- संज्ञा उपाध्याय
उसका
पूरा ध्यान मोबाइल में था. आसपास से एकदम बेखबर. आँखें भावहीन, पथरायी-सी. मोबाइल की पूरी
स्क्रीन पर नज़र फिराने भर की नामालूम-सी हरकत पुतलियों की न होती, तो यह एक निर्जीव, निर्विकार चेहरा था. मैं उससे बात
करने को बेचैन थी. उसका ऐसा चेहरा मेरी बेचैनी को और बढ़ा रहा था. छह साल की बच्ची
का चेहरा क्या ऐसा होना चाहिए?
उसका ध्यान मोबाइल स्क्रीन से बाहर खींचने के मैं दो-तीन असफल प्रयास कर चुकी थी. न मेरे शब्द उसे छू रहे थे और न उसकी छोटी-सी चोटी को शरारत से लपेटती-घुमाती मेरी उँगलियाँ उसे खिजा रही थीं. वह सब अहसासों से दूर थी. मोबाइल रख देने का अपनी माँ का आदेश उसने अनसुना नहीं किया था. वह सुन ही कहाँ रही थी कुछ! माँ ने मोबाइल छीनने का प्रयास किया, तो उसने उसे दृढ़ता से पकड़े रखा. कुहनियों और बाजुओं से माँ के आगे बढ़ते हाथों को धकियाया. इस सबके बीच उसकी उँगलियाँ बिना रुके मोबाइल के बटनों पर नाचती रहीं, नज़र और ध्यान स्क्रीन से हटकर ज़रा भी न भटके.
उसकी माँ, मेरी दोस्त, झल्लाकर रसोई में चाय बनाने चली गयी. मैं पत्रिकाएँ उलट-पलट सकती थी या अपनी दोस्त के पास रसोई में जाकर गपिया सकती थी. पर मुझे तो उससे बतियाना था!
कमरे में सन्नाटा पसरा था. मैंने उसके पास बैठ मोबाइल की स्क्रीन में झाँका. एक लड़का तेज गति से दौड़ता सीढ़ियों पर चढ़ा जा रहा था. दायें-बायें कोई फल, टॉफी, केक प्रकट होता. “यह क्या कर रहा है?” मैंने पूछा. मेरी आवाज़ में जिज्ञासा का भाव शायद उसे सच्चा लगा. उसने स्क्रीन से नज़र हटाये बिना कहा, “ये सब इसे खिलाना होता है.” मैंने कहा, “इतना सब खा लेता है यह?” मेरे मज़ाक पर उसे हँसी नहीं आयी, लेकिन मेरी कमअक्ली पर तरस ज़रूर आया, उसके होंठों के कोने पर जो खिंचाव पैदा हुआ, उससे मैं जान गयी. “वैसे ऐसा ही खेल मैं अपने घर की सीढ़ियों पर रोज़ खेलती हूँ. बड़ा मज़ा आता है! तुम्हारे घर में सीढ़ियाँ हैं?”
वह शायद थक गयी थी, या बोर हो गयी थी. उसने गहरी साँस छोड़कर मोबाइल रख दिया. यह साँस उस खेल में दौड़ते लड़के की तेज़रफ्तारी के कारण शायद अब तक कहीं अटकी थी. इत्मीनान की साँस लेते हुए उसने मेरी तरफ देखा. “हाँ, हैं.” उसने कमरे से बाहर की ओर इशारा किया, जहाँ सीढ़ियाँ थीं. “खेलें?” मेरे उत्साह भरे स्वर पर उसने मुझे संदेह से देखा.
वह अपने संदेह और असमंजस के साथ मुझे लेकर सीढ़ियों तक आयी...और थोड़ी देर में ही हम सीढ़ियों पर भागती चढ़-उतर रही थीं. दायें-बायें कूदने, दो सीढ़ियाँ फलाँगने, एक पैर से कुदककर सीढ़ी चढ़ने और यह सब करने से चूक जाने पर सज़ा मिलने के नियम वह झटपट बना रही थी. मेरे हारने पर तालियाँ बजाती हँसती. मेरे जीतने पर खीजकर नये नियम गढ़ खेल मेरे लिए मुश्किल बनाती. लगातार हँसने, चिल्लाने, बोलने, दौड़ने, चढ़ने-उतरने के कारण हम पसीने से तर थे. मैं थक रही थी, पर उसका उत्साह बढ़ता जा रहा था. आखिर हम हँसी से दुहरे होते, अपनी साँसें सँभालते सीढ़ियों पर ही बैठ गये. हम बोल नहीं पा रहे थे. बस, एक-दूसरे की ओर देखते और हँस पड़ते.
मेरी दोस्त पानी, मेरी चाय और उसका हॉर्लिक्स बिस्कुटों की प्लेट के साथ सीढ़ियों में वहीँ रख गयी. “दोनों पागल हो!” कहकर वह मुस्कराती हुई चली गयी. हमने एक-दूसरे को देखा और फिर हँस पड़ीं.
अब हम एक सीढ़ी पर थीं. बराबर सटकर बैठीं. वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने दोस्तों से मिला रही थी. अपने स्कूल की सैर करा रही थी. अपने राज़ मुझसे साझे कर रही थी. मेरा फेवरेट कार्टून पूछ रही थी. होमवर्क न करने की मेरी बचपन की आदत पर हैरान हो रही थी. मुझे मिली सज़ाओं पर दुखी हो रही थी. ‘टुथ फेयरी’ को बड़ों का झूठ बताकर वह मुझे एक कहानी सुना रही थी, जिसकी नायिका वह खुद थी. कहानी के दुख, सुख, ख़ुशी, भय, आश्चर्य—सब उसकी आँखों, उसके चेहरे के भावों और आवाज़ के उतार-चढ़ावों में समाये थे. बीच-बीच में कुछ क्षण रुककर वह मेरा चेहरा पढ़ सुनिश्चित करती कि उसकी बात मुझ तक ठीक से पहुँच रही है या नहीं. मेरे चेहरे पर घटना के अनुकूल भाव पा संतुष्ट होती और कहानी आगे बढ़ाती.
तत्काल गढ़ी जाती मगर पूरे मन से लिखी जाती उसकी कहानी उसकी आँखों में तैर रही थी. चेहरे का हर रग-रेशा ज़िंदा था. उसकी आवाज़ का जादू चारों ओर फैला था. आसपास पूरी दुनिया धड़क रही थी.
उसका ध्यान मोबाइल स्क्रीन से बाहर खींचने के मैं दो-तीन असफल प्रयास कर चुकी थी. न मेरे शब्द उसे छू रहे थे और न उसकी छोटी-सी चोटी को शरारत से लपेटती-घुमाती मेरी उँगलियाँ उसे खिजा रही थीं. वह सब अहसासों से दूर थी. मोबाइल रख देने का अपनी माँ का आदेश उसने अनसुना नहीं किया था. वह सुन ही कहाँ रही थी कुछ! माँ ने मोबाइल छीनने का प्रयास किया, तो उसने उसे दृढ़ता से पकड़े रखा. कुहनियों और बाजुओं से माँ के आगे बढ़ते हाथों को धकियाया. इस सबके बीच उसकी उँगलियाँ बिना रुके मोबाइल के बटनों पर नाचती रहीं, नज़र और ध्यान स्क्रीन से हटकर ज़रा भी न भटके.
उसकी माँ, मेरी दोस्त, झल्लाकर रसोई में चाय बनाने चली गयी. मैं पत्रिकाएँ उलट-पलट सकती थी या अपनी दोस्त के पास रसोई में जाकर गपिया सकती थी. पर मुझे तो उससे बतियाना था!
कमरे में सन्नाटा पसरा था. मैंने उसके पास बैठ मोबाइल की स्क्रीन में झाँका. एक लड़का तेज गति से दौड़ता सीढ़ियों पर चढ़ा जा रहा था. दायें-बायें कोई फल, टॉफी, केक प्रकट होता. “यह क्या कर रहा है?” मैंने पूछा. मेरी आवाज़ में जिज्ञासा का भाव शायद उसे सच्चा लगा. उसने स्क्रीन से नज़र हटाये बिना कहा, “ये सब इसे खिलाना होता है.” मैंने कहा, “इतना सब खा लेता है यह?” मेरे मज़ाक पर उसे हँसी नहीं आयी, लेकिन मेरी कमअक्ली पर तरस ज़रूर आया, उसके होंठों के कोने पर जो खिंचाव पैदा हुआ, उससे मैं जान गयी. “वैसे ऐसा ही खेल मैं अपने घर की सीढ़ियों पर रोज़ खेलती हूँ. बड़ा मज़ा आता है! तुम्हारे घर में सीढ़ियाँ हैं?”
वह शायद थक गयी थी, या बोर हो गयी थी. उसने गहरी साँस छोड़कर मोबाइल रख दिया. यह साँस उस खेल में दौड़ते लड़के की तेज़रफ्तारी के कारण शायद अब तक कहीं अटकी थी. इत्मीनान की साँस लेते हुए उसने मेरी तरफ देखा. “हाँ, हैं.” उसने कमरे से बाहर की ओर इशारा किया, जहाँ सीढ़ियाँ थीं. “खेलें?” मेरे उत्साह भरे स्वर पर उसने मुझे संदेह से देखा.
वह अपने संदेह और असमंजस के साथ मुझे लेकर सीढ़ियों तक आयी...और थोड़ी देर में ही हम सीढ़ियों पर भागती चढ़-उतर रही थीं. दायें-बायें कूदने, दो सीढ़ियाँ फलाँगने, एक पैर से कुदककर सीढ़ी चढ़ने और यह सब करने से चूक जाने पर सज़ा मिलने के नियम वह झटपट बना रही थी. मेरे हारने पर तालियाँ बजाती हँसती. मेरे जीतने पर खीजकर नये नियम गढ़ खेल मेरे लिए मुश्किल बनाती. लगातार हँसने, चिल्लाने, बोलने, दौड़ने, चढ़ने-उतरने के कारण हम पसीने से तर थे. मैं थक रही थी, पर उसका उत्साह बढ़ता जा रहा था. आखिर हम हँसी से दुहरे होते, अपनी साँसें सँभालते सीढ़ियों पर ही बैठ गये. हम बोल नहीं पा रहे थे. बस, एक-दूसरे की ओर देखते और हँस पड़ते.
मेरी दोस्त पानी, मेरी चाय और उसका हॉर्लिक्स बिस्कुटों की प्लेट के साथ सीढ़ियों में वहीँ रख गयी. “दोनों पागल हो!” कहकर वह मुस्कराती हुई चली गयी. हमने एक-दूसरे को देखा और फिर हँस पड़ीं.
अब हम एक सीढ़ी पर थीं. बराबर सटकर बैठीं. वह मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपने दोस्तों से मिला रही थी. अपने स्कूल की सैर करा रही थी. अपने राज़ मुझसे साझे कर रही थी. मेरा फेवरेट कार्टून पूछ रही थी. होमवर्क न करने की मेरी बचपन की आदत पर हैरान हो रही थी. मुझे मिली सज़ाओं पर दुखी हो रही थी. ‘टुथ फेयरी’ को बड़ों का झूठ बताकर वह मुझे एक कहानी सुना रही थी, जिसकी नायिका वह खुद थी. कहानी के दुख, सुख, ख़ुशी, भय, आश्चर्य—सब उसकी आँखों, उसके चेहरे के भावों और आवाज़ के उतार-चढ़ावों में समाये थे. बीच-बीच में कुछ क्षण रुककर वह मेरा चेहरा पढ़ सुनिश्चित करती कि उसकी बात मुझ तक ठीक से पहुँच रही है या नहीं. मेरे चेहरे पर घटना के अनुकूल भाव पा संतुष्ट होती और कहानी आगे बढ़ाती.
तत्काल गढ़ी जाती मगर पूरे मन से लिखी जाती उसकी कहानी उसकी आँखों में तैर रही थी. चेहरे का हर रग-रेशा ज़िंदा था. उसकी आवाज़ का जादू चारों ओर फैला था. आसपास पूरी दुनिया धड़क रही थी.