Tuesday, September 27, 2011

7- मानो पूरा पहाड़ सम्वाद के लिए बेताब है !



महेश पुनेठा ने पिछ्ले पोस्ट मे अब तक की पूरी चर्चा को बहुत ही स्पष्ट और सम्प्रेषणीय तरीक़े से प्रस्तुत किया है और उस मे बहुत ही ज़रूरी टिप्पणिया जोड़ी हैं ; जिस से यह अनौपचारिक चर्चा एक स्तरीय विमर्श मे बदल गई है. केवल एक कमी रह गई. वह यह कि एक महत्व पूर्ण कविता इस आलेख से अलग रह गई
यूँ तो सरुलीकविता इतनी सरल, सहज और स्पष्ट है कि उस पर कुछ कह पाना कठिन है .लगभग असम्भव .कविता अपनी बात खुद ही मुकम्मल करती है . इसे कही से भी खोलने या व्याख्यायित करने की ज़रूरत नही। फिर भी मुझे लगा कि इस कविता कुछ कहे बिना यह चर्चा अधूरी होगी. अपनी सीमाओं को स्वीकारते हुए इस कविता पर दो चार बातें करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ.
महेश ने अपनी बात कहने के लिए जो फॉर्मेट चुना , बहुत प्रशंसनीय है. उत्तराखण्ड की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्र इस कविता की पत्र शैली की वजह से ही उभर कर आया है. इस चित्र मे वहाँ के आम घर परिवार की तमाम ज़रूरी डिटेल्ज़ बड़ी ही कलात्मकता के साथ दर्ज कर ली गई है. ऐसे कथ्य के लिए पत्र मे ही इस तरह का सटीक समय और स्पेस मिल सकता था . यह शिकायत आमने सामने का सम्वाद बना कर भी प्रस्तुत की जा सकती थी . लेकिन पत्र के साथ यह सुविधा हुई कि सरुली को अपनी पूरी भड़ास लिकालने का अवसर मिल गया . शायद अब सरुली अपने बौज्यू का ऐसा कोई भी पाखण्ड पूर्ण और वाहियात तर्क सुनने को तय्यार नही है, जो आज तक उस के मौन को, उस की गऊ सदृश सहंनशीलता को उस के स्त्रीसुलभ गुण के रूप मे जस्टिफाई करता आया है . और जो कि आमने सामने के संवाद मे उसे सुनना ही पड़ता. साथ मे वह अपने बौज्यू की पुरुष वादी मानसिक *कंडीशनिंग* का लिहाज करते हुए उन्हे सांत्वना भी दे रही है कि मेरी फिक़र करना मैं ठीक ठाक हूँऐसी प्रत्यक्ष झूठी दिलासाएं भी पत्र मे ही दी जा सकती हैं. जबकि बौज्यू और सरुली दोनो ही हक़ीक़त जानते हैं. और अपने पाठ मे यह वाक्य ज़बर्दस्त वञ्जना पैदा करता है.
दूसरे, इस का इकतरफा सम्वाद होना एक प्रतीकार्थ रूप मे आता है कि इस युग मे एक संवेदनशील पुरुष के पास चुपचाप ये शिकायतें सुनने के सिवा कोई चारा नही है. महेश का शिल्प पुरुष को बोलने का मौका ही नही देता ! और इस तरह यह सिंबोलिज़्म सफल प्रयोग है.
भाषा तो महेश की लाजवाब है ही . और उस का मुख्य कारण है लोक शब्दावली का सचेत और स्वाभाविक प्रयोग. इसी से इस भाषा की ताल इस के कथ्य की लय को, इस के आवेग को पूरा पूरा सहयोग देती चलती है. और यह जुगलबन्दी कविता मे आद्योपांत चलती है. ऐसे अनेक उदाहरणो पर अनायास ही ध्यान चला जाता है जहाँ कवि की शिल्प के प्रति सजगता प्रमाणित हो जाती है . लेकिन यह कवि की सफलता है कि कलात्मकता कही से भी अतिरिक्त और थौंपी गई नही प्रतीत होती है.
अस्तु, मुझे उम्मीद नही थी कि हम इस स्तर की चर्चा कर पाएंगे, और इतने सारे पहलुओं पर चर्चा कर पाएंगे . मुझे पता है हमारे पास और भी बहुत से प्रश्न है. हम ने अपने बाहर भीतर खूब टटोला . कुछ प्रश्नो के उत्तर हम खोज पाए , बहुत से अनुत्तरित रह गए. बहुत से नए प्रश्न भी खड़े हुए .
इस चर्चा के दौरान मुझे ऐसा लगा कि एक स्वप्न सा चल रहा है और स्व्प्न मे मानो इन कविताओ के कवि, उन के चरित्र, इस चर्चा के टिप्पणी कार, सब आपस मे बतिया रहे हैं . सब के पास अभी एक दूसरे से कहने के लिये बहुत कुछ है . मसलन निरंजन की छात्राएं निशांत की विलाप करती सखी को समझा रही हैंअमा जी, तू हमारी फिक़्र कर. पढ़ लिख कर हम अपना कमा कर खाएंगी , और अपने बच्चों को भी आत्म निर्भर होना सिखाएगी. लगता है उन्होने निशांत, साहिल , पुनेठा, की कविताओं के साथ गीता गैरोला, प्रदीप पाण्डेय की कविताएं या राजेश सकलानी की यह कविता भी पढ़ ली हैं ....
दीदियों और भुलियों
( उत्तराखंड आंदोलन के दौरान)

दीदियो और भुलियो! त्ुम जब भी याद आती हो /जैसे उकालों पर चढ़ती हुई हरा-भरा रंग उड़ाते /पाखों पर सुनाई पड़ती है तुम्हारी साँसें /अंधेरी सुबहों को तुम निकल पड़ती हो घास के / जागने पर हमें दिखाई पड़ता उजाला चाटियों पर /तुम्हारे पास भाषा सुरक्षित है /तुम्हारे पास आवाज सुरक्षित है तुम्हारे पास जब हम आते हैं दूर मैदानों से /धीरे-धीरे खुलने लगते हैं पहाड़ / फिर लग गया है पहाड़ों में बाघ कितनी बार खदेड़ा है तुमने बाघ को जिन्हें सत्ता की भूख ने खूनी बना दिया है /वे तुम्हारी आवाज से पस्त होते हैं।

ब्यूंस की टहनिया विनिता जोशी की परियों को उन की ईजाएं बन कर बताना चाह रही हैं कि हम मे भी एक परी उतरी थी एक दिन ...और हम भी एक दम परी हो गई थी..लेकिन पता चला कब हमे काट कर छील कर बाँध कर खा लिया गया, जलादिया गया, गाड़ दिया गया रूखे पहाड़ों पर ...कब हमारी लोच और हरेपन का नाजायज़ फायदा उठाया गया , हमे पता ही चला !! लेकिन तुम होशियार रहना , रेखा चमोली ने जो कहा , ध्यान से सुनना. वे तुम्हे गंगा कहेंगे तो तुम खुद को गंगा मान लेना. तुम अनाम नदी बन कर बहती रहना !! वर्ना उनकी जाल मे फँस जाओगी .
निशांत की विलाप करती सखी ब्यूँस की टहनियों को सांत्वना दे रही हैं -- तुम चिंता मत करो बहन , मैं तुम्हारी बेटियों को सिखा दूँगी , खुद कटने के बजाय उन सभी भूखे जांनवरों को काटना, .जो तुम्हे खा जाना चाहते हैं . और साहिल की नाटी गाती औरतों से पुनेठा की सरुली पूछ रही हैसखी, सच सच बताना इस नाटी मे ऐसा क्या है कि तुम्हे अपने बोज्यू और उस घर की याद नही सताती !! और कैसा लगता है जब तुम्हारा मर्द दोपहर का भोजन ले कर खेत पर आता है , और तुम्हारे सारे काँटे कुम्बर निकाल लेता है !! साहिल की नाटी गाती स्त्री उत्तर देती हैहमे इन नाटियों और गीतों मे उसी तरह का संतोष मिलता है जिस तरह तुम्हे अपने बौज्यू को चिट्ठी लिख कर ! और फक़त देह के काँटे कुम्बर निकाल लेने से मन की टीस खत्म नही हो जाती.
प्रदीप सैनी की बाल सँवारती औरतों को झिंझोड़ते हुए ईशिता पूछ रही है कि बताओ तुम ने उन लड़कियों को क्या गुरु मंत्र दिया है...कौन सा रहस्य उन बच्चों के बालों मे गूँथ दिया है ? हम से शेयर करो और उन्हे आपस मे भी शेयर करने की सीख दो. यह छिपाव और झिझक और संकोच ही सम्वाद हीनता का कारण हैं . जब कि यह ऐसा समय है जहाँ संवाद ही हमे बचा सकता है.


कवि बुद्धि लाल पाल आरम्भिक बचैनी के बाद एक दम चुप हो कर शायद एक अच्छी सी कविता लिखने बैठ गए हैं. सुशीला पुरी, प्रदीप कांत, रेखा चमोली मानते है कि स्त्री का दर्द हर जगह एक सा है. जब कि अनूपसेठी भोगौलिक आधार पर स्त्री की समस्याओं मे वेरिएशन देख रहे हैं . मुझे तो आर्थिक वर्गों के आधार पर, सांस्कृतिक समुदायों और जातियो के आधार पर, और सामाजिक विकास के आधार पर भी स्त्री के दुख मे अत्यंत सूक्ष्म एवम जटिल विविधताएं दिख रही हैं, जिन का साधारणीकरण स्त्री विमर्श को भटका दे रही है . स्त्री विमर्श के *ग्लोबल* आन्दोलन से प्रेरित होने की बजाय मुझे इस की *लोकल* कुंजियाँ मे खोजने मे ज़्यादा दिलचस्पी है. .
घुघुती बासूती को लगता है कि ये सभी कविताएं उन की माँ को पढ़ानी चाहिए. विनीता जोशी को लगता है खोज खोज कर दुख के चित्र प्रकट करने से कुछ नही होगा, स्त्री का असल विद्रोह और उस की असल ताक़त भी उस के प्रेम मे छिपा है.
सुनीता, रेखा चमोली , अनूप सेठी कह रहे हैं कि हमारे समाज मे विद्रोह नही है तो कविता मे कहाँ से आएगा ? ईशिता और महेश पुनेठा कह रहे हैं कि कविता को एक कदम आगे लेना होगा. ये लोग परोक्ष रूप से शायद यह भी मान रहे हैं कि विद्रोह कविता मे आएगा तो समाज मे साफ साफ दिखेगा. मोहन श्रोत्रिय जी आशावान हैं किसंभाव्य चेतनाके कुछ परिवर्तन कामी संकेत इन रचनाओं मे ज़रूर दिख जाएंगे . तमाम लोग मान रहे हैं कि अब तक पहाड़ की स्त्री ने अपना दुख कहने मे संकोच किया . अब वह कह देना चाहती है ... मेरा भी यही मानना है. उस का असल दुख है -- ‘ कह पाने का दुख’ . जो कि पहाड़ का असल दुख भी है .
काश / ये पहाड़ बोलते होते / तो (सब से पहले) यही बोलते/ काश हम बोलते होते!”
वन्दना शुक्ला, अशोक कुमार पाण्डेय स्तब्ध हो कर देख रहे हैं... जहाँ एक ज़माने मे शम्मी कपूर और राजेश खन्ना छैल छबीले पोशाकों मे नाचते कूदते ; *या............हू * और *मेरे सपनो की रानी* गाते दिखाई पड़्ते थे वहाँ आज ये सब हो रहा है , पूरा पहाड़ गम्भीर और सार्थक सम्वाद करने के लिए बेताब हो रहा है ....
सच मे , यह एक अद्भुत और सुखद शुरुआत है !!... कितना गुरिल्ला शुरुआत , यह तो वक़्त बताएगा .