंतिम हँसी मे वह भी शामिल हो जा रही है.........
ये लोग अपनी संस्कृति पर सचमुच गर्व करते हैं. कम से कम गायन में उन का आत्मविश्वास देख कर मुझे यही लगा है. इन गीतों पर पाडरी, पंगवाली और गद्दी भाषा और शैली का असर है. पहाड़ी-हिन्दी के शब्द भी सहज ही शामिल हो गए हैं. बोलचाल की भाषा भोटी(मयाड़ी) और आदिम पटनी होते हुए भी लोकगीतों में आर्यभाषाओं का प्रयोग क्यों हुआ है? फिर ध्यान आता है कि हमारे पटन में भी प्राचीन गाथाओं मे इसी खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है. सहगल जी से पूछता हूँ, कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है.
ब्यूँस की टहनियाँ
तोमलिङ नाले से आगे जा कर एक जगह जुनिपर और चट्टानो से भरा एक मनोरम स्थल है. धूप काफी तेज़ हो रही है, जब कि नाले की बर्फानी हवा भी बेहद तीखी है. हम ने यहीं विश्राम करने का फैसला लिया है. उन औरतों ने अपने किल्टों से बक्पिणि निकाला है और पुग भी. पुग जौ के भुने हुए दाने हैं . लाहुल की स्त्रियाँ अपनी कतर की जेबों में भरे रखतीं हैं. काम काज या सफर के बीच मुट्ठी भर निकाल कर सब को बाँटती हैं और खुद भी खा लेतीं हैं. यह अल्पाहार बाँटते हुए पहली बार मेरा ध्यान इन औरतों की हथेलियों पर गया है . बीच में बेतरह घिसी हुईं और लाल. किनारे से खुरदुरी, बिवाईयों वाली, काली बेढब, गाँठ दार टेढ़ी मेढ़ी उंगलियाँ. जिन मे पुराने घावों के अनेक निशान दिख रहे हैं.
फिर उस छोटी लड़की की नाज़ुक उंगलियों को देखता हूँ. भीतर कुछ पिघलने लगा है.
ऐसा स्वच्छ मन, मधुर कंठ, उन्मुक्त ठहाके......... लेकिन हाथों की यह दुर्दशा कुछ और ही कहानी कह रही है. आदिवासी स्त्रियाँ अपना दर्द गीतों और ठहाकों में उडेल देती हैं. मुझे ब्यूँस की टहनियाँ याद आईं है ........
जैसा चाहो लचकाओ दबाओ
झुकती ,लहराती रहेंगी
जब तक हम में लोच है सूख जाने पर लेकिन
कड़क कर टूट जाएंगी
हम् ब्यूँस की टहनियाँ हैं
अचानक इन खिलते हुए चेहरों के पीछे छिपी हुई गहरी व्यथा की झलक मिल गई है मुझे. बेचैन हो उठता हूँ. दराटी से झाड़ झंखाड़ साफ करती माँ सामने आ गई हैं. उस की हथेलियों में काँटे चुभे हुए हैं और मैं एक ज़ंग लगी सूई से उन्हे निकालने की कोशिश कर रहा हूँ. पर काँटे हैं कि खत्म ही नहीं होते. एक निकालता हूँ तो दूसरा दिख जाता.....
यह सरकारी काम निपटा कर के दो दिन घर में माँ के पास रहूँगा. उस के हाथों से तमाम काँटे निकाल फैकूँगा......!
उस आदमी ने अरक की बोतल से दो घूँट गटक लिए हैं फिर बोतल आगे पास कर के उदासीन भाव से पुग चाबने लगा है.... कुटुर..कुटुर....कुटुर... मुझे ज़ोर की भूख लगी है. कभी कभी कुछ ध्वनियाँ भी एपिटाईज़र का काम करतीं हैं . औरतों से थोड़ी और बक्पिणि माँग कर खाने लगा हूँ. .......चौहान जी को अरक तो पसन्द है, लेकिन पुग अच्छा सेलेड नहीं है. फिर भी आज भाई जी प्रसन्न हैं... और खूब पी रहे हैं. फटी पेंट की परवाह किए बिना.
............... चाँगुट कितनी दूर है?
16 अप्रेल 1995, प्रातः 8:30 बजे. हम मयाड़ घाटी के लिए प्रस्थान कर गए हैं. आज का डेस्टिनेशन है—चाँगुट गाँव . हम पिछले कल की गलती नहीं दुहराना चाहते थे. आज हम भारी नाश्ता कर के रवाना हुए हैं. मयाड़ घाटी में जाने का मतलब है विश्व के दुरूहतम पर्वत मालाओं मे से एक , ज़ंस्कर रेंज को चीरते हुए उत्तर की ओर चलते चले जाना. भौगोलिक कारणो के चलते यह क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़ गया है, और आदिम संस्कृति के कुछ अवशेष यहाँ फॉसिल की तरह बचे रह गए हैं. शुरू में घाटी ‘U’ आकार की है. दोनों तरफ सापड़ ढाँक और बीच में शोर मचाती हुई मयाड़ नदी. नदी के मुहाने पर घना वेजिटेशन है. ज़्यादातर पाईन प्रजाति के पेड़ हैं. सुबह की बर्फानी हवा में बिरोज़े की तीखी गन्ध घुल रही है. सहगल जी ने मुझे फोबरङ शिखर दिखाया है. सफेद चोटी पर पसरी सुनहरी धूप देखते हुए मैं मंत्रमुग्ध सा चल रहा हूँ . चौहान जी नज़रें ज़मीन पर गड़ाए हुए चल रहे हैं. सहगल जी आदतन कुछ गुनगुनाते हुए कदम बढ़ा रहे हैं. खड़ी चट्टान को काट कर सड़क बनाई गई है. किसी ज़माने में जब सड़क नही बनी थी तो रास्ता इस ढाँक के ऊपर से हो कर जाता था. यह रास्ता खबला कहलाता है.नदी का अधिकतर हिस्सा हिमस्खलन के कारण बर्फ से ढका है. कहीं कहीं विशाल क्रेवासेज़ से उफनती नदी के दर्शन होते हैं तो मैं अवाक उसे देखता रह जाता हूँ. साथ मे कुछ स्थानीय लोग भी हैं – एक अधेड़ मर्द , दो स्त्रियाँ और एक संभवतः स्कूल में पढ़ने वाली लड़की. मैं उन लोगों से घाटी के बारे पूछता जाता हूँ और अपनी समझ के अनुसार वे उत्तर देते जा रहे हैं. ये लोग बहुत मिलनसार एवं निश्छल हैं. बाहरी सभ्यता के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा और नया सीखने की अकूत लालसा लिए हुए. अपनी अभिव्यक्ति मे ये लोग बेबाक हैं . आम ग्रामीण लोगों की तरह ये संकोची , शरमीले और रूढ़िवादी न हो कर बिन्दास, ज़िन्दादिल और उदार हैं. अपने पिछड़ेपन को ले कर इन मे कोई हीनभावना भी नहीं दिख रही रही है.
अखरोट, कुकुम और ठ्रुङ :
लगभग पौन घण्टा चलने के बाद घाटी ““V” आकार में खुलने लगी है. अब सर पर आकाश भी थोड़ा बड़ा लग रहा है. चौहान जी की आँखें भी उसी अनुपात में चौड़ी होती जा रही हैं.एक छोटी सी समतल जगह पर हमने विश्राम किया है. सड़क के नीचे अखरोट का एक पेड़् और कुछ अन्य प्रजाति के झाड़ उगे हुए हैं. पूछने पर उन्हो ने बताया कि यह ठ्रुङ हैं. ठ्रुङ एक महत्वपूर्ण भैषजीय वनस्पति है. इस की लकड़ी बहुत मज़बूत होती है. हल का पत्तर (आधार भाग) इसी लकड़ी का बनता है. मुझे याद आता है, मेरे नाना जी इस की छाल के छोटे छोटे बण्डल मँगाते थे. इन्हे उबाल कर वे जोड़ों के दर्द के लिए काढ़ू तय्यार करते थे. हमारे उस सहयात्री मयाड़ वासी को भी जड़ी बूटियों की खूब जानकारी है. उस ने आस पास जो भी वनस्पति नज़र आती है उन के नाम और भैषजीय गुण बताना शुरू कर दिया है. स्मृतियो और सूचनाओं की इस अलग ही क़िस्म के खज़ाने पर फिदा हो रहा हूँ मैं . ये अशिक्षित लोग हैं . और ये बेशक़ीमती जानकारियाँ इन की स्मृतियों मे पीढ़ी दर पीढ़ी दर्ज हुई हैं. क्या आधुनिक शिक्षा स्मृतियों की इस आदिम धारा को बाधित नहीं कर देगी ? थोड़ा मायूस और आशंकित मन से उस छोटी लड़की की ओर देखता हूँ जिस की आँखों मे शिक्षित होने का अभिमान है और सभ्य संसार के सपने तैर रहे हैं. उस ने मुझे सड़क के ऊपर खाली जगह दिखाई है जहाँ पर बरफ नही है और सुन्दर पीले फूल खिल रहे हैं. उस ने बताया कि ये कुकुम के फूल हैं. लाहुल के लोक गीतों मे इस फूल का ज़िक़्र बाज़दफा आता है. इसी फूल के नाम पर तो उदय पुर के निकट एक स्थान का नाम कुकुम सेरि पड़ा है, जहाँ जल्द ही सरकारी कॉलेज खुलने वाला है. लाहुल का पहला कॉलेज. पास जा कर उन फूलों की महक सूँघने का प्रयास करता हूँ. मेरा अनुमान था कि इस का फ्लेवर केसर सा होगा ; जो कि गलत निकला.
पहला गाँव
शकोली मयाड़ घाटी का पहला गाँव है. कुल सात घरों का यह गाँव दयार के जंगल के बीच बसा है. सातों घर ठाकुरों के हैं. ये स्वाङ्ला परिवार हैं. मुझे बताया गया कि मयाड़ में चाण जाति के लोग नहीं हैं. हाँ , एक जगह लोहारों के चार घर हैं. यहाँ सभी बोद नही हैं. करपट गाँव तक स्वाङ्ला लोग अधिक संख्या में बसे हुए हैं. इन की रिश्तेदारी भी पटन और मयाड़ घाटी के स्वङ्ला समुदाय मे है. आपस में ये पटनी भाषा मे बात करते हैं. लेकिन मयाड़ के बोद समुदाय के लोगों के साथ ये त्रुटिहीन मयाड़ी भाषा बोल लेते हैं जो कि भोट भाषा के निकट है.ये लोग अपनी भाषा मे बतियाए हैं , हमे चाय नाश्ते का निमंत्रण भी मिला है. मेरी बड़ी इच्छा है कि किसी घर में जा कर एक कप कड़क चाय पिऊँ, इन का रहन सहन देखूँ. लेकिन सहगल जी मना कर देते हैं . उन का विचार है कि यदि भीतर गए तो औपचारिकताओं मे समय बरबाद हो जाएगा और हमें देरी हो जाएगी. हम ने यहाँ नल से पानी पी कर अरक (दारू) की बोतल ली है. एक खाली बोतल मांग कर उस मे पानी मिलाया है. इन्होंने पैसे नहीं लिए. हाँ, वापसी पर खाली बोतल ज़रूर लौटा जाने को कहा है . ढक्कन वाली बोतल की यहाँ बड़ी वेल्यू है. पहले मिट्टी के बतिक (छोटी सुराही) में दारू रखा जाता था. अब बोतलों का ही प्रयोग होता है. यहाँ से सहगल जी ने मेंतोसा के दर्शन कराए हैं . जिस रोमाँच के साथ पर्यटक इस का नाम लेते थे, उतना चित्ताकर्षक नही है यह. बाद मे उस स्थानीय व्यक्ति ने पुष्ट किया कि मेंतोसा का सर्वोच्च शिखर तो ओगोलुङ नाले के पश्चिम में बहुत भीतर जा कर ही दिखता है. यह उस की कोई शाखा है.
लोक गीतों मे पाडर –पाँगी
हम मयाड़ नदी के दक्षिण तट पर चल रहे हैं. इस तरफ मुख्य रूप से जुनिपर के पेड़ है . उस पार वाम तट पर घारी, चिमरट, षेळिंग , बलगोट आदि गाँवों के मनोहारी दयार के जंगल देखते हुए अभी अभी हम तमलू से आगे हुए हैं. मयाड़ घाटी की जो भौगोलिक छवि मेरी कल्पना मे बनी हुई थी, धीरे धीरे ध्वस्त होती जा रही है. यह रोमाँचक तो है, लेकिन उस तरह से क़तई नहीं जो मैंने सोच रखा था. असल में यह लाहुल की अर्द्ध मरुभूमि वाले टेरैन से अलग ही एक दुनिया है. बीहड़ किंतु हरा भरा. यहाँ के नदी नाले बहुत सक्रिय हैं. भीषण गर्जना करते नालों के मुहानों पर भीमकाय बोल्डरों के ढेर बने हुए हैं. उन ढेरों में गौर से देखें तो सैंकड़ों हरे हरे कोमल सिब्लिंग्स पत्थरों की कठोरता को चुनौती देते हुए वहाँ उग रहें हैं. मैंने नोटिस किया कि ज़्यादातर गाँव भी इन मुहानों पर ही बसे हैं. बाढ़ के मलबों के ठीक ऊपर. और साफ दिखता है कि इन नालों को सक्रिय हुए बहुत अरसा नहीं हुआ है अभी. मतलब यह कि यहाँ का आदमी भी प्रकृति के विनाशकारी तत्वों से बहुत ज़्यादा नहीं डरता. सृजन और विनाश का प्राकृतिक संघर्ष यहाँ अपने चरम रूप मे दिखता है . सच कहूँ तो ऐसे रोमाँच की कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने.
वह स्थानीय आदमी बहुत ज़्यादा बातूनी नहीं है. वह तब तक कोई सूचना शेयर नही करता जब तक कि उसे ज़रूरी न लगे . या पूछ ही न लिया जाए. लेकिन वे स्त्रियाँ कम्युनिकेट करने के लिए बहुत उत्सुक जान पड़तीं हैं. मुझे उन की खिचड़ी भाषा बड़ी आत्मीय लग रही है. और उस में बहुत ताक़त है . छोटी लड़की उन की बातों पर बार बार हँस पड़ती है. कभी कभी एकदम असहज हो जाती है. उसे लगता है कि वे लोग ज़्याद ही भदेस हो रहीं हैं. लेकिन उन स्त्रियो को कोई परवाह नही है कि स्कूल जाने वाली लड़की क्या सोच रही है. सहगल जी बीच बीच मे किसी लोकगीत का मुखड़ा गुनगुना देते तो वे स्त्रियाँ झट से उसे पूरा कर देतीं. मर्द भी सहज भाव से साथ साथ गाने लगता...
“ देशो ता भलिये मायाड़ी देशा....”
“खबुला , हेरि शुणि जाणा खबुला....”
“सोना पोति नेड़े क दूर ए , लाल रंगा है”
“पाडेरी मुलुका बुरा ए , ज़िन्दा पड़ेर ज़िन्दा ना ए”
टेक खत्म होने पर सभी ठहाका मार कर हँस पड़ते हैं.. लडकी इस गायन मे भाग लेने से झिझक रही है. लेकिन अंतिम हँसी मे वह भी शामिल हो जा रही है.........
ये लोग अपनी संस्कृति पर सचमुच गर्व करते हैं. कम से कम गायन में उन का आत्मविश्वास देख कर मुझे यही लगा है. इन गीतों पर पाडरी, पंगवाली और गद्दी भाषा और शैली का असर है. पहाड़ी-हिन्दी के शब्द भी सहज ही शामिल हो गए हैं. बोलचाल की भाषा भोटी(मयाड़ी) और आदिम पटनी होते हुए भी लोकगीतों में आर्यभाषाओं का प्रयोग क्यों हुआ है? फिर ध्यान आता है कि हमारे पटन में भी प्राचीन गाथाओं मे इसी खिचड़ी भाषा का प्रयोग हुआ है. सहगल जी से पूछता हूँ, कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता है.
ब्यूँस की टहनियाँ
तोमलिङ नाले से आगे जा कर एक जगह जुनिपर और चट्टानो से भरा एक मनोरम स्थल है. धूप काफी तेज़ हो रही है, जब कि नाले की बर्फानी हवा भी बेहद तीखी है. हम ने यहीं विश्राम करने का फैसला लिया है. उन औरतों ने अपने किल्टों से बक्पिणि निकाला है और पुग भी. पुग जौ के भुने हुए दाने हैं . लाहुल की स्त्रियाँ अपनी कतर की जेबों में भरे रखतीं हैं. काम काज या सफर के बीच मुट्ठी भर निकाल कर सब को बाँटती हैं और खुद भी खा लेतीं हैं. यह अल्पाहार बाँटते हुए पहली बार मेरा ध्यान इन औरतों की हथेलियों पर गया है . बीच में बेतरह घिसी हुईं और लाल. किनारे से खुरदुरी, बिवाईयों वाली, काली बेढब, गाँठ दार टेढ़ी मेढ़ी उंगलियाँ. जिन मे पुराने घावों के अनेक निशान दिख रहे हैं.
फिर उस छोटी लड़की की नाज़ुक उंगलियों को देखता हूँ. भीतर कुछ पिघलने लगा है.
ऐसा स्वच्छ मन, मधुर कंठ, उन्मुक्त ठहाके......... लेकिन हाथों की यह दुर्दशा कुछ और ही कहानी कह रही है. आदिवासी स्त्रियाँ अपना दर्द गीतों और ठहाकों में उडेल देती हैं. मुझे ब्यूँस की टहनियाँ याद आईं है ........
जैसा चाहो लचकाओ दबाओ
झुकती ,लहराती रहेंगी
जब तक हम में लोच है सूख जाने पर लेकिन
कड़क कर टूट जाएंगी
हम् ब्यूँस की टहनियाँ हैं
अचानक इन खिलते हुए चेहरों के पीछे छिपी हुई गहरी व्यथा की झलक मिल गई है मुझे. बेचैन हो उठता हूँ. दराटी से झाड़ झंखाड़ साफ करती माँ सामने आ गई हैं. उस की हथेलियों में काँटे चुभे हुए हैं और मैं एक ज़ंग लगी सूई से उन्हे निकालने की कोशिश कर रहा हूँ. पर काँटे हैं कि खत्म ही नहीं होते. एक निकालता हूँ तो दूसरा दिख जाता.....
यह सरकारी काम निपटा कर के दो दिन घर में माँ के पास रहूँगा. उस के हाथों से तमाम काँटे निकाल फैकूँगा......!
उस आदमी ने अरक की बोतल से दो घूँट गटक लिए हैं फिर बोतल आगे पास कर के उदासीन भाव से पुग चाबने लगा है.... कुटुर..कुटुर....कुटुर... मुझे ज़ोर की भूख लगी है. कभी कभी कुछ ध्वनियाँ भी एपिटाईज़र का काम करतीं हैं . औरतों से थोड़ी और बक्पिणि माँग कर खाने लगा हूँ. .......चौहान जी को अरक तो पसन्द है, लेकिन पुग अच्छा सेलेड नहीं है. फिर भी आज भाई जी प्रसन्न हैं... और खूब पी रहे हैं. फटी पेंट की परवाह किए बिना.
............... चाँगुट कितनी दूर है?
No comments:
Post a Comment