यह रेखाचित्र मैंने अजेय की एक पुरानी कविता से प्रेरित हो कर बनाया था ,जो कि नीचे लगा रहा हूँ. चूँकि आज से मुझे इस ब्लॉग से छेड़ खानी करने की परमिशन मिल गई है, कभी कभी हाज़िर होता रहूँगा.
गिद्ध - छाया
मैं हूँ अभिशप्त गिद्ध शावक
ऊँचे पहाड़ों पर विचरण करने वाले सुनहरे ऊक़ाब की पहली संतान
पैदा होते ही दौड़ाया है मुझे मेरी बेचैनी ने
बंजर धरतियों पर बदहवास
नदियाँ और पहाड़ फलाँगता सोचता हूँ आनन फानन
बस किसी तरह छू भर लूँ भीमकाय पितृ-छाया
और उस की सीधी सपाट निर्विघ्न उड़ान
कि मेरे कदम ऐसे बौने क्यों ?
और यह कौन देवता है
प्रतिदिन बाँध जाता जो
मेरे पैरों को हाथों को
अपने श्वेत वस्त्र शेष से !
उड़ना है मुझे
फैल जाना है सृष्टि के असीम विस्तार में
हर हाल में
अंतिम क्षण तक
ठंडाना है अपने जैसे सभी झुलसे हुओं को
बिखर जाना है
हवा में
पानी में
मिट्टी में
......मुझे आज़ाद होना है !
एक हिमालयी मिथक के अनुसार आदि गरुड़ को ईश्वर ने अभिषाप दिया था कि उसे कुत्ते की संतति प्राप्त होगी. माना जाता है कि तब से गीध के पहले अंडे से निकला हुआ शावक कुत्ते के सिर वाला होता है और ज़िन्दगी भर उड़ नहीं पाता .
दूसरा चित्र उन की कविता "ब्यूँस की टहनियाँ" से प्रेरित है जो मुझे विशेष रूप से पसन्द है. यहाँ नहीं लगा रहा हूँ . कि आप लोग काफी बार पढ़ चुके होंगे. -----------विद्यार्थी।
सोरेश विद्यार्थी एक समर्थ लोक कवि और कुशल चित्रकार हैं। वे यहाँ कुछ हिमपात के फोटो डालना चाहते थे, लेकिन किसी कारण वश अपलोड न कर पाए. मैने उन्हें यह ब्लॉग मेनेज करने में मदद माँगी तो सहर्ष मान गए.
आज से यहाँ उन की रचनात्मकता की झलक मिलती रहेगी. ........अजेय्
नहीं जानता कि हिमालयन ग्रिफन वल्चर का हिमाचल के मिथकों में कितना स्थान है पर महत्वपूर्ण ज़रूर होगा.
ReplyDeleteअभिशप्त की वेगवान इच्छाएं सब कुछ प्रक्षालित करने के भाव से जन्म लेती हैं.
कविता और चित्र दोनो के लिए आभार.
सोरेश भाई, 'रेखाचित्र' कविता से प्रेरित है ये बता दिया है. मगर रेखाचित्र देखकर कविता का पुनर्पाठ सहज ही आभास दे रहा है कि 'कविता' रेखाचित्र से प्रेरित है. मेरे जैसे पाठक कविता को सहज सुलभ बनाने के लिए ऐसे जीवंत रेखाचित्रों का स्वागत ही करेंगे. अजेय भाई के साथ आपकी ब्लॉग पर जुगलबंदी निसंदेह ही कुछ और रोचक पोस्ट की उम्मीद जागती है.हालाँकि दोनों रेखाचित्र पहले पोस्ट पर देख लिया था, आज सन्दर्भ व विवरणों के साथ पूरा पोस्ट ही सार्थक लगा. अजेय भाई की लेखनी का आपने 'फिल्मांकन' कर दिया अब आपकी कृतियों से अजेय भाई हमें रू-ब-रु करायेंगे इस इंतजार के साथ शुभकामनाएँ! सादर...
ReplyDeleteएक और एक ग्यारह की जोड़ है ये तो !
ReplyDeleteएक बात और दूसरे रेखाचित्र के साथ 'ब्युंस की टहनियां' रचना लगा ही दीजिये. फिर से उस रचना को दो नायाब कृतियों के साथ पढना अलग एहसास देगा.
ReplyDeleteउड़ना है मुझे
ReplyDeleteफैल जाना है सृष्टि के असीम विस्तार में
हर हाल में
अंतिम क्षण तक
ठंडाना है अपने जैसे सभी झुलसे हुओं को
बिखर जाना है
हवा में
पानी में
मिट्टी में
......मुझे आज़ाद होना है ! na udh pane ki bechaini apni si hai..bikhar jane ki chah,azaad ho jane ki ichha mnushay hone ka ahsaas krati hai..
# संजय, देर से आ रहा हूँ.
ReplyDeleteगीध और गरुड़ के हिमालय ,विशेष कर ट्राँस् हिमालय में अनगिनत मिथक और किंवदंतियाँ हैं. मेरे नाना जी एक थंका( तिब्बती धार्मिक चित्र कला) चित्रकार थे. थंका के हर मॉतिफ के साथ एक आख्यान जुड़ा रह्ता है.बचपन में नाना जी से बहुत से किस्से सुनता था. जो कि धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण न होते हुए भी लोक तत्व से सराबोर होते थे.तिब्बत की कुछ कम्युनिटीज़ मे तो शव के टुकड़े कर गीध को खिलाने की परंपरा भी है. मान्यता है कि इस से मृतक को मुक्ति मिलती है. अब तो धुँधली स्मृतियाँ ही शेष हैं.इधर बौध मोनेस्टिक व्यवस्था में जटिलता के साथ कट्टरता ज़्यादा आई है. आज के बौद्ध भिक्षु के पास बुधिस्म के हर पहलू की एक साम्प्रदायिक व्याख्या है. इस से लोक संस्कृति का एक व्यापक क्षेत्र क्षतिग्रस्त हुआ है.....मेरा सपना था कि अपनी कविताओं में इसे बचाऊँ. यह कथिन काम है... फिर भी. आप की टिप्पणी ने मेरा ध्यान फिर से इधर खींचा है आभार.उधर आप के मारू में भी गीध को ले कर क्या मिथक हैं ?
अजेय जी मैं भी माफ़ी चाहता हूँ कि आपकी टिप्पणी को देर से देख पाया और कुछ देर अपनी तरफ से भी कर दी.
ReplyDeleteगिद्ध को यहाँ अब तो गिद्ध ही बोलने का चलन है पर इसको यहाँ गिरज भी कहा जाता था.गाँवों में अभी भी शायद बोला जाता हो.कुछ कहावतें ज़रूर इसे लेकर है पर मारवाड़ में लोक परम्पराओं में इसका केन्द्रीय चरित्र नहीं है.समाज की लघु परम्पराएं ख़त्म हो रही हैं.कई लोक देवियाँ दुर्गा का रूप मान ली गयी हैं और देवता शिव या विष्णु का.काफी कुछ पौराणिक हिन्दू धर्म के भीतर आ गया है.पर अपनी विशिष्टताओं को कुछ कुछ बचाकर.
नायाब सूचना. गिर्ज /गृझ शब्द सुना सुना सा है. शायद लाहुल की ही किसी बोली में . कंफर्म कर के बताता हूँ.25 हज़ार की जन् संख्या वाले लाहुल क्षेत्र में सात बोलियाँ हैं. जिन मे से दो शायद आर्य भाषा परिवार की हैं. विजेन्द्र जी कह रहे थे कि राजस्थान में जाख - जाखणी शब्द भी प्रचलित हैं. यक्ष- यक्षणी के लिए. यहाँ भी है. यह रोचक है. यहाँ की जोगणियाँ, वीर(पीर), नाग, बुहारी, नारण, खोड़्देव, केलिङ, आदि ग्राम देवता धीरे धीरे शिव, दुर्गा, विष्णु आदि बन गये हैं.
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