पता नहीं हम कविता के घुन्ने पण्डित कविता को कहाँ कहाँ खोजते फिरते हैं .... लेकिन कविता हमें अक्सर वहाँ दिखाई दे जाती है जहाँ हम उस के होने की कोई उम्मीद नहीं करते। हाल ही में अनुनाद और एक ज़िद्दी धुन पर गौतम राजरिषि से हुई रोचक काव्य चर्चा के दौरान तथा बाद में उन का ब्लॉग खंगालते हुए मुझे हिमालय के सीमांत बंकरों में अद्भुत संवेदनाएं बिखरी मिलीं. मैं सचमुच अभिभूत था। आज उन्हे अपनी यह कविता समर्पित कर रहा हूँ. आरंभ में इसे एक कविता के महा पंडित संपादक ने " लय नहीं बन रहा " का बहाना बना कर ऊपर नीचे से काट कर छाप् दिया था। कविता लिटरली बेसिरपैर हो गयी. उन के इस क़ृत्य ने मुझे सदमे की स्थिति में पहुँचा दिया। मैं ज़बरन उन पंडित जी के लय को पकड़ने के प्रयास में अपनी अन्य कविताएं भी बिगाड़ने लग पड़ा. भला हो पहल के संपादक ज्ञान रंजन जी का कि अंक- 85 में यह कविता मूल रूप में छाप कर मुझे इस मतिभ्रम से उबरने में मदद की. उन्हो ने हिदायत दी कि तुम अपनी लय में जियो, उसी में लिखो.... बाद में विजय गौड़ ने लिखो यहाँ वहाँ में इसे बहतरीन तरीक़े से प्रस्तुत किया.... पहल और लिखो यहाँ वहाँ से साभार इस कविता को यहाँ लगा रहा हूँ, इस आशा के साथ कि गौतम इसे हिमालय के अपने साथी पहरुओं तक पहुँचाएंगे. जय हिन्द !
मेन्तोसा पर एडवेंचर टीम
पैरों तक उतर आता है आकाश !
यहाँ इस ऊँचाई पर
लहराने लगते हैं चारों ओर
धुंधराले मिजाज़ मौसम के
उदासीन
अनाविष्ट
कड़कते हैं न बरसते
पी जाते हवा की नमी
सोख लेते हैं बिजली की आग।
कलकल शब्द झरते हैं केवल
बर्फीली तहों के नीचे
ठंडी खोहों में
यदा-कदा
अपने ही लय में
टपकता रहता है राग।
परत-दर-परत खुलते हैं
रहस्य
अनगिनत अनछुए बिम्बों के
जिन में सोई रहती है
ज़िद
एक छोटी सी कविता लिख डालने की।
ऐसे कितने ही धुर् वीरान प्रदेशों में
निरंतर लिखी जा रही होगी
कविता
खत्म नही होती,दोस्त ....................
संचित होती रहती है वह तो
जैसे बरफ
विशाल् हिमनदों में
शिखरों की ओट में
जहाँ कोई नही पहुँच पाता
सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के
सूरज भी नहीं ।
सुविधाएं फुसला नही सकती
इन कवियों को
बहुत गहरे में जो
नरम और खरे हैं
और अड़े हैं
संवेदना के पक्ष में
गलत मौसम के बावजूद
छोटे-छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं में
करते प्रेमिका का स्मरण
नाचते-गाते
घुटन और विद्रूप से दूर
दुरुस्त करते तमाम उपकरण
लेटे रहते हैं अगली सुबह तक
स्लीपिंग बैग में
ताज़ी कविताओं के ख्वाब सँजोए
जो अभी रची जानी हैं।
मेंतोसा - . लाहुल की मयाड़ घाटी में एक पर्वत शिखर(ऊँचाई 6500मी0)
मेन्तोसा पर एडवेंचर टीम
पैरों तक उतर आता है आकाश !
यहाँ इस ऊँचाई पर
लहराने लगते हैं चारों ओर
धुंधराले मिजाज़ मौसम के
उदासीन
अनाविष्ट
कड़कते हैं न बरसते
पी जाते हवा की नमी
सोख लेते हैं बिजली की आग।
कलकल शब्द झरते हैं केवल
बर्फीली तहों के नीचे
ठंडी खोहों में
यदा-कदा
अपने ही लय में
टपकता रहता है राग।
परत-दर-परत खुलते हैं
रहस्य
अनगिनत अनछुए बिम्बों के
जिन में सोई रहती है
ज़िद
एक छोटी सी कविता लिख डालने की।
ऐसे कितने ही धुर् वीरान प्रदेशों में
निरंतर लिखी जा रही होगी
कविता
खत्म नही होती,दोस्त ....................
संचित होती रहती है वह तो
जैसे बरफ
विशाल् हिमनदों में
शिखरों की ओट में
जहाँ कोई नही पहुँच पाता
सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के
सूरज भी नहीं ।
सुविधाएं फुसला नही सकती
इन कवियों को
बहुत गहरे में जो
नरम और खरे हैं
और अड़े हैं
संवेदना के पक्ष में
गलत मौसम के बावजूद
छोटे-छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं में
करते प्रेमिका का स्मरण
नाचते-गाते
घुटन और विद्रूप से दूर
दुरुस्त करते तमाम उपकरण
लेटे रहते हैं अगली सुबह तक
स्लीपिंग बैग में
ताज़ी कविताओं के ख्वाब सँजोए
जो अभी रची जानी हैं।
मेंतोसा - . लाहुल की मयाड़ घाटी में एक पर्वत शिखर(ऊँचाई 6500मी0)
अजेय कविता के पंडितों-महापंडितों के चक्कर में जो आया वो कहीं का नहीं रहा. प्रथमतः और अंततः एक कवि ही तय करेगा कि उसे क्या करना है. तुम कविता में और बहस में भी अद्भुत ढंग से ईमानदार हो- मैं जीवन भर तुम्हारे इस जज़्बे को सलाम करूंगा. एक प्यारा कवि, एक प्यारा दोस्त और कविता पर बहस का एक उतना ही प्यारा तलबगार. यह कविता बहुत बड़े क़द की कविता है. अपने रचनास्थल की ही तरह बड़ी. गौतम से परिचय कुछ ही दिन पहले ही हुआ है- पर उससे एक गुपचुप और गुनगुना रिश्ता २००४ से है. हमारे इस प्यारे मेजर को भी मेरा सलाम.
ReplyDeleteकविता पर जिस रोचक बहस का आपने ज़िक्र किया है उसका मैं भी मुग्ध-भाव साक्षी हूँ.शिरीष जी ने कविता को जिस पंडिताई से बचाने की बात कही है,मैं भी विनम्रता से कहता हूँ कि कविता पांडित्य का मामला ही नहीं है.ये ज़ज्बा ज्यादा है जो 'धुर वीरान प्रदेशों' में भी जिद की तरह सामने आता है और सदियों की जमी बर्फ के भीतर कहीं कल-कल निनाद करता है.
ReplyDeleteब्लॉग जगत में आप लोगों से जुड़ाव मेरे लिए एक निरंतर समृद्ध करने वाला अनुभव है.मेजर और आप दोनों को सलाम.
कविता तो मन से पहाड़ी स्रोत या झरने सी फूटती हैं। उन्हें बाँधना उनके नैसर्गिक सौन्दर्य को मिटाने जैसा है। सुन्दर कविता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
उफ़्फ़्फ़्फ़्फ़्फ़!
ReplyDeleteस्लीपिंग-बैग का इतना बेहतर बिम्ब के तौर पर इससे पहले शायद ही किसी कविता या किसी भी रचना में इस्तेमाल हुआ होगा...
दिल के करीब, हृदय में उतरती कविता। मेरे बहुत से दोस्त सचमुच इस कविता से रु-बरु होंगे कल-परसों और आने वाले दिनों में।
आप यकीन करेंगे कि इस देर रात गये कविता की आखिरी पंक्तियों ने पलकें नम कर दी हैं। ये होती है कविता की पहुंच कि इतनी दूर गये कश्मीर के इस सुदूर सैन्य-चौकी पर लैप-टाप के स्क्रीन बहरायी एक कविता रुला जाती एक जोड़ी आँखों को....
शुक्रिया अजय जी!
Kuchch hat ke (lekin saarthak) karo to log hata-hata ke dhekhenge. Thik ja rahe ho Ajey Bhai. Panditon-vanditon ke chakkar mei na hi pado to achcha.Sirf andar ki awaj suno.Ek behtarin kavita ke liye badhai. Kavita ki akhiri panktiyan padhkar mujhe apna ek sher yaad aaraha hai:
ReplyDeleteANKAHE SHABDON SE MUJHKO PYAAR HAI/ JINSE KHULNE KO NAYA SANSAR HAI.
Isi ghazal ka ek aur sher hai:
PUCHCH MAT, MERI UDAASI KA SABAB/ DEKH MERE HAATH MEI AKHBAAR HAI.
Lage raho Ajey Bhai
KUMAR VINOD
एक बहुत संवेदनशील कविता के लिए बधाई अजय जी. शिरीष जी, संजय जी और गौतम जी टिप्पणियां कितना कुछ कह रही हैं, मैं क्या कहूं.....अभी कविता को बार बार पढूंगी. क्या आपका कोई संकलन प्रकाशित है? कहाँ से ?
ReplyDeleteदो दिन, छह टिप्पणियाँ, दो बूँद आँसू.... इस अपार स्नेह को कहाँ सहेज रखूँ? थेंक्स दोस्तो. हम ऐसे ही प्यार बाँटते रहें. इसी बहाने पुराने दिन याद आ गए.. जब खूब जीता था, खूब लिखता था .... आँसू तो आते ही नहीं थे! क्या वक़्त रोना सिखा देता है आदमी को?
ReplyDelete# रगिनि, अभी इतना क्या लिखा है मैंने कि संग्रह बनाऊँ. असल बात तो अभी लिख ही नही पाया हूँ.
padhkar accha laga
ReplyDeleteदिल को छू गयी आपकी कविता.
ReplyDelete-बधाई.
अजेय
ReplyDeleteयार आज आप से तुम की यात्रा पूरी कर ले रहा हूं और जानता हूं कि उम्र में बड़े होने के बावज़ूद तुम बुरा नहीं मानोगे।
मै नहीं जानता कि कविता के पंडित कौन हैं-- पर पंडितों के परिवार से होने के कारण इस पूरे पंडिताई के खेल को खूब जानता हूं। इसीलिये चाहे कोई हो कभी कविता पर कैंची चलाने की इज़ाज़त नहीं देता।
तुम भी मत देना-- कभी नहीं मेरे भाई। कवि और उसके पाठक के बीच आने की हैसियत किसी की नहीं है।
आदरणीय अजेय भाई,
ReplyDeleteकविता पर भाई हरनोट ने जो प्रतिक्रिया दी है, वह आपके प्रति उनका स्नेह है. पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी लिखो और ब्लॉग के लिए भी. इच्छा अपनी होनी चाहिए. मेरा मानना है कि अपनी प्रसन्नता पर दूसरे का हस्तक्षेप न हो. ब्लॉग सचमुच ग्लोबल है. इसका दायरा असीमित है....... रत्नेश
आदरणीय भाई अजेय,
अंग्रेजी नव-वर्ष पर मौसमी कविता पढ़ी थी, इसलिए फ़ोन भी किया था और सहज-सरल शब्दों में उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त कर दी थी. पता नहीं वह प्रतिक्रिया कैसी लगी. शुरू-शुरू फ़ोन पर बात करते समय आपकी आवाज बर्फ में जमी-सी लग रही थी, पर बाद में आपसे ही पता लगा कि केलोंग में उतनी बर्फ नहीं थी कि अजेय की आवाज जम जाये. अब क्या करें भाई साहित्य को लेकर मैं कभी इतना संजीदा नहीं हुआ. मजाकिया मूड में रहता हूँ. अतः कई बार मेरी असाहित्यिक टिप्पणियों से गंभीर किस्म के साहित्यकार क्षुब्ध हो जाते हैं. पर मेरी आदत बदलनेवाली नहीं है क्योंकि अपना क्षेत्र शरीर-विज्ञान रहा है. शरीर के अन्दर स्थित रहस्यमयी नालिकविहीं ग्रंथियों के प्रति सजग रहता हूँ. लिहाजा साहित्य को लेकर विक्षिप्तता के हद तक जाने का प्रश्न ही नहीं उठता. कविता-कहानी लिखते हैं तो लिखें मेलान्कोली न हो तो अतिउत्तम है. धार्मिक होना भी अच्छी बात है, पर इतना भी धार्मिक न हों कि मनोरोग-विशेषज्ञ को रिलिजिऔस मेलान्कोली कहना पड़े.
आपके ब्लॉग में यह नयी कविता थी, इसलिए पढ़ पाया. किसी नामीगिरामी पत्रिका में छपी होती तो शायद देख नहीं पता. हर हफ्ते घर पर इतनी पत्रिकाएं आ जाती हैं कि उन्हें ही कई बार पढ़ नहीं पाता. अजेय केलोंग से बताता कि मेरी कविता अमुक पत्रिका में छपी है...... तो भी शायद उस पत्रिका तक पहुँचने कि जहमत नहीं उठा पाता. आप वहाँ पहाड़ में मजे से हो. इतना ही काफी है. ब्लॉग में कविता देख कर ऐसा लगा कि केलोंग कि में बर्फ़बारी के बाद वादियों में घूमने निकला हूँ या फिर जैसे कविता बर्फ कि परतों पर लिखी गयी हो. अब तो आदिवासी ही जंगल, पहाड़ और पानी बचाकर रखेंगे. आजकल टीवी पर आईडिया फ़ोन का एक विज्ञापन आ रहा है. आप शायद विश्वास नहीं करेंगे कि इस विज्ञापन के आने के पहले ही मेरे दिमाग में एक बचकाना ख्याल उभरा कि पर्यावरण बचाना है तो अब पत्र-पत्रिकाओं को भी बंद हो जाना चाहिए, अगर पेड़ों को काटकर कागज़ बनाया जा रहा हो तो. साहित्य से भी जरूरी अब पर्यावरण-संरक्षण है. पत्र-पत्रिकाओं के नाम पर न जाने कितनी रद्दी का निर्माण हो रहा है.
दूसरी बात कविता-कहानी लिखो और उसे छपवाने के लिए किसी संपादक पर उसका निर्णय छोड़ दो. संपादक भी ऐसे-ऐसे बैठें हैं कि माशाल्लाह.
कविता लिखकर आपको जितनी स्फूर्ति मिली होगी, संपादक का निर्णय उसमे पानी फेर देगा. यार, कविता लिखकर जितनी प्रसन्नता मिलती है, कम से कम उसे तो सहेज कर रखो. अपना ब्लॉग लिखना भी एक तरह से अपनी खुसी को सहेजना है. बहरहाल मैंने अब तक ब्लॉग लिखना शुरू नहीं किया है. साहित्य में क्या कुछ हो रहा है, सबको पता है. सब अपने-अपने मोहरे चल रहें है. .... रतन चंद 'रत्नेश',