Saturday, January 29, 2011

इस ठण्डे अंधेरे में क्या करें ....... ?



साईबेरिया से तेज़ हवाएं चल रही हों, सूरज ने अपना रास्ता छोटा कर दिया हो, कोण तिरछा कर दिया हो, पश्चिमी विक्षोभ ने आकाश को ढँक दिया हो, शीत देवता ने नदियों को स्थिर कर दिया हो तो सोचिए आप के सपनो में कौन आता है?







आधी रात है
और सूनी गली में हांक लगाता कोई -
``आग ले लो,.......... आग ! ´´

पोटली में से निकाली हैं
छोटी-बड़ी सन्दूकचियां
और बिछा दिया है सौदा -

``ये एक दम सुच्चा माल
देवताओं के देश से आया
बस यही आखिरी चीज़ बची है
शुरु से ही ज़िन्दा
अपने आप फैलती
और सिमट जाती आप ही
कोई गुंजाईश नहीं मिलावट की
यह होती है या फिर होती ही नहीं
इसका ताप
गुपचुप पहुंच जाता चीज़ों में अपने आप
आज़मा कर देखो तो ज़रा ।´`

झुर्रियों वाला एक चेहरा है ताबदार तना हुआ
मुटि्ठयों से झर रहे थक्के पिघलती रोशनी के
ठोस हो जा रहे गिरते ही मिट्टी पर .............

ज़ंग खाई उन खखरी पिटारियों में
कैसे सहेज कर रखी हुई है आग
छेदों और झिर्रियों में से
उफनती लपटें पुकार रही मुझे
और लेटा हुआ अनमना, अधमरा सा
निश्चेश्ठ मैं ............

दौड़ा हूं बदहवास
सपनों के उस अधरंग से उठकर
एकाएक बाहर
ठिठक गया लेकिन दहलीज़ पर
सहम कर खड़ा हूं
बचता हुआ उन असली चिनगारियों से
देख रहा यह अद्भुत कारोबार........

कोई लेन-देन नहीं हो रहा
और घेरे हुए उस नायाब ताम- झाम को
कितने ही गाहक
उतावले और आशंकित
देर रात की दहशत में
बेबूझ , तिलमिलाए हुए
कि सभी को चाहिए मुट्ठी भर आग
इस ठण्डे अंधेरे में
क्या करें..........!

Wednesday, January 19, 2011

इस ‘खोगला’ पर गाँव नहीं जा पाऊँगा

आज देसी नव वर्ष की पहली पूर्णिमा है. यानि कि ‘खोगला’ .
पिछ्ले पोस्ट पर मैने जानकारी दी थी कि यह आग का त्यौहार है.इन दिनों लाहुल मे शीत देवता का प्रकोप पूरे ज़ोर पर है. केलंग का न्यूनतम तापमान शून्य से 25 डिग्री सेल्श्यस नीचे जा रहा है. ऊँचाई पर स्थित गाँवों मे तो 35 दिग्री भी पार कर जाता है. ज़ाहिर है ऐसे मे लोग आग की बातें कर के भीतर ऊष्णता महसूस करते हैं. इसी लिए बर्फीले क्षेत्रों मे आग और उस से जुड़े मिथकों का बड़ा महत्व है. आज तो आग सुलगाने के कई तरीक़े हैं, लेकिन पुराने दिनों मे बर्फ के इन विशाल रेगिस्तानों मे आग को ज़िन्दा रखना निश्चय ही चुनौतीपूर्ण काम रहा होगा. हम जानते हैं चिंगारियों को तब ऊपलों मे ही जीवित रखने का रिवाज़ था. युगों और पीढ़ियों तक वह आग ज़िन्दा रहती थी. इस भीषण सर्दी मे आग को इस तरह ज़िन्दा रखने की बात एक रोमाण्टिक गप्प सी लग रही है. लेकिन वह ऐसे ही ज़िन्दा रखी जाती रही है, और गाँव में आज भी ऐसे ही रखी जाती है. कभी कभी मैं अपने गाँव वाले चूल्हे की आग की उम्र के बारे सोचता हूँ तो आदमी के बचपने पर तरस आ जाता है. लगता है अभी कल ही तो पैदा हुआ है आदमी....
खैर आदमी की स्मृति ज़रूर पुरातन है. अपनी स्मृतियों मे आदमी आग को अलग अलग रूपों में सँजोये हुए है. रमेशचन्द्रशाह बता रहे थे कि ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी बाक़यदा आग का सन्धान करते हैं . और यह अनुष्ठान वे लोग नृत्य के रूप में पर्फॉर्म करते थे. कवि अग्निशेखर ने बताया कि काश्मीर मे मान्यता है कि मकर् संक्रांति की रात को आकाश से एक चिंगारी गिरती है.... जिसे लोग अपनी काँगड़ी मे सहेज रखते हैं . इस दिन वहाँ अग्निदान की प्रथा भी है . उन के अनुसार सूर्यपूजा भी इसी पुरातन परम्परा का अंग है. एक समय में मुलतान के बाद काश्मीर सूर्यपूजकों का बड़ा केन्द्र था. वहाँ इस कल्ट के अवशेष खण्डहरों, रिवाज़ों , आदि के रूप मे मौजूद हैं.
हिमालय के भीतरी हिस्सों में आग से जुड़े अनेक अनुष्ठान और उत्सव हैं. हमारा खोगला भी उन्ही मे से एक है.
मैं चाह रहा था कि इस बार मशालों के इस त्यौहार की कुछ ताज़ी तस्वीरें यहाँ पोस्ट करूँ. लेकिन हाल ही में हुई भारी बरफबारी के कारण इस खोगला पर मैं गाँव नहीं जा पाऊँगा. क्यों कि पिछले चार दिनों से रास्ते बन्द हैं. आज आकाश एक दम निम्मळ है.सूरज अपनी पूरी ताक़त से च्मक रहा है. लेकिन उस की कुल ऊष्मा का एक खरबवाँ हिस्सा भी शायद ही यहाँ पहुँच पा रहा हो. हेलिकॉप्टर ने चार चक्कर लगाएं हैं.... स्तींगरी –भूंतर—स्तींगरी....... हर बार बाहर निकल कर एक हसरत भरी निगाह से उसे देखलेता हूँ. मैं पैसे खर्च कर के कुल्लू जा सकता हूँ, लेकिन यहाँ से फक़त 10 किलोमीटर दूर अपने पुरखों के गाँव जा कर यह आग का उत्सव नहीं मना सकता.
गाँव से अभी अभी भाई का फोन आया है. उन्हों ने पवित्र शुर की लकड़ियाँ चीर कर ब्यूँस की लचीली टहनियों से हाल्डा बाँधना शुरू कर दिया है. मेरे नाम से भी एक हाल्डा बाँधा जाएगा. शाम ढलते ही हम सामने वाले पर्वत पर सिद्ध घण्टा पा के साधना स्थल पर नज़र टिकाए रहें गे. ज्यों ही लामा जी अपना हाल्डा देव प्राँगण मे निकालेंगे, हम भी चूल्हे मे अपना हाल्डा सुलगाएंगे और शोर मचाते हुए गाँव के बाहर ले जाएंगे. शुर(जुनिपर), जलती हुई घी और तैल की सौंधी महक मेरे चारों ओर फैलने लगी है. दिन भर मारचू तले गए हैं. भाभी ने आज बासमती पकाई है और दूसरे कूकर मे गोश्त उबल रहा है. दादी ने अपने नक्काशी दार सन्दूक से ऊनी जुराबों जोड़ा निकाला है और रात की मशाल यात्रा के लिए मुझे गिफ्ट किया है. सलेटी जुराबों में से एक सूखा हुआ सुनहला गेंदा झाँक रहा है. इस उपहार से फिनायल की गोलियों की तीखी गन्ध निकल रही है. जो वे ऊनी कपड़ों की हिफाज़त के लिए सन्दूकची मे डाले रखतीं हैं. दादी की गाँठदार उँगलियाँ इस बार कुछ ज़्यादा ही ठण्डी लग रहीं हैं. उन्हे दमा की शिकायत थी. इस बार मैंने उन की दवा की खुराक़ भिजवा दी थी क्या? “दादी को देसी वैद की दवा ही ज़्यादा कर के शूट करती है.” दुम्का नौकर देबाशीष किस्कू ने कहा था...... त्सेरिङ वैद को फोन लगाऊँ ?
दफ्तर का फोन चीख चीख कर चुप हो जा रहा है. फिर- फिर बज कर चुप हो जा रहा है. शिमला वाले 20 सूत्री कार्यक्रम की त्रैमासिक रिपोर्ट माँग रहे हैं. ऐसी की तैसी तुम्हारी और तुम्हारे वाहियात कार्यक्रमों की.
आह गाँव !

Thursday, January 13, 2011

पुकारते रहे होंगे कब्रों में सोये देवदार !


पिछली पोस्ट मे मैंने कुल्लू की कवि ,रंगकर्मी उरसेमलता का ज़िक़्र किया था. उरसेम कुल्लू के राजकीय महाविद्य़ालय मे पढ़ातीं हैं. बहस नाट्य एवं कला मंच नाम से इन का ग्रुप आज की ज्वलंत सामजिक समस्याओं पर आम जन के बीच और दूरस्थ गाँवों मे जाकर जागरूकता फैलाने का काम करता है. इस ग्रूप ने 2004 मे पहली बार कुल्लू मे नुक्कड़ नाटक इंट्रोड्यूस किया था. जो आज यहाँ एक लोक प्रिय विधा बन चुकी है. साम्प्रदायिकता, पर्यावरण, बाज़ारवाद, नारी सशक्तिकरण , इन के मुख्य सरोकारों में शामिल हैं। पौधारोपण इन की मुख्य गतिविधि है। प्रत्येक ग्रूप मेंबर के जन्मदिन, एनिवर्सरी, विवाह, आदि के मौके पर ये अनिवार्यरूप से पौधारोपण करते हैं, तथा उपहार के रूप मे पौधे ही प्रेज़ेंट करते हैं. उरसेम के सरोकार उन की कविताओं में भी पूरी शिद्दत से आते हैं ........
लोहड़ी तथा मकर संक्रांति की शुभकामनाओं के साथ उन की दो कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूँ:

इस इकलौती धरती पर

हमें दु:ख है
कि हमने जो कुछ देखा होते हुए
चेताया नहीं खुद को
बरसो तकते रहे
महलों में सजते देवदारों को देखते
सराहते रहे।

कब्रों में सोये देवदार
पुकारते तो रहे होंगे ज़रूर
कहां सुन पाए हम वो कातर पुकार ?

हमें तो दिखी चमकती देह देवदारों की
शवों के खरीददारों के ´टेस्ट´ की दाद देते रहे हम
जो मौत के सौदागर ही तो थे
सारी कायनात के लिए।

फिर भी
कैसे निरपेक्ष बने रहे हम
ये सोचे बगैर
कि
एक ही धरती तो थी
देवदारों के लिए
और
देवदार
इस इकलौती धरती पर
हमारे लिए।

बोतल में पानी

क्या सोचा होगा
किसी पहाड़ी ने आधी सदी पूर्व
कि 21वीं सदी के कनॉट प्लेस से
जब गुज़रेगा वह प्यासा पहाड़ी आदमी
लुटा-पिटा
ठगा सा
प्यास लगने पर
धर दिया जाएगा उसके हाथों में जब
बन्द बोतल में कैद,
चमचमाता पहाड़ी चश्में का पानी
और कहेगा वह लौटकर पहाड़ों से
कि कनॉट प्लेस में
उतर आया था उस रोज़
अपने रायसन के पानी का चश्मा

चश्मा बहता रहा था
देर रात तक दिल्ली की सड़कों पे।

चश्मे का मीठा पहाड़ी शोर
कोलाहल में बदल गया था उस रोज़
क्या कहूँ दोस्त
कैसा लगता है
जब अपने रायसन का पानी
क्नॉट प्लेस में कीमत चुकाकर पीना पड़ता है
प्यास बुझती नहीं
बढ़ जाती है बेतरह
तमाम पानी पी चुकने के बाद भी

उरसेम लता
राजकीय महाविद्यालय कुल्लू
हिमाचल प्रदेश 94181-18581