Saturday, November 15, 2014

बच्चो हमने तुमसे झूठ कहा था

मित्र धीरेश सेनी की फेस्बुक वाल पर एक एक शानदार और ईमानदार  कविता  मिली . बच्चो , देरी से पोस्ट करने के लिए क्षमा चाहता हूँ ! हेप्पी चिल्ड्रेंज़ डे ! 



बच्चों के लिए एक चिट्ठी

·         मंगलेश डबराल

प्यारे बच्चो हम तुम्हारे काम नहीं आ सके । तुम चाहते थे हमारा क़ीमती
समय तुम्हारे खेलों में व्यतीत हो । तुम चाहते थे हम तुम्हें अपने खेलों
में शरीक करें । तुम चाहते थे हम तुम्हारी तरह मासूम हो जाएँ ।
प्यारे बच्चो हमने ही तुम्हें बताया था जीवन एक युद्धस्थल है जहाँ
लड़ते ही रहना होता है । हम ही थे जिन्होंने हथियार पैने किये । हमने
ही छेड़ा युद्ध हम ही थे जो क्रोध और घृणा से बौखलाए थे । प्यारे
बच्चो हमने तुमसे झूठ कहा था ।
यह एक लम्बी रात है । एक सुरंग की तरह । यहाँ से हम देख सकते
हैं बाहर का एक अस्पष्ट दृश्य । हम देखते हैं मारकाट और विलाप ।
बच्चो हमने ही तुम्हे वहाँ भेजा था । हमें माफ़ कर दो । हमने झूठ कहा
था कि जीवन एक युद्धस्थल है ।
प्यारे बच्चो जीवन एक उत्सव है जिसमें तुम हँसी की तरह फैले हो ।
जीवन एक हरा पेड़ है जिस पर तुम चिड़ियों की तरह फड़फड़ाते हो ।
जैसा कि कुछ कवियों ने कहा है जीवन एक उछलती गेंद है और
तुम उसके चारों ओर एकत्र चंचल पैरों की तरह हो ।
प्यारे बच्चो अगर ऎसा नहीं है तो होना चाहिए ।

Thursday, October 23, 2014

हेप्पी दीवाली की पूर्व संध्या पर

बातचीत -3

  

ओहो ठाकुर साब आप !
हेप्पी दीवाली,  शर्मा जी !!
बड़े दिन हो गए दिखे नईं आप , हैं ?
काँह  होते हैं आज कल ?
बस नूरपुर की तरफ है चलाया है छोटा सा  काम  
तो दवाळी  आए होणे , हैं ?
कम ज्वाईन अस , सर जी
प्लेजेंट सर्प्राईज़,  हैं जी ?

वैसे दीवाली वगैरे कब से मना रहे है
हम और आप
मतलब क्या ट्रेडिशन , कब से ; कुछ आईडिया ?
ये तो बड़ी  अच्छी बात निकाली आप ने
इस पावन  अवसर पे
कि इसे तो बोलचाल में दीप माला कहते थे
और शुरू से ही ये चलन तो
अब देखिये आप
भले बकत में कुम्हार होते थे हमारे
गाँव में
सकरांति पर वही ले के आते थे
मिट्टी के छोटे छोटे दिए
बदले में अनाज अखरोट या ऊन देते थे हम
अब उन्होंने बनाना छोड़ दिया
तो क्या करें
जैसे के पिछली दफे
घरवाली ले के आई थी डेढ़ दो दर्जन
दुशहरे के मेले से
वाँह ढेर लगे रहते हैं
देखे होणे आप ने भी
जाने काँह से ले आते हैं
तो बस वही पड़म्पड़ा  है
उन्हीं दियों को जलाते हैं , बस !

अब नई जनरेसन का क्या है
वो तो मिठाईंयाँ , दावतें , पार्टियाँ हर कुछ है भाई साब !
मिठाईयाँ  तो बनती ही नहीं थी पहाड़ों में
हमारे ‘कड़ाह’ बनते थे पहले
जौ का आटा भूनते थे गुड़ और घी में
और घी भी कैसी
कोई मारकीट की नहीं
शुद्ध देसी गाय की
बस उसी का हलवा बनता था
उसी का भोग लगता था
देवता को भी
और हम भी वही खाते थे , हैं जी !
उसी से शुद्धी भी मानते थे
और बस यही था सिलसिला
पटाखे तो थे नहीं
और जुआ ?
यह कब से आया होगा ‘चलन’ में ?
पता नहीं,
मल्टीनेस्नल तो नहीं लाए कहीं ये सब ?
हे हे हे ...
मनाली में बड़ी  गेम चलती है , बोले !

वो तो ठीक बोले आप
बढ़ाया तो उन्हीं ने इस जुए का कारोबार
देखो हमारे तो गाँव में तीन पत्ता खेलते हैं
हज़ार हज़ार ‘बूट’ , बोलो !
पता नहीं कहाँ से चला आया इतना पैसा
मैं तो हैरान कस्सम से
और छोकरे जनाब बिल्कुल
पंदरा पंदरा , ठारा ठारा के , इत- इतने से
बैठे हैं
बाजी चली वी है
सब कुछ चला वा है

अरे , मल्टीनेशनल क्या है इस में
यह हमारा बहुत  पुराना निकम्मा पन था
हिंदु स्थान  का
सामंती सोच थी एक
बैठे ठाले कमाने की
हौर , हौर ...
परम्परा है जनाब क्या बात करते हैं
माहभारत  उसी के ऊपर हो गया था
राज छिन गया
जनानियाँ छिन गईं
भाई भाई कट मरे थे

पर मेरा मतलब ये था कहणे का
कि शुरुआत कैसे हुई होगी ?
देखो जी हुआ तो सब ‘लच्छमी’ कर के , पक्का !
ओहओ,  तो भई ये राम रावण की कथा में ,
लच्छमी क्यों कूद गई ? हैं ?
जेह बताओ तुम मेर को
कि राम को याद करना है कि लच्छमी को ?  बोलो ?
मतलब गौर करने की है बात,  वैसे....
सच को !
और ये धन तेरस तो भौत बाद में सुणा हम ने
जब से फिलमे आईं और टी वी आया
कडवा चौत और मंग़ड़ सूत और लेणा देणा  सब आया फैसन में
वाक़ई! सच कहा आप ने
बहुत बाद में भाई जी , भौत बाद में !

परम्पराएं तब बनती हैं  जब फैशन ले के आता है उन्हें
है कि नहीं ?
भई मेरा तो यह है मानना
ये बाज़ार लेके आता है बहुत कुछ
हम्म्म्म्म्म्म्म्म्म .............

पंडत  जी, बाज़ार में तो घुसा हुआ है चाईना
पेपर नहीं पढ़ते आप ?  
और रेडियो भी बोल रहा था
चीनी पटाका,  जितना सस्ता
उतना खतरनाक !
स्वदेशी तो स्वदेशी होता है जनाब

अपणे रामदेव ने नहीं बणाया होणा कोई स्वदेशी आयुर्वेदिक पटाका ?
क्खि ..क्खि .. खि .....
हे हे हे .... हो हो हो ...
वो तो रामलीला मैदान से भागा जिस दिन से
तो अनुलोम बिलोम के लेडीज़ सूट में छिपा वा है
वैसे एक बात है
बी जे पी और मोदी के लिए ग्राऊँड  बना दिया उस ने !

नईं नईं यार बेकार की बात मत करो
जिस चीज का आप को पता नईं है
बोलणा नईं चईये
एवें , फजूल ! मोटी बात नईं करणी चईये
आप क्या जानते रामदेव और मोदी के बारे
कोई हौर बात करो , अराम से
खाणे पीणे का महौल है
बेह्स हो जानी खा मखा
छोड़ो इस टॉपिक को !

अरे आप कहते हो बहस हो जाणी
मैं कहता हूँ देश डूब जाणा  है
कैसी गन्दी तहज़ीब आ रही है
नौजवान खोखले हो गए हमारे
दुख नहीं होगा हमें ?

तो क्या मोदी ने लाई है गन्दगी ?

जिस ने भी लाई हो
हम तो मनमोहन के टाईम भी बहस करते थे
तो बह्स क्या कोई माड़ी  चीज है ? हैं ?

भई हम दीवाली की बात कर रहे थे ।

तो दीवाली पर ही सवाल है , भाई !
हम कौन सा आई पी एल डिस्कस कर रहे ?

नहीं नहीं सर जी मेरा मतलब है कहणे का
कि हम तो चीनी पटाकों की बात कर रहे थे

चीन को मारो गोळी
और चीनियों को भी
ठीक है कि नईं ?
हमारा था सत्त का धरम
हमारे अपने  तिहार थे अपने उत्सव !
कोई पटाका नहीं
कोई मोमबत्ती नहीं , है न ?
कोई झालर नही ,
लड़िया थड़िया कोई गिफ्ट  नहीं और एस एम एस नहीं
कोई पार्टी नहीं कोई जुआ नहीं बस उत्सव होता था
मन में जो खुशी होती थी फूट कर चेहरे पर आ जाती थी
जेह है असल बात दीवाली पे बताणे की और बाँटने की
रही धन की बात , तो वो न तेरस को आएगा , न अमावस को

बस राम जी के जीतने की  उम्मीद बची रहे बस ! 

Monday, October 20, 2014

सब ख़ुश थे, बस एक अच्छी लड़की ख़ुश नहीं थी

एक थी अच्छी लड़की

  • किरण अग्रवाल

एक थी अच्छी लड़की

सात भाइयों की बहन प्यारी

माँ-बाप की दुलारी

उसके साथ की बाक़ी लड़कियाँ ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगातीं

लेकिन अच्छी लड़की कभी ज़ोर से नहीं हँसती थी

बाक़ी लड़कियाँ जानबूझकर

किसी भी राह चलते मजनूँ से टकरा जातीं

उनके चंचल चितवन

चकरघिन्नी की तरह

चारों ओर का जायजा लेते

और उनके दिमाग़ में सदा किसी कारस्तानी के बीज अँकुराते रहते

लेकिन अच्छी लड़की चुपचाप

इन सबसे दूर

एक किनारे चलती रहती

उसका सिर सदा नीचे धरती में धँसा रहता

पास-पड़ोस के लोग

उसे ईर्ष्यापूर्ण नज़रों से ताकते

और अपनी लड़कियों की बेशरमी पर

अपने भाग्य को कोसते

उनकी डाँट-डपट का भी

उन आवारा लड़कियों पर

कोई असर नहीं पडता था

एक बार पता नहीं कैसे क्या हुआ

उस अच्छी लड़की को एक लड़के से प्यार हो गया

जब उसके घरवालों को इस बारे में पता चला

तो उन्होंने अच्छी लड़की को समझाया

जो हुआ सो हुआ

अब इस अध्याय को यहीं समाप्त कर दो

क्योंकि अच्छी लड़कियाँ प्रेम नहीं करतीं

लोगों को पता चलेगा तो कितनी बदनामी होगी

लज्जा से हमारा सिर नीचे झुका जाएगा

अच्छी लड़की मन ही मन रोई

लेकिन उसने अपना सिर चुपचाप नीचे झुका लिया

जल्दी ही गाजे-बाजे के साथ

अच्छी लड़की की शादी हो गई

ससुराल में सास-ससुर ख़ुश थे

कि उन्हें इतने सुविचारों वाली कमेरी बहू मिली

जेठ-जेठानी ख़ुश थे

नंद-नंदोई ख़ुश थे

ख़ुश था अच्छी लडकी का पति परमेश्वर

इतनी आज्ञाकारिणी, सर्वगुण सम्पन्न पत्नी को पाकर

सब ख़ुश थे

बस एक अच्छी लड़की ख़ुश नहीं थी

दूसरों का जीवन जीते-जीते वह थक चुकी थी

वह एक बुरी लड़की बनना चाहती थी


Friday, August 22, 2014

खेलें ?


  • संज्ञा उपाध्याय 




उसका पूरा ध्यान मोबाइल में था. आसपास से एकदम बेखबर. आँखें भावहीन, पथरायी-सी. मोबाइल की पूरी स्क्रीन पर नज़र फिराने भर की नामालूम-सी हरकत पुतलियों की न होती, तो यह एक निर्जीव, निर्विकार चेहरा था. मैं उससे बात करने को बेचैन थी. उसका ऐसा चेहरा मेरी बेचैनी को और बढ़ा रहा था. छह साल की बच्ची का चेहरा क्या ऐसा होना चाहिए?
उसका ध्यान मोबाइल स्क्रीन से बाहर खींचने के मैं दो-तीन असफल प्रयास कर चुकी थी. न मेरे शब्द उसे छू रहे थे और न उसकी छोटी-सी चोटी को शरारत से लपेटती-घुमाती मेरी उँगलियाँ उसे खिजा रही थीं. वह सब अहसासों से दूर थी. मोबाइल रख देने का अपनी माँ का आदेश उसने अनसुना नहीं किया था. वह सुन ही कहाँ रही थी कुछ! माँ ने मोबाइल छीनने का प्रयास किया, तो उसने उसे दृढ़ता से पकड़े रखा. कुहनियों और बाजुओं से माँ के आगे बढ़ते हाथों को धकियाया. इस सबके बीच उसकी उँगलियाँ बिना रुके मोबाइल के बटनों पर नाचती रहीं, नज़र और ध्यान स्क्रीन से हटकर ज़रा भी न भटके. 
उसकी माँ, मेरी दोस्त, झल्लाकर रसोई में चाय बनाने चली गयी. मैं पत्रिकाएँ उलट-पलट सकती थी या अपनी दोस्त के पास रसोई में जाकर गपिया सकती थी. पर मुझे तो उससे बतियाना था! 
कमरे में सन्नाटा पसरा था. मैंने उसके पास बैठ मोबाइल की स्क्रीन में झाँका. एक लड़का तेज गति से दौड़ता सीढ़ियों पर चढ़ा जा रहा था. दायें-बायें कोई फल, टॉफी, केक प्रकट होता. यह क्या कर रहा है?” मैंने पूछा. मेरी आवाज़ में जिज्ञासा का भाव शायद उसे सच्चा लगा. उसने स्क्रीन से नज़र हटाये बिना कहा, “ये सब इसे खिलाना होता है.मैंने कहा, “इतना सब खा लेता है यह?” मेरे मज़ाक पर उसे हँसी नहीं आयी, लेकिन मेरी कमअक्ली पर तरस ज़रूर आया, उसके होंठों के कोने पर जो खिंचाव पैदा हुआ, उससे मैं जान गयी. वैसे ऐसा ही खेल मैं अपने घर की सीढ़ियों पर रोज़ खेलती हूँ. बड़ा मज़ा आता है! तुम्हारे घर में सीढ़ियाँ हैं?” 
वह शायद थक गयी थी, या बोर हो गयी थी. उसने गहरी साँस छोड़कर मोबाइल रख दिया. यह साँस उस खेल में दौड़ते लड़के की तेज़रफ्तारी के कारण शायद अब तक कहीं अटकी थी. इत्मीनान की साँस लेते हुए उसने मेरी तरफ देखा. हाँ, हैं.उसने कमरे से बाहर की ओर इशारा किया, जहाँ सीढ़ियाँ थीं. खेलें?” मेरे उत्साह भरे स्वर पर उसने मुझे संदेह से देखा. 
वह अपने संदेह और असमंजस के साथ मुझे लेकर सीढ़ियों तक आयी...और थोड़ी देर में ही हम सीढ़ियों पर भागती चढ़-उतर रही थीं. दायें-बायें कूदने, दो सीढ़ियाँ फलाँगने, एक पैर से कुदककर सीढ़ी चढ़ने और यह सब करने से चूक जाने पर सज़ा मिलने के नियम वह झटपट बना रही थी. मेरे हारने पर तालियाँ बजाती हँसती. मेरे जीतने पर खीजकर नये नियम गढ़ खेल मेरे लिए मुश्किल बनाती. लगातार हँसने, चिल्लाने, बोलने, दौड़ने, चढ़ने-उतरने के कारण हम पसीने से तर थे. मैं थक रही थी, पर उसका उत्साह बढ़ता जा रहा था. आखिर हम हँसी से दुहरे होते, अपनी साँसें सँभालते सीढ़ियों पर ही बैठ गये. हम बोल नहीं पा रहे थे. बस, एक-दूसरे की ओर देखते और हँस पड़ते. 
मेरी दोस्त पानी, मेरी चाय और उसका हॉर्लिक्स बिस्कुटों की प्लेट के साथ सीढ़ियों में वहीँ रख गयी. दोनों पागल हो!कहकर वह मुस्कराती हुई चली गयी. हमने एक-दूसरे को देखा और फिर हँस पड़ीं.
अब हम एक सीढ़ी पर थीं. बराबर सटकर बैठीं. वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने दोस्तों से मिला रही थी. अपने स्कूल की सैर करा रही थी. अपने राज़ मुझसे साझे कर रही थी. मेरा फेवरेट कार्टून पूछ रही थी. होमवर्क न करने की मेरी बचपन की आदत पर हैरान हो रही थी. मुझे मिली सज़ाओं पर दुखी हो रही थी. टुथ फेयरीको बड़ों का झूठ बताकर वह मुझे एक कहानी सुना रही थी, जिसकी नायिका वह खुद थी. कहानी के दुख, सुख, ख़ुशी, भय, आश्चर्यसब उसकी आँखों, उसके चेहरे के भावों और आवाज़ के उतार-चढ़ावों में समाये थे. बीच-बीच में कुछ क्षण रुककर वह मेरा चेहरा पढ़ सुनिश्चित करती कि उसकी बात मुझ तक ठीक से पहुँच रही है या नहीं. मेरे चेहरे पर घटना के अनुकूल भाव पा संतुष्ट होती और कहानी आगे बढ़ाती. 
तत्काल गढ़ी जाती मगर पूरे मन से लिखी जाती उसकी कहानी उसकी आँखों में तैर रही थी. चेहरे का हर रग-रेशा ज़िंदा था. उसकी आवाज़ का जादू चारों ओर फैला था. आसपास पूरी दुनिया धड़क रही थी.

Saturday, August 9, 2014

पाँच फ़ीट सात इंच का काँटा


·        बाबुषा कोहली



कोई बड़ा मशहूर क़िस्सा भी नहीं, पर क़िस्सा तो क़िस्सा.

एक समय की बात है. बग़दाद के सुलतान को बंजारा जाति की एक लड़की से मुहब्बत हो गयी. वो उस हवा को अपने पास रख लेना चाहता था. पर वो किसी सूरत हाथ न आती थी. तब सुलतान ने अपने जादू- टोने की तालीम का सहारा लिया और उस लड़की को मछली बना दिया.

मछली माशूका को उसने अपने जलघर में छोड़ दिया और उसे दिन रात मुहब्बत किया करता. वक़्त -वक़्त पर वो जलघर का पानी बदल देता और आटे की गोलियाँ पानी में डाल दिया करता. मछली जान भी जलघर के पानी में घुल मिल गयी. अब उसे कोई हाथ लगाता तो वो डर जाती और कोई बाहर निकालता तो वो मरने-सी हो जाती. इस तरह मछली जान और सुलतान की ज़िन्दगी चलती रही.

वक़्त बीतने लगा. मछली जान अपने जलघर में खुश रहती. करतब करती, मचलती, उछलती, खुली आँखों में सौ सालों की नींद पूरी करती. फिर धीरे- धीरे सुलतान ने उसके पास आना कम कर दिया. पानी बदलने और आटे की गोलियाँ मिलने की रवायत भी पहले सी न रही. 

पर मछली जान ने शिक़ायत नहीं की.

इधर मछली जान को ज़माने भर के मछेरे देखते. टुकुर-टुकुर.
मछली जान ने चौखट पर आँखें टाँक दी थीं. सुलतान कभी-कभार आता तो आँखों को चूम लेता. मछली जान के गलफड़ों में हवा आते -जाते रहने के लिए तो इतना भी बहुत.

ऐसे ही टुकुर -टुकुर दिन गुज़रने लगे.

फिर एक दिन यूँ हुआ कि सुलतान के घर हरी तरकारी न थी. सो उसने यूँ किया कि मछली जान को जलघर से निकाला और राई तेल डाल कर कड़ाही में भून दिया. पूरे परिवार ने मिलकर शौक़ से मछली जान का स्वाद लिया.

क़िस्सा यहाँ ख़त्म हो जाना था पर ऐसा होता नहीं.

आगे यूँ हुआ कि सुलतान जब शौक़ से मछली जान के टुकड़ों से पेट भर रहा था तभी उसके सीने में एक काँटा जा फँसा.

जानती हो अ, वो पाँच फ़ीट सात इंच का काँटा था. क़िस्सा, दरअसल यहाँ से शुरू होता है...




[बावन चिट्ठियाँ

Thursday, July 24, 2014

कुछ तो 'राकेश' ने भी बिगाड़ा था मुझे

(संस्मरण अंश) 

कथा कार राज कुमार राकेश से मेरा परिचय 2002 - 03 के आस पास का है ।

उन से पहली मुलाक़ात अविस्मरणीय है ।  केलंग में अपने दफ्तर में किसी फाईल मे उलझा हुआ था।  एक  सम्भ्रांत से आदमी ने  मेरे कमरे मे प्रवेश  किया  । बाल लम्बे लेकिन व्यवस्थित । नाक ऊँची और उस पर मोटे लेंस वाला चश्मा नफासत से टिका हुआ । क्या आप अजेय हैं ? उस की आवाज़ खासी भारी थी । रौबदार भी । केलंग में ऐसे  गेटअप वाला आदमी या तो कोई बड़ा अफसर हो सकता है , या फिर कोई टुअरिस्ट । मैंने झिझकते हुए हामी भरी । वह बड़ी बेतकल्लुफी के साथ सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया । मेरा नाम राजकुमार राकेश है । कहानियाँ लिखता हूँ ..........

ओह ! मैंने खड़े हो कर नमस्ते की । सर , आप ! सॉरी मैं पहचान न पाया । मैं रोमाँचित था । इतना सीनियर लेखक मेरे दफ्तर में आया ! प्रमोद रंजन इन का  ज़िक्र करता रहता था ।

प्रमोद रंजन शिमला से एक  साप्ताहिक पत्र भारतेन्दु शिखर में  दो पन्नों का साहित्यिक परिशिष्ट निकालता था । उस में  वह मुझ जैसे पिछड़े इलाक़ो क़ॆ  कम ज्ञात लेखकों पूरी तवज्जोह से, बल्कि कहना चाहिए कि पूरी सदाशयता  के साथ छापता था । लम्बे लम्बे पत्र लिखता था और हम से लिखवाता भी था । हमारे पास भी खोने के लिए कुछ नहीं था तो जो जी में आया लिख मारते थे ।   कुल मिला कर प्रमोद रंजन के उस टेबलॉय्ड ने उन दिनों  हिमाचल के  साहित्यिक परिदृश्य में खलबली मचा रखी थी । साथ में मधुकर भारती जी का  सर्जक तो सक्रिय था ही । उस में मैं छप चुका था ।  विपाशा तब बड़ी पत्रिका समझी जाती थी । बड़ा  दबदबा था तब उस का । स्तर भी था और रुतबा भी । उसे हम लोग अपनी पहुँच से बाहर की चीज़ मानते थे।  

अरे,  यहाँ नहीं सर चलिए अन्दर चल कर बैठते हैं प्लीज़ ! मैं  हडबड़ाते हुए उस आदमी का हाथ  पकड कर  जी. एम. साब के केबिन की तरफ ले गया । क्यों कि पूरे दफ्तर में वही एक ऐसी जगह थी जहाँ किसी सम्भ्रांत मेहमान को बिठाया जा सकता था ।  मन में सोच रहा था कि क्या सच मुच यह आदमी राजकुमार राकेश  हो सकता है ?

कोई बात नहीं यार , वहीं ठीक था । आई वाज़ कम्फर्टेबल । ऐसा कुछ नहीं .....

नहीं सर,  दर असल बॉस जिस दिन न हों दफ्तर की सफाई भी नहीं होती. और यह लाहुल है ... यहाँ मिनट में धूल जम जाती है  ! तो फिक्शन लिखते हैं आप ?

हाँ शुरू मे तो कविताएं भी लिखीं ,यूँ ही कोई खास नहीं । पब्लिश भी नही कराईं  ।  पर अब केवल फिक्शन । उस मे आप अपनी बात ज़्यादा स्पष्ट कर पाते हैं  ।  ऐसे ही कोशिश करते रहते हैं । आप की कविताएं पढ़ी हैं मैं ने । काफी अच्छी लगीं । इधर पाँगी के सरकारी दौरे पर था तो सोचा कि केलंग के कवि से मिलता चलूँ .....

मैं अभिभूत था । ये  तो सच मुच कथाकार राकेश ही लग रहे हैं । हम ने चाय पीते हुए घंटो बातें की । बहुत मज़ा आ रहा था । मुझे हिन्दी साहित्य के बारे अनेक मौलिक जानकारियाँ मिलीं और लेखकों के बारे फर्स्ट हैंड खबरें।  मेरे लिए यह एक प्लेज़ेंट  सरप्राईज़ था ! यह अनुभव मैं किस के साथ शेयर करता ? उन्हो ने अपनी किताबो के बारे बताया । मैं शर्मिन्दा था कि मैंने हिमाचल के लेखकों को बहुत कम पढ़ा है । मैंने पते नोट किए और राकेश जी  की तमाम किताबें मँगा कर पढने की ठान ली ।

ऐसा करो तुम कुछ पत्रिकाएं पढ़ना शुरू कर लो । पहल,  कथादेश और एक पत्रिका और बताई उन्होंने । मुझे पहली बार अहसास हुआ कि ये बड़ी  पत्रिकाएं थीं । मैंने केवल इन का नाम सुना था लेकिन देखा/ पढ़ा  कभी न था ।  राजेन्द्र यादव का ‘हंस’  शुरू से पढता था; लगभग सन ‘86 से ।  लेकिन  अब मुझे उस से ऊब सी होने लगी  थी । मुझे कुछ और , कुछ आगे का चाहिये था ..... और मुर्शिद मेरे सामने  खड़ा  था ! उन्हो ने मुझे इन ज़रूरी पत्रिकाओं के पते लिखवाए।

मैं ने इन पत्रिकाओं से पत्राचार करना शुरू किया और इस तरह मेरी बरबादी का एक और दौर शुरू हुआ ।