इन दिनो कवि शैलेन्द्र चौहान का बहुचर्चित कथा रिपोर्ताज ‘पाँव ज़मीन पर’ पढ़ रहा हूँ. भारतीय ग्राम्य जीवन की कुछ अनछुई छवियाँ , ध्वनियाँ यहाँ कवि की स्मृतियों के रूप में दर्ज हैं. कवि ने अपने लयात्मक गद्य और पैनी दृष्टि के सहारे ग्राम्य परंपराओं पर तटस्थता के साथ ज़रूरी टिप्पणियाँ की है. भारत नाम के इस देश को एक दम भीतर जा कर समझने समझाने का प्रयास करती यह एक लाजवाब किताब है. कुछ अंश यहाँ शेयर कर रहा हूँ:
दशहरे के कुछ दिन पहले की बात है, आठ दस साल की उम्र वाले चार छ्ह लड़के घर के सामने गीत गाते हुए आए . ‘ टेसू अटर करें, टेसु बटर करें, टेसु लेई के टरैं.’ मेरे लिए यह कौतूहल पूर्ण था . छोटी अईया ने कहा ‘टेसू आए हैं’ . मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि लड़के और टेसू , आखिर टेसू क्या चीज़ है ? छोटी अईया ने इतनी देर में कहीं से दो पैसे ढूँढ निकाले . पैसे और अनाज का कटोरा ले कर वे दरवाज़े की ओर चलीं, मैं भी पीछे पीछे गया. वहाँ देखता क्या हूँ कि उन लड़कों में से एक ने दोनों हाथों में बिजूका जैसा कुछ पकड़ रखा है. वह लकड़ी का बना हुआ था. उस के सिर पर पगड़ी रखी हुई थी, जो शायद मिट्टी पका कर बनाई गई थी. सबसे आश्चर्यजनक बात थी कि उस के पैर सीधे लम्बवत न हो कर एक दूसरे को काटते हुए दिख रहे थे, अंग्रेज़ी के एक्स अक्षर की तरह. टेसू का यह राज़ मेरी समझ में कभी नही आया. फिर तो टेसू दशहरे के एक दिन पहले तक रोज़ ही आते रहे. ‘ टेसू अटर करें, टेसु बटर करें’ गा कर अनाज ले जाते रहे. उधर टेसू जिस दिन से आना शुरू हुए , उसी दिन या उस के एकाध दिन बाद कुछ लड़कियाँ भी गाती हुई आईं. क्या गा रही थीं, याद नहीं पड़ता पर उन के पास खूबसूरत सी कंदील नुमा मटकी थी , जो पकी हुई मिट्टी की बनी थी और बहुत बड़ी भी नहीं थी. उस में चारों तरफ गोल और लम्बे कटे हुए छेद थे, जिन में से प्रकाश बाहर आ रहा था. उस के अंदर दीपक रखा था. यह ‘झाँझी’ थी. उन्हें भी अनाज दे कर विदा किया गया. दशहरे के एक दिन पहले तक यह क्रम चलता रहा.
दशहरे के दिन घर में तलवार और दूसरे लोहे के औज़ारों की पूजा हुई तो वहीं हुकुम सिंह दाऊ के घर के सामने टेसू और झाँझी का विवाह सम्पन्न हुआ. विवाह स्थल गोबर से लीपा गया, आटे से चौक पूरा था. चारों और आदमी औरतों की भीड़ थी . बीच मे बच्चे थे. लड़के टेसू लिए थे, लड़कियाँ झाँझी. कोई पंडित भी था. टेसू और झाँझी की भाँवरें पड़नी शुरू हुईं तो औरतों ने मंगल गान गाने शुरू किए, आदमी मज़े से हँस रहे थे. विवाह संपन्न हुआ तो पंडित जी ने सब के हाथों में लाल पीले धागे बाँधे, बतासे बाँटे गए. कुछ ही देर बाद लोग बाग दूल्हा दुल्हन को ले कर पोखर की ओर चल पड़े. टेसू और झाँझी विवाह के तुरंत बाद पोखर के हवाले कर दिए गए. सब लोग हँसते बोलते अपने घर लौट आए. मुझे यह अंत क़तई अच्छा नहीं लग रहा था पर कर भी क्या सकता था?
VISARJAN !
ReplyDeletePRATYARPAN
SUKHAD SAMARPAN
और अंश भी पढ़वाइये
ReplyDeleteने काफी सारे 'मार्क' कर रखे हैं. टाईपिंग मे ज़रा स्लो हूँ. प्रतीक्षा कीजिए.
ReplyDelete...आगे ?
ReplyDeleteआपकी कवितायेँ 'तद्भव' में हैं ...बधाई !
Ill post a few more paragraphs. bahut jaldee Type nahee^ kar paataa . plz, wait.
ReplyDeleteAnd thanks sushila ji. you know some thing, you are the first to inform me. Double thanks.:)
i want to give your article as reference in my research paper. Please mail me @ gyanendrabardhan@gmail.com i shall be grateful to you.
Deleteहमारे गाँव में अब भी टेसू-जन्झी का ब्याह धूमधाम से होता है......
ReplyDeleteयही वे चाँद परम्पराएँ हैं जो हमें अपने अतीत से जोड़े रखती हैं.... नोस्टालजियक पोस्ट
ब्लू अम्ब्रेला मूवी में भी बच्चे टेसू मांगते हुए गीत गाते हैं. हिमाचल की ही पृष्ठभूमि है. मैं सोच रहा था कि टेसू क्या है.
ReplyDeleteक्या इस फिल्म की release year बता सकते है।
Deleteमुझे भी शैलेन्द्र जी ने यह पुस्तक इसी साल मई में भेंट की थी , अभी इसे पूरा पढ़ नही पाया | कारण कि यह किताब दिल्ली में ही छूट गई थी | अभी एक महीना पहले इसे डाक से मंगवाया और आधा पढ़ लिया ,पूरी किताब पढ़ लेने के बाद मैं भी कुछ लिखूंगा |
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