एदुआर्दो गालेआनो (जन्म उरुग्वे,1940- ) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातिनी अमेरिकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं। लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि "लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है"। यह अनुवाद उनकी किताब Patas arriba: la escuela del mundo al revés (1998) (पातास आरिबा: ला एस्कुएला देल मुन्दो अल रेबेस- उलटबांसियां: उल्टी दुनिया की पाठशाला) का एक हिस्सा है। यह किताब ‘ग्लोबलाईज्ड’ समय के क्रुर अंतर्विरोधों और विडंबनाओं का खाका है जो भारत सहित तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के देशों के लिये बहुत मौजूं है।
इस किताब का अनुवाद जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के लातिन अमेरिकी साहित्य के शोधार्थी पी. कुमार मंगलम कर रहे हैं। समयांतर के अक्टूबर,2011 के अंक में गालेआनो के लेख का उनका किया हिंदी अनुवाद छप चुका है।
"किसी जगह काम करने वाले लोगों को हमेशा ऊपर के बाबुओं की जी हुजूरी करनी चाहिए, उसी तरह जैसे औरतों को पुरुषों की बात माननी ही चाहिए। कुछ लोगों का जन्म ही हुक्म देने के लिये होता है।
जिस तरह किसी व्यक्ति के पुरुष होने भर से उसे महिलाओं पर हुकुम चलाने का अधिकार मिल जाता है, उसी तरह रंगभेद भी किसी खास रंगवाले परिवार में जन्म लेने भर से किसी का जीवन भर औरों से नीचे और कमतर रहना तय कर देता है । यह वैसे ही है जैसे गरीबी के लिये शोषण की ऐतिहासिक प्रक्रिया को नहीं, बल्कि गरीबों को ही जिम्मेवार ठहरा दिया जाता है। यह बताया-सिखाया जाता है कि गरीबी और रंगभेद के मारे लोग तो अपना यही नसीब लेकर पैदा होते हैं। यह सब कुछ यहीं नहीं रुकता। यह भी मान लिया गया है कि समाज के हाशिये पर फेंके गए ये लोग स्वभाव से ही अपराधी होते हैं। ऐसे में काली चमड़ी के किसी गरीब के दिखते ही अपराध और डर का भयानक माहौल बना दिया जाता है।"