Tuesday, December 25, 2012

दोयम दर्जे के इंसान


                          ‘‘अरे छोड़ो भाई, ये सब औरतों की बाते हैं।’’ अक्सर हम यह सुन ही लेते हैं। रंगभेद और पुरुष वर्चस्व का सिलसिला साथ ही शुरू हुआ और चलता रहा है। खुद को मजबूत बनाए रखने के उनके तर्क भी एक जैसे ही होते हैं। एउखेनिओ राउल साफ्फारोनि बताते हैं कि स्पेनी धार्मिक न्यायालयों इन्किसिशियोन के दौर में 1546 में आधी आबादी के खिलाफ बना तथाकथित डायन विरोधी कानूनएल मार्तिल्यो दे लास ब्रुखास दुनिया का पहला फौ़ज़दारी कानून था। इसे तैयार करने वाले धर्म के रक्षकोंने यह पूरा पोथा ही महिलाओं की दुर्दशा को जायज़ ठहराने और उनकी निम्नतरशारीरिक क्षमता को साबित करने के लिए लिख  डाला था। वैसे भी, बाइबिल और यूनानी पौराणिक कहानियों के जमाने से ही औरतों को कमतर बताने व बनाए जाने की शुरुआत हो चुकी थी। तभी तो हमें ये बताया जाता रहा कि वो हव्वा एक महिला ही थी जिसकी मूर्खता की वजह से हम सबको स्वर्ग से धरती का मुंह देखना पड़ा है, और दुनिया को कष्टों से भर देने वाला पिटारा भी तो एक महिला पांडोरा ने ही खोला था। एक तरफ जहां संत पाब्लो अपने चेलों को यह बताते थे कि ‘‘औरत के शरीर का एक ही हिस्सा मर्दों वाला होता है, और वह है उसका दिमाग’’ वहीं उनसे उन्नीस सौ साल बाद आए सामाजिक मनोविज्ञान के संस्थापकों में से एक माने गए गुस्ताव ले गोन यह साबित करने में लगे हुए थे कि ‘‘किसी औरत का बुद्धिमान होना उतना ही दुर्लभ है, जितना दो सिरों वाले चिम्पाजी का पाया जाना।’’ चाल्र्स डार्विन वैसे तो औरतों की कुछ खूबियों, जैसे कि घटनाओं का पूर्वानुमान कर लेने की उनकी क्षमता, की बात करतें हैं लेकिन वह भी इसे नीची नस्ल के लोगों की विशेषता ही बताते हैं।

                  अमेरिकी महाद्वीपों को जीत लिए जाने के समय से ही समलैंगिकों को मर्दानगी की स्वाभाविक प्रकृतिके खिलाफ़ मान लिया गया था। यूरोप से आए ईश्वर के लिए, जो कि अपने नाम से ही पुरुष है, सबसे बड़ा अपराध यह था कि मूलवासियों में मर्दों का औरतों की तरह होना बिल्कुल स्वाभाविक माना जाता था ईश्वर के सभ्य’ उपासकों के लिये तो यहां के पुरुष बिना स्तन और प्रजनन क्षमता वाली स्त्री ही थे। हमारे दौर में भी समलैंगिक औरतें स्त्रीत्व’ की स्वाभाविक स्थिति’ के खिलाफ़ ठहरा दी जाती हैं तो इसी वजह से की वे व्यवस्था के लिए जरूरी मजदूर नहीं पैदा करतींऔरत जिसका जन्म ही बच्चे पैदा करने, नशेड़ियों को आनंद देने व महात्माओं के कुकर्मों पर अपनी चुप्पी का पर्दा डालने के लिए हुआ है, आदिवासियों और अश्वेतों की तरह स्वभाव से ही पिछड़ी बता दी जाती है आश्चर्य नहीं कि इन्हीं समुदायों की तरह वह भी इतिहास के हाशिये पर पर फेंक दी गई है अमेरिकी महाद्वीपों का सरकारी इतिहास आज़ादी की लड़ाई के महान नायकों के पीछे छूट जाने वाली मांओं और विधवा औरतों के त्याग और दुख का जिक्र कर लिया करता है कुल मिलाकर यह एक झंडे (उस भावी गणराज्य का जिसके नायक हमेशा पुरुष ही होने थे-अनुवादक), कढ़ाई और मातम (घरेलु काम जो जाहिर है, औरतों के ही हिस्से आते हैं-अनुवादक) का उत्सव ही रहा है यही इतिहास यूरोप के अमेरिकी महाद्विपों पर हमले की महिला नायकों व बाद में आज़ादी की लड़ाईयों को आगे बढ़ाती लातिन अमेरिकी क्रियोल वर्ग (शुद्ध’ यूरोपीय खून का दावा करने वाले) की महिलाओं की बात शायद ही कभी करता है पुरुषों की वीरता बखानते ये इतिहासकार कम से कम युद्ध और मार-काट की इनकी (इन औरतों की) खुबियों का गुणगान तो कर ही सकते थेगुलामी के दौर में हुए कितने ही विद्रोहों की मूलवासी और अश्वेत नायिकाएं तो फिर गुमनाम ही रह जाने वाली थीं।  

लेखक
एदुआर्दो गालेआनो (जन्म उरुग्वे,1940- ) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातिनी अमेरिकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि "लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है" यह अनुवाद उनकी किताब Patas arriba: la escuela del mundo al revés (1998) (पातास आरिबा: ला एस्कुएला देल मुन्दो अल रेबेस- उलटबांसियां: उल्टी दुनिया की पाठशाला) का एक हिस्सा है यह किताब ग्लोबलाईज्डसमय के क्रूर अंतर्विरोधों और विडंबनाओं का खाका  है जो भारत सहित तथाकथित तीसरी दुनिया’ के देशों के लिए बहुत मौजूं है
अनुवादक
इस किताब का अनुवाद जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के लातिन अमेरिकी साहित्य के शोधार्थी पी. कुमार मंगलम कर रहे हैं समयांतर के अक्टूबर,2011 के अंक में गालेआनो के लेख का उनका किया हिंदी अनुवाद छप चुका है

1 comment:

  1. excellent post
    http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/12/blog-post_26.html

    ReplyDelete