Tuesday, March 16, 2010

भाषा - गणेश देवी का शो (शा)

मार्च 8,9,10 को वडोदरा गुजरात में ‘भाषा’ नामक संस्था का महा सम्मेलन था. ‘भाषा’ आदिवासी कल्याण से जुड़ा एक ‘गैर राजनीतिक’ ट्रस्ट है जो गुजरात के जनजातीय क्षेत्रों में विशेष रूप से सक्रिय है तथा इस संस्था को महाश्वेता देवी का वरद हस्त प्राप्त है. इस के कर्ता धर्ता डॉ. गणेश देवी तथा उन की धर्मपत्नी डॉ सुरेखा देवी हैं. डॉ. देवी का मानना है कि इस देश में सुनियोजित तरीक़े से ‘लोक की ज़ुबान काट दी जा रही है’. और ‘भाषा’ इसी के विरुद्ध अभियान है. ये लोग पठन पाठन का सरकारी धन्धा त्याग कर फुलटाईम एक्टिविस्ट बन गए हैं.इन्हों ने भारत की लुप्त होती लोक भाषाओं के व्यापक सर्वेक्षण , संरक्षण, संवर्धन्,तथा दस्तावेज़ीकरण के उस भगीरथ परियोजना को अमली जामा पहनाने का बीड़ा उठाया है जो किन्हीं राजनीतिक कारणों के चलते CIIL जैसी संस्थाएं नहीं कर पा रही. इस का एक रोचक पहलू यह है कि लोकभाषाओं के साथ साथ अभिव्यक्ति के अन्य् लोक् माध्यमों पर भी ये लोग काम करना चाहते हैं.
हिमाचल में ‘हिमलोक’ नाम से इस की एक शाखा खोल दी गई है. यहाँ के क्षत्रप संभवतः चर्चित आर्ट हिस्टोरियन डॉ. ओम चन्द हण्डा होंगें. ‘पहाड़’ के सम्पादक शेखर पाठक के जुड़ाव को देखते हुए ऐसा लगता है ‘हिमलोक’ का कार्य क्षेत्र मध्य हिमालय तक, बल्कि उस से भी आगे सुदूर पूर्वोत्तर तक फैल जाने वाला है.....

बहरहाल , मैं वहाँ क्यों था?
यह प्रश्न मेरे एक प्रिय कवि मित्र का था. प्रश्न साधारण सा है. लेकिन उत्तर बड़ा पेचीदा है. इस के पेचो-खम खुद
मुझे परेशान किए हुए हैं. दर असल मैं वहाँ एकाधिक कारणों से था.

1. लाहुल के इतिहासकार तोबदन जी चाहते थे कि मैं वहाँ जाऊँ. और तोब्दन जी की हफ्ते भर की कंपनी मैं नहीं मिस करना चाहता था. एक कवि को इतिहास से बहुत कुछ लेना पड़ता है. कविता इतिहास से समृद्ध होती है. लेकिन कविता वह सब कह सकती है जो इतिहास जानते हुए भी नहीं कह पाता. और मुझे वहाँ बहुत कुछ मिला जो इतिहासकारों और भाषाविदों से छूट गया था. वह सब कुछ समेट लाने के लिए मैं वहाँ था.

2. ‘भाषा’ के एक कार्यकर्ता मिस्टर विपुल से मेरी गहरी आत्मीयता है. जब भी मिलते हैं या फोन पर बात होती है, मुझे तेजगढ़ आमंत्रित करते हैं. शायद विपुल को अन्दाज़ा था कि तेज गढ़ के जंगलों में मेरी कविता को सुकून मिलेगा.
3. मुझे जीते जी सम्पूर्ण भारत देखना है. और गुजरात उस का एक चमचमाता हिस्सा है. इस लिए मैं वहाँ था.
4. आज के दौर में जब कि आप का साँस लेना भी आप की राजनैतिक गतिविधि में शुमार हो जाता है , मैं देखना चाहता था कोई संस्था बिना राजनीति से प्रभावित हुए कैसे अपना काम करती है? इस लिए भी मैं वहाँ था.
5. और असल वजह तो यह थी कि मैंने इस से पहले कभी रेल गाड़ी से सफर नहीं किया था. कवि-आलोचक विजय कुमार ने कुछ वर्ष पूर्व थिरुवनंथपुरम में इस पर गंभीर चिंता प्रकट की थी. मैं यह मौका नहीं छोड़्ना चाहता था. इस लिए भी मैं वहाँ था.

यह तो था पूर्व निर्धारित एजेंडा,जिस के चलते मेरा वडोदरा में होना तय हुआ. इस के अलावा बहुत सारी चीज़ें मुझे वहाँ मिलीं जिन्हें पा कर मुझे लगा कि मैंने वहाँ जा कर अच्छा किया. वहाँ विभिन्न भाषाएं बोलने वाले लगभग 320 समुदायों के प्रतिनिधि आये थे. इन में कुछ साधारण लोग थे, कुछ भाषाविद, कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाह और अकादमीशियन , तो कुछ शुद्ध् पॉलिटीशिअन. हिमालय के प्रवक्ता हिमालय के पर्यावरण और भू-राजनैतिक समस्याओं पर ज़ोर दे रहे थे.साथ में यह भी कहा कि हमारे यहाँ एक नेपाल भी है और एक अदद तिब्बत भी. लेप्चा (सिक्किम) तथा भोटी ( लद्दाख) के प्रतिनिधि सीधे सीधे अपनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात कर रहे थे, जो कि ‘भाषा’ के एजेंडे में दूर दूर तक शामिल नहीं था. पूर्वोत्तर राज्यों के प्रतिनिधियों की चिंता भाषा से अधिक नस्लों, कबीलों, और गोत्रों की सुरक्षा को ले कर था. भारतीय नागरिकता और माईग्रेशन की समस्या को ले कर था. मध्य भारत के कबीलों का मुद्दा उन की अस्मिता का संकट था. सवाल यह था कि वे अपना उपनाम गोण्ड लिखें, कोया लिखें, सर्गुजिया लिखें......या कि अधुनातन फेशन के मुताबिक आदिवासि / मूलनिवासी लिखें. संथाल और मुण्डा तीन दिन नाचते रहे. डॉ. राम दयाल मुंडा ने कहा कि नृत्य ही हमारी भाषा है. कुछ भाषाओं के प्रतिनिधि बन कर कुछ दूसरे ही समुदायों के लोग उपस्थित थे जिन्हें वह भाषा बोलनी भी नहीं आती थी. लब्बो लुबाव यह कि साधारण प्रतिभागी के सामने न तो ‘भाषा’ का एजेंडा स्पष्ट था , न ही अपना. जब कि विद्वत्जन भाषा की राजनीति डिस्कस कर रहे थे. कश्मीरी को उर्दू ने खा लिया था. उर्दू को हिन्दी ने.आप्रवासी सिन्धी पता नहीं कब और् क्यों हिन्दी बन गई थी, जबकि आप्रवासी पंजाबी , पंजाबी बनी रही. मैं ने बात काटते हुए नागरी प्रचारिणी सभा और खालिस्तानी उग्रवाद में संघ की भूमिका का ज़िक्र छेड़ दिया तो एक महाशय ने बुरा सा मुँह बना दिया. उधर हिन्दी को अंग्रेज़ी निगल रही थी. द्रविड़ भाषाओं की किसी ने सुध नहीं ली. न ही उन के प्रतिनिधि नज़र आए. पूर्वोत्तर की भाषाओं को बाँग्ला से खतरा था. जब कि हिमाचलियों ने बिल्कुल शिकायत नहीं की कि उन्हे पंजाबी से खतरा था. यह भी मालूम हुआ कि हिमाचली शांतिप्रिय और शरीफ लोग होते हैं.
पूरे आयोजन में ग्रियर्सन साहब को जम कर कोसा गया. जिन्हे भाषा विज्ञान का *क ख ग * भी मालूम नहीं वे भी ग्रियर्सन के काम में मीन मेख निकाल रहे थे. कहा गया कि एक वृहद पुनर्सर्वेक्षण हो. जिस में अंग्रेज़ों की गलतियाँ न दोहराई जाएं. ख्वाब अच्छा था, लेकिन यह होगा कैसे? एक बंगाली प्रोफेस्सर् साहब ने बड़ी मेहनत से कार्य सूची बनाई थी .अपने लेपटॉप से पढ़ कर सुनाया. उस में दम था. व्यवहारिक अप्रोच था. लेकिन जब हमने उस प्रेज़ेंटशन की प्रति माँगी तो पता चला कि भाषण एक्स्टेम्पोर था. लेपटॉप तो प्रोफेस्सर साब दिखाने के लिए ले आए थे...... ( कोई लेटेस्ट विदेशी मेक होगी, भारत में पहला या दूसरा) . खैर ये तीन मस्त उत्सवधर्मी दिन थे. खूब मौज मस्ती, खूब खाना खज़ाना, यात्रा का किराया भी रिएंबर्स हो गया. लेकिन अंत में खाली टी. ए. क्लेम फॉर्म पर दस्तखत लिए गए. हमारे सौ –हज़ार रुपयों से भाषा जैसी संस्था प्रॉपर्टी नहीं खड़ा करेगी, लेकिन विश्वसनीयता के लिए पारदर्शिता ज़रूरी है. मेरी कविता को सुकून तो नहीं मिला पर उस में कुछ ज़रूरी पंक्तियाँ जुड़ गईं.....

“कविता का भोलापन तेजगढ़ के राठवों में कविता के छिले तलुए बदहवास तपते डूँगरों पे
कविता की खोहों से छूट निकली कितनी ही आदिम यादें
आज कैसे जुट गईं ‘भाषा’’ के सपने में
अचानक , इस तरह ?”
और शेखर पाठक के वे शब्द तैर रहे हैं स्मृति में....... कि “ बड़े सपने सभी को नहीं आते’’. गणेश देवी ने सचमुच एक बड़ा सपना देखा है. मालूम नहीं इसे पूरा कौन करेगा? यह एक प्रश्न था जिस का उत्तर खोजने के लिए मैं वहाँ था. जवाब में मुझे मिला- एक चमचमाता सिक्स लेन एक्स्प्रेस् हाईवे, आलीशान माल और मल्टीप्लेक्स , एक अनगढ़् डूँगर पर लगभग हाँक दिए जा रहे राठवा बच्चों के छिले हुए पैर, उनकी आँखों की गीली कातरता, और एक एक प्यारा सा गीत.... इस धरती की कसम, ये ताना –बाना बदलेगा !