Wednesday, December 19, 2012

जो प्रेम नहीं कर सकता , वही बलात्कार कर सकता है .

आहत , शर्मसार , और फ्रस्ट्रेटेड हूँ ! 






महज़ मोमबत्तियाँ जला कर हम स्त्री को सशक्त नहीं कर सकते ! 

सच यह है कि जो प्रेम नहीं कर सकता , वही बलात्कार कर सकता है . बालात्कार उस पिछड़ी मानसिकता का बाईप्रोडक्ट है जो स्त्री को सम्पत्ति मानती है . और उसे *पाने* के लिए किसी भी हद तक चली जाती है . यह बहुत शर्मनाक है कि हमारे संस्कारों में औरत (बेशक जिसे वह प्रेम करता हो) को *पाने* का कॉंसेप्ट बहुत गहरे बैठा हुआ है . बड़े बड़े लेखकों , कलाकारों में भी आप इस वाहियात *चाहत* को स्मेल कर सकते हैं. मुझे वे कविताएं और वो गीत बेहद अश्लील लगते हैं जहाँ "तुम्हें पा लिया " टाईप जुमले होते हैं . हमारे समाज का बहुत बड़ा वर्ग अजाने ही इस मानसिकता को जीता है और हैरान होता कि हमी में से कोई कैसे इतनी गिरी हुई हरकत कर सकता है ? मैं उस की इस भोली हैरानगी पर हैरान होने की अनुमति चाहता हूँ . ज़रा सोचिए हम किसी भी हालात मे स्त्री को व्यक्ति नही मान सकते यह आश्चर्यजनक है . मानते भी हों तो दोयम दर्जे का व्यक्ति मानते हैं .... हमारे महान स्त्री चिंतक बड़ी बेशर्मी से कहते फिरते हैं -- इन्हे एम्पॉवरमेंट की ज़रूरत है . माने , स्त्री दोयम हो गई . हम उसे ताक़त देंगे , तो भला होगा उस का . यह बहुत नेगेटिव सोच है समाधान का पहला कदम मैं समझता हूँ कि इस ओछी मानसिकता से निजात पाना होगा , जो कि निस्चित तौर पर आसान नहीं है ; लेकिन असम्भव भी नहीं . यह चेतना प्रसारित हो सकती है. बाक़ी ताक़त तो उसे खुद हासिल करना होगा . हम कौन होते हैं देने वाले ?

एक कवि के रूप मे, और एक इनसान के रूप में भी; मैं केवल सच्चे मन विश कर सकता हूँ कि मेरे समाज के तमाम कमज़ोर व्यक्ति , हारे हुए और डरे हुए समूह अपने लिए ताक़त खुद हासिल करें . बल्कि अपनी शक्तियों को पहचानें ,उन का प्रयोग करें जो उन के पास मौजूद ही है ! समाज में सम्वेदनाएं बची रहें , इंसानियत बची रहे .

11 comments:

  1. पूर्णतः सहमत हूँ आपसे, स्त्री आज भी दोयम ही है, वह इंसान नहीं वरन एक वस्तु है जिसे पाने के लिए पुरुष ओछी से ओछी और निन्दनीय कर्म तक कर डालता है, यह घटना उसी का परिणाम है। हमें अपने दिमाग से इस सोच को हटाना होगा तभी कुछ बदलेगा, और स्त्री को भी अपनी ताकत स्वयं बनना होगा, अबला बनने से कम नहीं चलने वाला।
    -----------------------------------------
    **उठा लो हथियार**
    पता है तुम्हे,
    सुनो कहाँ जाती हो,
    रुको,
    देखो तो सही,
    क्यूँ नहीं देखती,
    अपने आपको तुम?
    बिखरी पड़ी थी तुम,
    नग्न,
    खून से सनी हुई,
    दिल्ली की अधजली, खूंखार सड़कों पर,
    नुची चुथी हुई,
    जर्जर,
    सुन लो,
    अब भी कहता हूँ,
    बार बार कहता रहा हूँ,
    लेकिन तुम हमेशा टाल जाती हो,
    मुझे नहीं पता,
    कि उस समय क्या हुआ होगा तुम्हारे साथ,
    क्या गुजरी होगी तुम पर,
    किस यातना से दो चार हुई होगी तुम,
    नहीं जाती वहां तक मेरी सोच,
    लेकिन सिहरन के मारे,
    रोयें रोयें खड़े हैं,
    और कितना,
    कब तक,
    आँखों को सेंकती रहोगी,
    छिड़कती रहोगी,
    ज़ख्मों पर नमक,
    कब तक,
    नासूर बन चुके हैं ये अब,
    पता भी है तुम्हे,
    उठो,
    बैठो मत,
    चलो,
    तुलसी के पास भी चलना है,
    ताड़न की अधिकारिणी उसने ही बनाया है न तुम्हे,
    लेकिन क्यूँ,
    पूछो,
    क्यूँ नहीं पूछती,
    इंद्र से भी पूछना है,
    कैसे ऋषि रूप में उसने अहिल्या(तुम्हे) को छला,
    लाज न आई उसे,
    या फिर लाज न आई उन्हें,
    जिसने तुम्हे जार जार करके फेंक दिया,
    जानवरों की तरह,
    रुक जाओ,
    सुन लो,
    कब तक चलेगा यह सब,
    सदियों से हो रहा है,
    अभी भी चल रहा है,
    यह कोई,
    वंश वृक्ष नहीं है,
    जो यूँ ही चलता रहेगा,
    आज दिल्ली थी,
    कल कोलकाता था,
    मुंबई, पुणे, ठाणे, केरल, बंगलोर भी,
    हर जगह,
    तुम बिखरी हुई हो,
    रुक जाओ,
    सुन लो,
    ये नासूर अब और न पकने दो,
    आज माँ से नज़र नहीं मिला पाया था,
    बहन को देखने में शर्म महसूस हो रही थी,
    और पत्नी के साथ चलने में डर लग रहा था,
    इसीलिए कहता हूँ रुक जाओ,
    और,
    त्याग दो सीता का रूप,
    तज दो अहिल्या को,
    और कर लो धारण,
    फिर से,
    काली को,
    बन जाओ तुम दुर्गा,
    और पी लो रक्त इन रक्त पिपासुओं का,
    डाल दो उनके हलक में हाथ,
    और निकाल कर फेंक दो उनके संवेदनहीन ह्रदय को,
    मार डालो, उठा लो हथियार,
    नहीं तो,
    सच कहता हूँ,
    वह दिन दूर नहीं,
    जब मैं भी नहीं रहूँगा कहने के लिए,
    दाग दी जाएगी मेरी जिह्वा,
    और लेखनी को तुम्हारे ही शव पर,
    रखकर जला दिया जायेगा,
    फिर नहीं रुकेगा यह ताण्डव,
    और नुचती रहेगी, जलती रहेगी, बनती रहेगी शिकार,
    हर माँ,
    हर बहन,
    हर बेटी
    और हर बीवी,
    सरेआम भरी महफ़िल में,
    और कोई कृष्ण नहीं होगा तब,
    लुटती हुई द्रोपदी को,
    बचाने के लिए,
    बन जाओ तुम दुर्गा,
    बन जाओ काली,
    बन जाओ,
    सुन लो,
    रुक जाओ,
    उठा लो हथियार,
    और काट डालो,
    इन देव रुपी दानवों को,
    रुक जाओ।

    -नीरज

    ReplyDelete
  2. सहमत हूँ भाई...अद्भुत पंक्ति है..एक कविता जैसी अपने आप में

    प्रेम पाना-खोना नहीं सहयात्री होना होता है बस...

    ReplyDelete
  3. सही कहा ...प्रेम होगा तो प्रिय का हित ही सर्वोपरि होगा ! प्रेम तोड़ना है लेना नहीं और छीनना तो विचार में भी नहीं !

    ReplyDelete
  4. प्रेम और बलात्कार का कोई संबंध नहीं – विरोधात्मक भी नहीं. बलात्कार हवस या वासना से प्रेरित नहीं होता. उसका “संचालन” होता है स्त्री को अपमानित/लांछित करने की अदम्य इच्छा से. उस पर हर तरह से काबू कर के उसे जलील करने के उद्देश्य से… और उसकी दुर्दशा से आनंदित होने के लक्ष्य से. ऐसे कापुरुष “महापुरुष” का जननेंद्रिय होता है…. उसका हथियार. उसके हाथ-पांव और उसके कुसंस्कार होते हैं उसके सहायक.

    ऐसे लोग मानसिक विकृति से ग्रस्त हैं.

    ReplyDelete
  5. आपके विचार सही हैं।
    मगर इस वक्त ये हाल है कि
    आँख में आँसू नहीं
    उफ़नता लावा
    उद्वेलित मन
    और शब्दहीन हो जाना
    बेबसी भी इस बेबसी पर शर्मसार है

    ReplyDelete
  6. किसी ने सच ही कहा है नज़र और सोच तुम्हारी बुरी और विकृत हो और पर्दा मैं करूं ..घुट -घुट के मैं जीयूं ...और तथाकथित औरत हितेशी जो उसके बलात्कार के बाद सड़कों पर नज़र आते हैं ..जब पीडिता इस पीड़ा से उबार रही होती हैं उसका समाज में जीना मुश्किल कर देते हैं ...नैतिकता को हम थोप नहीं सकते और विकृत मानसिकता को कोई भी कानून नहीं बाँध सकती

    ReplyDelete
  7. बहुत अफ़सोस होता है ... हम अपने आसपास देखते हैं...जो पकड़े गए उनके अलावा कई हैं, जो गिरफ़्त से बाहर हैं...कई हैं, जो बस वारदात करने ही वाले हैं... देह नहीं भी छू पा रहे पर भाषा में कर वही रहे हैं, जो इस प्रकरण में हुआ... हमें जो दिख रहा है, हम उसका विरोध कर पाते हैं...बहुत सारा तो हमारे देखने-जानने की ज़द से भी बाहर है...

    हमने यह कैसा समाज रच डाला है...

    ReplyDelete
  8. इस पोस्ट में मेरी भी बात है। जब पोस्ट पढ़ी थी, तब ही कुछ टिपण्णी करना चाहता था, फोन भी करना चाहा पर कुछ कह पाना मुमकिन न हुआ।

    ReplyDelete
  9. मैं इस बड़ी त्रासदी के सन्दर्भ में आप सब की भावनाओं का बहुत सम्मान करता हूँ। जितने भावुक और कड़े शब्दों में इस घटना की और ऐसी अन्य घटनाओं की निंदा की जा सकते है मैं करता हूँ।लेकिन कोई घटना आपने काल, परिवेश और समाज से परे नही होंती। क्या हमने सोचा है कि आज़ादी के बाद हमारे देश में कैसा समाज बना है? देश का समाज देशवासी ही बनाते है। क्या हमने अपने समाज को बेहतर बनाने में कोइ योगदान दिया है?
    यदि नहीं दिया है और नही देंगे तो इस तरह की घटनाएँ घटती रहेंगी और समय समय पर हम केवल भावुक होते रहेंगे और फिर अपने अपने काम में लग जायेंगे।
    असग़र वजाहत

    ReplyDelete
  10. सच कहा आपने, जो प्रेम नहीं कर सकता, वही बलात्कार कर सकता है। पूरी तरह सहमत, औरत के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत, लेकिन ऐसा कभी हो पाएगा, कौन जानता है।

    ReplyDelete