Thursday, July 24, 2014

कुछ तो 'राकेश' ने भी बिगाड़ा था मुझे

(संस्मरण अंश) 

कथा कार राज कुमार राकेश से मेरा परिचय 2002 - 03 के आस पास का है ।

उन से पहली मुलाक़ात अविस्मरणीय है ।  केलंग में अपने दफ्तर में किसी फाईल मे उलझा हुआ था।  एक  सम्भ्रांत से आदमी ने  मेरे कमरे मे प्रवेश  किया  । बाल लम्बे लेकिन व्यवस्थित । नाक ऊँची और उस पर मोटे लेंस वाला चश्मा नफासत से टिका हुआ । क्या आप अजेय हैं ? उस की आवाज़ खासी भारी थी । रौबदार भी । केलंग में ऐसे  गेटअप वाला आदमी या तो कोई बड़ा अफसर हो सकता है , या फिर कोई टुअरिस्ट । मैंने झिझकते हुए हामी भरी । वह बड़ी बेतकल्लुफी के साथ सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया । मेरा नाम राजकुमार राकेश है । कहानियाँ लिखता हूँ ..........

ओह ! मैंने खड़े हो कर नमस्ते की । सर , आप ! सॉरी मैं पहचान न पाया । मैं रोमाँचित था । इतना सीनियर लेखक मेरे दफ्तर में आया ! प्रमोद रंजन इन का  ज़िक्र करता रहता था ।

प्रमोद रंजन शिमला से एक  साप्ताहिक पत्र भारतेन्दु शिखर में  दो पन्नों का साहित्यिक परिशिष्ट निकालता था । उस में  वह मुझ जैसे पिछड़े इलाक़ो क़ॆ  कम ज्ञात लेखकों पूरी तवज्जोह से, बल्कि कहना चाहिए कि पूरी सदाशयता  के साथ छापता था । लम्बे लम्बे पत्र लिखता था और हम से लिखवाता भी था । हमारे पास भी खोने के लिए कुछ नहीं था तो जो जी में आया लिख मारते थे ।   कुल मिला कर प्रमोद रंजन के उस टेबलॉय्ड ने उन दिनों  हिमाचल के  साहित्यिक परिदृश्य में खलबली मचा रखी थी । साथ में मधुकर भारती जी का  सर्जक तो सक्रिय था ही । उस में मैं छप चुका था ।  विपाशा तब बड़ी पत्रिका समझी जाती थी । बड़ा  दबदबा था तब उस का । स्तर भी था और रुतबा भी । उसे हम लोग अपनी पहुँच से बाहर की चीज़ मानते थे।  

अरे,  यहाँ नहीं सर चलिए अन्दर चल कर बैठते हैं प्लीज़ ! मैं  हडबड़ाते हुए उस आदमी का हाथ  पकड कर  जी. एम. साब के केबिन की तरफ ले गया । क्यों कि पूरे दफ्तर में वही एक ऐसी जगह थी जहाँ किसी सम्भ्रांत मेहमान को बिठाया जा सकता था ।  मन में सोच रहा था कि क्या सच मुच यह आदमी राजकुमार राकेश  हो सकता है ?

कोई बात नहीं यार , वहीं ठीक था । आई वाज़ कम्फर्टेबल । ऐसा कुछ नहीं .....

नहीं सर,  दर असल बॉस जिस दिन न हों दफ्तर की सफाई भी नहीं होती. और यह लाहुल है ... यहाँ मिनट में धूल जम जाती है  ! तो फिक्शन लिखते हैं आप ?

हाँ शुरू मे तो कविताएं भी लिखीं ,यूँ ही कोई खास नहीं । पब्लिश भी नही कराईं  ।  पर अब केवल फिक्शन । उस मे आप अपनी बात ज़्यादा स्पष्ट कर पाते हैं  ।  ऐसे ही कोशिश करते रहते हैं । आप की कविताएं पढ़ी हैं मैं ने । काफी अच्छी लगीं । इधर पाँगी के सरकारी दौरे पर था तो सोचा कि केलंग के कवि से मिलता चलूँ .....

मैं अभिभूत था । ये  तो सच मुच कथाकार राकेश ही लग रहे हैं । हम ने चाय पीते हुए घंटो बातें की । बहुत मज़ा आ रहा था । मुझे हिन्दी साहित्य के बारे अनेक मौलिक जानकारियाँ मिलीं और लेखकों के बारे फर्स्ट हैंड खबरें।  मेरे लिए यह एक प्लेज़ेंट  सरप्राईज़ था ! यह अनुभव मैं किस के साथ शेयर करता ? उन्हो ने अपनी किताबो के बारे बताया । मैं शर्मिन्दा था कि मैंने हिमाचल के लेखकों को बहुत कम पढ़ा है । मैंने पते नोट किए और राकेश जी  की तमाम किताबें मँगा कर पढने की ठान ली ।

ऐसा करो तुम कुछ पत्रिकाएं पढ़ना शुरू कर लो । पहल,  कथादेश और एक पत्रिका और बताई उन्होंने । मुझे पहली बार अहसास हुआ कि ये बड़ी  पत्रिकाएं थीं । मैंने केवल इन का नाम सुना था लेकिन देखा/ पढ़ा  कभी न था ।  राजेन्द्र यादव का ‘हंस’  शुरू से पढता था; लगभग सन ‘86 से ।  लेकिन  अब मुझे उस से ऊब सी होने लगी  थी । मुझे कुछ और , कुछ आगे का चाहिये था ..... और मुर्शिद मेरे सामने  खड़ा  था ! उन्हो ने मुझे इन ज़रूरी पत्रिकाओं के पते लिखवाए।

मैं ने इन पत्रिकाओं से पत्राचार करना शुरू किया और इस तरह मेरी बरबादी का एक और दौर शुरू हुआ ।