प्रकाश बादल मेरे ब्लॉग गुरु हैं. गत वर्ष उन्हों ने हिमाचल के तमाम कवियों को आभासी दुनिया में प्रस्तुत करने की योजना बनाई. मैंने खुशी खुशी अपनी समस्त टंकित कविताएं दे दी . लेकिन तीन कविताएं डाल कर चुप हो गए गुरु जी. न तो मुझे मॉडरेशन की कुंजी दें, न खुद ही नए पोस्ट लगाएं. मज़बूर होकर मुझे अपना एक ब्लॉग बनाना पड़ा. विजय गौड़, शिरीष, और खुद बादल ने इस काम में मेरी बड़ी मदद की. इन छह महीनों में मैंने पाया कि यह जगह तो मेरे मन की है. अभी सीख ही रहा हूँ, लेकिन यहाँ मुझे कविता के कुछ इतने गंभीर लोग मिले हैं कि प्रिंट मीडिया में शायद उन्हें मिस कर जाता.
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताए....
एस आर हरनोट् जैसे मित्रों का आग्रह था कि नए साल की पहली कविता आलोचना या तद्भव को भेजूँ। लेकिन गुरु जी की फरमाईश पर इस वर्ष की पहली कविता ब्लॉग पर. गुरु दक्षिणा समझें. एकलव्य ने अंगूठा दे दिया था. मैं अपने दो शुभचिंतक मित्रों के साथ साथ कुछ नामवर लोगों को भी नाराज़ कर रहा हूँ, इस उमीद के साथ कि भविष्य के द्रोणाचार्य प्रकाश बादल से कुछ सीखॆंगे.
खैर, कविता का संदर्भ नव वर्ष का है, पहाड़ के खानाबदोश जीवन का है. इसे ऊपर की टिप्पणी से अलगा कर पढ़ें.आप सब को नव वर्ष की शुभ कामनाएं.
पहाड़ी खानाबदोशों का गीत
अलविदा ओ पतझड़ !
बाँध लिया है अपना डेरा-डफेरा ,हाँक दिया है अपना रेवड़
हमने पथरीली फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठण्डी रात है
इसे जल्दी से बीत जाने दे
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे !
विदा, ओ खामोश बूढ़े सराय !
तेरी केतलियाँ भरी हुई हैं लबालब हमारे गीतों से.
हमारी जेबों में भरी हुई है ठसाठस तेरी कविताएं
मिलकर समेट लें भोर होने से पहले
अँधेरी रातों की तमाम यादें
आज हम पहाड़ लाँघॆंगे
उस पार की हलचल सुनेंगे !
विदा , ओ गबरू जवान कारिन्दो !
हमारी पिट्ठुओं में ठूँस दिए हैं तुमने
अपनी संवेदनाओं के गीले रूमाल
सुलगा दिया है तुमने हमारी छातियों में
अपनी अँगीठियों का दहकता जुनून
उमड़ने लगा है एक लाल बादल आकाश के उस कोने में
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की हवाएं सूँघेंगे !
सोई रहो बरफ में
ओ, कमज़ोर नदियो
बीते मौसम तुम्हें घूँट घूँट पिया है
बदले में कुछ भी नहीं दिया है
तैरती है हमारी देहों में तुम्हारी ही नमी
तुम्हारी ही लहरें मचलती हैं हमारे पाँवों में
सूरज उतर आया है आधी ढलान तक
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे !
विदा, ओ अच्छी ब्यूँस की टहनियों !
लहलहाते स्वप्न हैं हमारी आँखों में
तुम्हारी हरियाली के
मज़बूत लाठियाँ हैं हमारे हाथों में
तुम्हारे भरोसे की
तुम अपनी झरती पत्तियों के आँचल में
सहेज लेना चुपके से
थोड़ी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज
अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे !
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे !
कारगा, दिसम्बर .2009
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो बताए....
एस आर हरनोट् जैसे मित्रों का आग्रह था कि नए साल की पहली कविता आलोचना या तद्भव को भेजूँ। लेकिन गुरु जी की फरमाईश पर इस वर्ष की पहली कविता ब्लॉग पर. गुरु दक्षिणा समझें. एकलव्य ने अंगूठा दे दिया था. मैं अपने दो शुभचिंतक मित्रों के साथ साथ कुछ नामवर लोगों को भी नाराज़ कर रहा हूँ, इस उमीद के साथ कि भविष्य के द्रोणाचार्य प्रकाश बादल से कुछ सीखॆंगे.
खैर, कविता का संदर्भ नव वर्ष का है, पहाड़ के खानाबदोश जीवन का है. इसे ऊपर की टिप्पणी से अलगा कर पढ़ें.आप सब को नव वर्ष की शुभ कामनाएं.
पहाड़ी खानाबदोशों का गीत
अलविदा ओ पतझड़ !
बाँध लिया है अपना डेरा-डफेरा ,हाँक दिया है अपना रेवड़
हमने पथरीली फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठण्डी रात है
इसे जल्दी से बीत जाने दे
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे !
विदा, ओ खामोश बूढ़े सराय !
तेरी केतलियाँ भरी हुई हैं लबालब हमारे गीतों से.
हमारी जेबों में भरी हुई है ठसाठस तेरी कविताएं
मिलकर समेट लें भोर होने से पहले
अँधेरी रातों की तमाम यादें
आज हम पहाड़ लाँघॆंगे
उस पार की हलचल सुनेंगे !
विदा , ओ गबरू जवान कारिन्दो !
हमारी पिट्ठुओं में ठूँस दिए हैं तुमने
अपनी संवेदनाओं के गीले रूमाल
सुलगा दिया है तुमने हमारी छातियों में
अपनी अँगीठियों का दहकता जुनून
उमड़ने लगा है एक लाल बादल आकाश के उस कोने में
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की हवाएं सूँघेंगे !
सोई रहो बरफ में
ओ, कमज़ोर नदियो
बीते मौसम तुम्हें घूँट घूँट पिया है
बदले में कुछ भी नहीं दिया है
तैरती है हमारी देहों में तुम्हारी ही नमी
तुम्हारी ही लहरें मचलती हैं हमारे पाँवों में
सूरज उतर आया है आधी ढलान तक
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे !
विदा, ओ अच्छी ब्यूँस की टहनियों !
लहलहाते स्वप्न हैं हमारी आँखों में
तुम्हारी हरियाली के
मज़बूत लाठियाँ हैं हमारे हाथों में
तुम्हारे भरोसे की
तुम अपनी झरती पत्तियों के आँचल में
सहेज लेना चुपके से
थोड़ी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज
अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे !
आज हम पहाड़ लाँघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे !
कारगा, दिसम्बर .2009
अजय आपको और हिमाचल के सभी साथियों को नया साल मुबारक हो!
ReplyDeleteकविता शानदार है.
नए रचनात्मक साल के लिए मेरी शुभकामनाएँ.
सबको उनके हिस्से का शुक्रिया कहकर नए,उम्मीद के मक़ाम की ओर ले जाने के इरादे देती कविता.
ReplyDeleteनए साल की शुभकामनाएं.उम्मीद करता हूँ इस साल आपकी ढेरों कविताओं में पहाड़ को सुनूंगा.
badhai. naye varsh me isi tarah srijanrat rahen.
ReplyDeleteअजेय भाई भेड़ चरवाहों की यह ऎसी कथा है, जो उम्मीदों से भर देती है। यही तो त्रासदी है कि अपने रेवड़ों के साथ निकलने वाले इन रास्तों के खोजियों पर भी ये मुनाफ़ाखौर दौर चौकसी बैठा रहा है।
ReplyDeleteतुम्हारी कविता हौसला बंधाती है भाई:
अलविदा ओ पतझड़ !
बाँध लिया है अपना डेरा-डफेरा ,हाँक दिया है अपना रेवड़
हमने पथरीली फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठण्डी रात है
इसे जल्दी से बीत जाने दे
सच हों ये उम्मीदें। लाघंते रहे हम पहाड़ दर पहाड़ एक दूसरे का हाथ पकड़े पकड़े।
नए बरस में पहाड़ लांघने और इस दुनिया से उस दुनिया में जाने का संकल्प, उत्साह, हिम्मत, आकांक्षा और सपने देखने और उनके पूरे होने तक की कठिन लेकिन जीवंत यात्रा पंक्ति दर पंक्ति यानी कदम दर कदम आगे बढ़ रही है.
ReplyDeleteमुबारक हो यह सफर...
अजेय भाई नये साल की इससे शानदार शुरुआत क्या हो सकती थी!
ReplyDeleteउम्मीद और सपनों से भरी एक ताज़ा कविता…
अजय भाई आप की कविता पढने के लिए आपका ब्लॉग खोला था पर धीरे धीरे पूरा ब्लॉग पढ़ गया. सच कहूँ तो लाख चाहत के बाद पहाड़ नहीं देखे मैंने. इस बात को मै अफ़सोस भरे लेकिन शहीदाना अंदाज में अपने दोस्तों को कहता था.... पर अब नहीं कह पाउँगा शायद. एक पहाड़ है जो धड़कता है आप के सीने में. उस धडकते दिल के मौसमों को बदलते महसूस किया....एक बार आपको छुने की चाहत हुई. बर्फ पिघले न पिघले, दर्द एक सर्द बेरहम तूफान सा क्यों न और जाए, अपने अन्दर के इस पर्वत को काट कर कभी कंक्रीट की बस्तियां न बसियेगा...
ReplyDeleteआपका
पवन मेराज
very sensitive poetry. badhai.
ReplyDeleteआभार आप सब का ! मैं एनर्जाईज़ हुआ. ताक़त मिली है.
ReplyDelete# पवन, थेंक्स. आप की बात नोट कर ली गई है.
This poem is certainly going to haunt me for long time. It creates the feeling of an empty bed besides you all night long, it creates the feeling of birds flying south.It makes me feel like 'this side of the hill' . lonely and arid yet has to feed the 'BIUNS' for herd and prepare itself for once again to be alone coming winters.
ReplyDeleteaaj hum pahar langhen ge
ReplyDeleteus par ki dhup tapen ge
idhar sheet ke ehsas ko
udhar ki suhawane dhup se laba lab bhar kar nayee kori hawano se
sahej kar uphante jajbat ki
garam god me sal bhar oonghte rahen ge
aaj hum pahar langhen ge
us paar ki dhup tapen ge
bahut-2 shubh kamnayen
tumharee kavitanyen Lahouli
manas ke antas me bethi ek gehri
asmanjas se uthne ki baat kehti hai
kaash har koi in samvednaon ko samajh kar ek naee sunharee tasweer ka ijaad kare aur apnee jadon ko samjhe
gharsangi
प्रिय अजेय
ReplyDeleteब्लॉग देख लिया है और कविता भी पढ़ त्ग है..बहुत अच्छी कविता है.
मेरे मन में आप और निशांत के लिए बहुत बड़ी सोच है......हिमाचल हिन्दी साहित्य में हमेशा से पिछड़ता रहा है. ऐसा नहीं है की यहाँ प्रतिभा नहीं थी या नहीं है. प्रंतु हमारे कोई सामूहिक इस तरह के प्रयास नहीं हो पाए जिससे हम इस प्रदेश की सीमायों को लांघ पाते..इसके अनेक कारण हो सकते हैं. पिछले कुछ सालों से यह होने लगा है और जिस किसी ने यह काम किया है उसने अकेले ही बाहर निकलने की हिमत्त जुटाई है. यहाँ का जो litraray परिदृश्य रहा है वह उस जंगली बिल्ली की तरह है जो अपने हे बच्चों को खाकर भूख मिताक़ देती है.
आपने और विशेषकर निशांत ने जिस तरह से राष्ट्रीय परिदृश्य पर अपना झंडा गड़ा है वह हमारे लिए सम्मान की बात है. इसमें अब मुरारी का नाम भी जुड़ गया है. कुछ और युवा भी इस तरफ प्रयास में है. मेरी दिली इच्छा है की कविता में जो नाम डेल्ही या दूसरी जगहों के बड़े कवियों के हैं उस तरह सुरेश सेन निशांत के साथ अजय का नाम भी हो. और हिमाचल को आप के नाम से जाना जाए. इसलिए आपको भी निरंतर बाहर निकलना है....ताकि हर जगह आपके नाम लिए जायें....एक बहुत बड़ा पाठकों का संसार आपके पास हो..........इंटरनेट की दुनिया भले ही आपको ग्लोबल बना देती है लेकिन अभी वहाँ साहित्य का इतना बड़ा पाठक वर्ग नहीं है जितना प्रिंट मीडीया में हैं. आप देखेंगे की वाही बीस या पच्चास लोग इस ग्लोबल दुनिया में आपके पास हैं....मैं यदि मन से कहूँ तो हम इस तरह कभी कभार अपना टाइम भी बरवाद कर रहे हैं.
हालांकि संवाद के लिए यह बहुत अच्छा जरिया है.
मैं चाहता हूँ की आप भी निशांत की तरह कविता की खेती करनी शुरू कर दें.....ताकि आने वाले समय में लोग बड़े कवियों के समकक्ष आपके नाम लें......और हिमाचल में जो साहित्य का सूखा पड़ा है उसमें गीलापन आए .
मैं आप, निशांत , मुरारी और निरंजन जैसे मित्रों को पाकर बहुत सहज महसूस कर रहा हूँ. मुझे आप सभी के मार्गदर्शन की जरूरत है...सच मुझे बराबर आप सभी से उर्जा मिलती है......2010 हमारे प्रदेश के लिए साहित्य में एक उदाहरण बन कर आए मेरी यही कामना है.
आपका संग्रह भी इस साल हर हालत में आ जाना चाहिए ......2011 में तो जनवरी तक की मोहलत आपको दे जा सकती है.
मेरी ढेरों शुभकामनायें आप सभी के साथ है. कुछ ठीक न लगे तो उस पर बिल्कुल भी ध्यान न देना.
आपका
हरनोट
इसे पढ़ते हुए मुझे बार बार ब्रेख्त की याद आ रही है। वजह तो मुझे भी समझ नहीं आई। हो ची मिन की एक कहानी भी ज़ोरों से याद आ रही है।
ReplyDeleteनया साल बहुत बहुत मुबारक अजेय भाई।
# सोरेश, खुशी हुई कि हिन्दी ब्लॉग पर आए.देर से ही सही. जहाँ तक मुझे याद है,पिछले पच्चीस सालों में यह मेरी दूसरी कविता है जो तुम्हें पसन्द आई.शुक्रिया.
ReplyDelete# घरसंगी जी , अच्छा लगा कि आप ने इस कविता के विशुद्ध आँचलिक संदर्भ को पकड़ा. देव नागरी सीखिए. सादर.
# हरनोट जी, आप की भावनाओं का सम्मान करता हूँ, क्षमा करेंगे, मुझे नाम से डर लगता है.
कविताओं की खेती करना मेरे बस की बात नहीं है. भाई निशांत के पास तो पहले ही से कविताओं का भण्डार है. लबालब संवेदनाओं से भरे हुए कवि हैं वे. ज़ाहिर है. उन्हें भी खेती करने की ज़रूरत शायद ही हो. लेकिन जो अन्दर है, उसे कहीं न कहीं किसी मंच पर कहना ही है. सो कह रहे हैं, और बखूबी कह रह रहे हैं. हाँ दूर से यह झण्डे गाड़ने जैसा लगता हो ,तो ठीक है , वह भी बुरा नहीं है.आप् की बातों को मैं हमेशा गंभीरता से लेता हूँ. एक बुज़ुर्ग के हिदायतओं की तरह. ये सब बातें भी नोट कर ली गईं हैं. सादर.
# महेन, इतना झाड़ पर मत चढाओ यार,ये तो बड़े ‘आदमी’ हैं. और् क्यों मुझे कम्युनिस्ट बनाने पर तुले हो ? मेरी “ प्रार्थना” कविता पढ़ी है ? अदना सा ईश्वर भक्त हूँ..... यह अलग बात है कि आस्तिक नहीं हूँ. न ही नास्तिक हूँ.
माफ करना ब्रेख्त और होचि को कम्युनिस्त बात बात पर कोट करते हैं. इस लिए ऐसा कहना पड़ा.
अर्रर्रर्रर्र… गड़बड़ हो गई… हो ची मिन लिख दिया। लिखना था माई ची मिन।
ReplyDeleteअरे भाई आपको कम्युनिस्ट बनाने का कोई इरादा नहीं… एक दोस्त लाल छतरी के हवाले नहीं करना चाहता…
अजेय भाई,
ReplyDeleteआपने मेरे लिए जो "प्रशंसा पत्र लिखा उसे पढ़कर भाई सुरेश सेन "निशांत" के पत्र के बाद दूसरी बार ठेस लगी है। ख़ैर! मेरा मिशन बिल्कुल निश्छल और लाग लपेट से बाहर है। मैं सभी हिमाचली कवि मित्रों की कविताएं उन पाठकों की नज़र भी करना चाहता था जो अधिकतर समय इंटरनैट पर बिताते हैं। इसी आशय से मैंने मात्र उन कवियों को चुना जिनकी कविताएं मुझे व्यक्तिगत तौर पर अच्छी लगती हैं। ये मेरी कमज़ोरी है कि आपको मैं अपने प्रिय कवियों में देखता हूँ। इसी के चलते मैंने आपका ब्लॉग बना डाला। आशा है आप मुझे मेरे इस "गुनाह" के लिए क्षमा करेंगे। रही ब्लॉग की कूँजी की बात तो वो आपने मुझसे माँगी ही नहीं तो मैं देना भूल गया। मुझे बहुत खुशी होती कि आप उसी ब्लॉग को चलाते लेकिन आपने अपना नया ब्लॉग बनाया ये भी बहुत सुखद अहसास है। पिछले आधे वर्ष अपनी सासू माँ के ईलाज में चंडीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में गुज़ारे, लेकिन मुझसे एक गलती हो गई मैं आपकी कविताएं ले जाना भूल गया, यदि आपकी कविताएँ साथ ले जाता तो अस्पताल में टाईप करके ब्लॉग पर डाल देता तो आपकी नाराज़गी का सामना न करना पड़ता। खैर मुझे क्षमा करें। आपकी कविताएं मुझे ठीक उसी प्रकार पसंद है जिस प्रकार भाई निशांत की। इस हक से आप मुझसे कैसे छीनते हैं देखना ये है।
बादल भाई, इस में आहत होने जैसा कुछ नहीं है. हम जो कुछ कर रहे हैं , एक ईमानदार कविता को बचाने के लिए है. व्यक्तिगत यहाँ कुछ नहीं है. अच्छी कविता कविता , चाहे वो किसी की भी हो , आप को अच्छी लगती है तो यह कविता के हित में है. जीवन गत और घरेलू ज़िम्मेदारियों के चलते हम न जाने कितनी ही कविताएं हर रोज़ 'मिस' कर जाते हैं. लेकिन बावजूद इस के एक प्यास भीतर बची है तो समझिए हम ने दुनिया जहान की कविताई बचा ली. भाई निशांत और मेरे लिए आप का प्यार इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. आभार.
ReplyDeleteअजेय भाई
ReplyDeleteआपका ब्लॉग बनाकर आपकी नाराज़गी प्राप्त करूँगा, कभी ऐसी कल्पना भी नहीं की थी। खैर....! आपके दिल में जो था वो आपने बता दिया मेरे दिल में जो था मैंने आपके ब्लॉग बना कर ज़ाहिर कर दिया। आपका आभारी हूँ कि आपने मुझ जैसे अदने व्यक्ति को अपना ब्लॉग बनाने की इज़ाज़त दी और मैं इस काम में किसी न किसी तरह सफल हो सका।
ऑल इज़ वैल...!!!!!!
that ends well.
ReplyDeleteआज हम पहाड़ लाँघेंगे
ReplyDeleteउस पार की दुनिया देखेंगे !har kavita me kuch karne ki dhun,kuch positive attitude sa hai..