Monday, June 20, 2011

उनका देखना तो मुझ जैसे के देखने से बहुत-बहुत अलग है


विजय गौड़ सुपरिचित हिन्दी साहित्यकार तो हैं ही ; हिमालय के सच्चे प्रेमी और जुनूनी यायावर भी हैं. उन का मानना है कि हिमालय को करीब से, और आत्मीयता पूर्वक देखने लिए ट्रेक्किंग ज़्यादा भरोसेमन्द हैं; बनिस्बत आयोजित पर्यटन के. आप लोग उन्हे यहाँ पहले भी पढ़ चुके हैं. इस बार उन के रक्सेक से कुछ नई कविताएं चुरा लाया हूँ. इस उम्मीद के साथ कि जुलाई 2011 मे प्रस्तावित दुर्गम बातल- चन्द्रतालबरलचा- सूरजताल ट्रेक के ठीक पहले उनकी खुद की ये कविताऎं उन्हे ऊर्जा प्रदान करेंगी.






यात्रा में होने जैसा


यात्रा पर निकलने से पहले
सब कुछ तय कर लेते हैं
कहां, कहां जाना है, क्या-क्या देखना है
मिलना है किस-किस से

रुकना है कितने दिन कहां पर
और और आगे बढ़ जाना
कितना खाना खाना है
कितने कपड़ों की जरुरत होगी
हर दिन के हिसाब से
धो-पोंछ कर पहनने के बाद भी
आपात स्थिति यदि कोई आ जाए तो
निपटने के लिए

इतना मेरा देखा-देखा है
उनका देखा इससे भी ज्यादा है

यात्रा पर निकलने से पहले वे तो
कुछ भी नहीं सोचते
बस तैयार मिलता है सब कुछ वैसा-वैसा
मानो यात्रा में हों ही नहीं घर पर ही हों
उनका देखना तो मुझ जैसे के देखने से
बहुत-बहुत अलग है
पूछो तो कहेगें ही नहीं यात्रा में हैं
बस बिजनेस के सिलसिले में
या कोई-कोई सरकारी यात्रा पर हैं
मुम्बई, चैन्ने, दिल्ली, कोलकाता
कभी-कभी तो अरब भी
अमेरिका, ब्रिटेन में तो है ही घर
खुद का ही समझो, बच्चे हैं तो
आना-जाना लगा ही रहता है
यात्रा में तो होते ही नहीं वे
यात्रा में होने जैसा भी होता नहीं
कुछ उनके पास
न गठरी न ठठरी

गठरी और ठठरी से लदे फन्दे
जिनकी उपस्थिति उछलता शोर होती है
यात्रा करने वालों पर तो
न जाने किन-किन की निगाहें हैं
उनके दब्बूपन में तो ऐसा भी नहीं कि
सलाम कह सके उन्हें जिनके नाम से ही
जाना जाता इलाके का नाम
गठरी में होता है रेहड़ी, खोमचा, रिक्शा
टैक्सी में बैठे हुए तो वे मान ही लेते हैं कि उनका नाम
बस ओये टैक्सी है

मेरा देखा-देखा तो बस इतना है
सलाम उनको जो इससे ज्यादा देखते हैं

7 comments:

  1. सच यही है कि जाने से पहले लौटने का रिजर्वेशन करा लेने वाली यात्रा में कुछ नया मिल पाना कभी संभव नहीं होता...यायावरी तो कुछ और ही है!

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  2. मैंने भी काफी ट्रेकिंग की हैं हिमालय में ...और पर्वतों को, और भीडभाड से मीलों मीलों दूर प्रकृति की गोद से नैसर्गिक सुंदरता का अनुभव किया है... बनी बनायीं और गाड़ी हवैजहज की यात्राओं में वो खुशी नहीं जो यायावरी में है... कविता मुझे उन समय में वापस ले जा रही है ..जहाँ हम ट्रेकिंग कर रहे होते है..बहुत सुन्दर कविता..

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  3. यात्रा में शायद अब दूरी का मह्तत्व उतना नहीं रहा जितना इस बात का कि यात्रा किसी नयी बात को नयी प्रक्रिया को जान लेने का बहाना हो. जितनी सुनियोजित यात्रा होती जा रही है, अब उसमे कहीं जाने की प्रक्रिया लगातार गायब होती जाती है. मेरा कहीं जाना फिलहाल कहीं मध्यमार्ग में होता है. ट्रेवेल के बीच छोटे एक्सप्लोर करने के अवसर ढूंढते जाना.
    विजय को शुभकामनाएं, उम्मीद है उनके अनुभव का कुछ हिस्सा हम तक पहुंचेगा.

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  4. ve jo yatra karte hai vah yatra jaisi hoti hai ham ek aur intzaam karte hain. ek baar ham sabzi lene ghar se nikle aur haridwar pahunch gaye. na kapde the na kuchh aur. yaqin maniye utna aanand kisi anya yatra me nahi aaya. yaayavari hone ke anoothe sukh hain. sundar kavita ke liye badhai.

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  5. yatra aur yayavari ke bich ka fark jis khubsurati aur shiddat se vijay bhai ne bayan kiya hai isko sahaj dhang se vahi samajh sakta hai jo jiwan men atirek aur khilandadpane ko sthan deta ho...main ab bhi mahsus karta hun,aj se tis sal pahle khel khel men roorkee se haridwar cycle se chale jane ka maja aur vahan ganga men naha kar gile kapdon ko ghante bhar men sukha dalne ka sukh aj ki airconditioned car men soch samajh kar ki jane vali yatra men a hi nahin sakta...kabhi apke sath chalunga vijay bhai.

    yadvendra

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  6. Ajay ji aise chori karte rahiyega abhi bahut kuchh chhupa rakha hai vijya ne apne bag mai...

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  7. अब वैसी यात्राएँ है भी कहाँ। घर बैठे लौटने तक का रिज़र्वेशन करा लो, तय है सब कुछ। अच्छी कविता....

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