Saturday, October 23, 2010

पूर्वा की मौलिकता --2







पिछले पोस्ट मे आप ने पूर्वा की मौलिक कविता पढ़ी। और अपनी कविता के प्रति उस के आत्मविश्वास के बारे अवगत हुए. इस बीच निरंजन से मुझे वह पत्र प्राप्त हुआ है जो पूर्वा के आहत होने पर कवि एवम सम्पादक सुरेश सेन निशांत ने उसे लिखा. भाई निशांत और निरंजन को लगा कि यह पत्र कविता पर ज़रूरी विमर्श को आगे बढ़ाएगा. इस लिए हम ने इसे यहाँ लगाने का फैसला किया.




इधर हिन्दी जगत मे जब कि बहुत से लोग कविता के खत्म होने की घोषणाएं कर रहें हैं , यह पूरी परिघटना उन फतवेबाज़ मठाधीशों की दृष्टि को ज़रा सम्पन्न करेगी इस आशा के साथ,



कि बची रहे इतनी सी क्षमाशीलता



बचा रहे इतना सा स्वाभिमान



बची रहे इतनी सी विनम्रता
बचा रहे इतना सा साहस




चिट्ठियां बचीं रहें..... तो बची रहेगी कविताएं भी शायद......











पूर्वा के नाम

‘पूर्वा’ मुझे दुख है कि आकण्ठ में छपी तुम्हारी कविता में जो परिवर्तन मैंने किया है उससे तुम आहत हो ... तुम्हारा आहत होना जायज है। गलती मेरी है। मुझे तुम्हारे पापा से नहीं तुमसे बात करनी चाहिए थी। किसी भी रचना की पंक्तियों को बदलने का अध्किार उसके रचनाकार को ही है, जो उसका रचयिता होता है। मेरी कविता को कोई भी सम्पादक अगर बदले तो शायद मैं उसे कभी क्षमा नहीं करूंगा। यह जानते हुए भी मैंने यह अपराध् है, जो जरा भी क्षमा योग्य नहीं है। मैं शार्मिंदा हूं ... तुम में एक बड़ा कवि बनने के गुण व स्वाभिमान है और मैंने तुम्हारे उसी गुण को ठेस पहुंचाई है। मैं सचमुच अपने इस कृत्य पर शर्मिंदा हूं। मैंने ऐसा पता नहीं किस मनःस्थिति में किया है। अगर मैं तुमसे मापफी भी मांगू तब भी मेरे इस अपराध् का ताप कम होने वाला नहीं है।

वैसे मुझे यह कहने का अध्किार तो नहीं है पिफर भी मैं कुछ बातें कविता के बारे में तुमसे कहना चाहूंगा। स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ तुम्हें समकालीन कविता का थोड़ा-थोड़ा अध्ययन करते रहना चाहिए। तुम में प्रतिभा के संग-संग स्वाभिमान भी है। जो तुम्हारी राह की सभी बाधओं को हटाता रहेगा। कविताएं लगातार पढ़ने से तुम में अभिव्यक्ति का विकास होगा। बिम्बों और प्रतीकों का इस्तेमाल करने के साथ-साथ शब्दों के प्लेसमैंट का तौर-तरीका भी जान जाओगी, जो तुम्हारी कविताओं को सुन्दर और आकर्षक बनाएगा। तुम कोशिश करना कि भावों को सरल से सरल भाषा व शब्दों में किस तरह अभिव्यक्त करना है। तुम्हारी यह कोशिश तुम्हारी कविता को सबसे साधरण व सरल आदमी तक पहुंचाएगी। बड़ा होने पर तुम देखोगी कि कहीं न कहीं यह गुण हमारे कबीर और तुलसी में भी रहा है। उनके इसी गुण ने उन्हें जन-जन तक पहुंचाया है। खाली वक्त में कविता जरूर लिखते व पढ़ते रहना। कविता तुम्हें एक नए ढंग से इस दुनिया को देखने व समझने का नजरिया देगी। तुम में दूसरों के दुख व दर्द को समझने की काबलियत पैदा करेगी, तुम्हें एक अच्छा इन्सान बनने में मदद करेगी। पूर्वा ... तुम उम्र में मेरे बच्चों से भी छोटी हो, पर जब तुम किसी को क्षमा करोगी तो तुम अपने मन में झांकना, तुम सचमुच अपने आपको बहुत बड़ा समझोगी, तुम देखोगी कि कविता सचमुच आदमी को कितना विनम्र बनाती है ... वह हमें क्षमा करना सीखाती है ... हमें क्षमाशील बनाती है।




सुरेश सेन निशांत

Wednesday, October 20, 2010

पूर्वा की मौलिक कविता




पूर्वा मेरे मित्र निरंजन देव शर्मा की जुड़वाँ बेटियों मे से एक है .हाल ही में कविता की पत्रिका आकण्ठ के हिमाचल विशेषाँक मे उस की एक कविता पृथ्वी शीर्षक से छपी.हालाँकि उसे भाई निशांत और निरंजन ने मिल कर खूबसूरती से तराश दिया था और एक बेहतर परिपक्व कविता बन पड़ी थी. .... लेकिन सम्पादित रूप मे पूर्वा ने उस कविता को अपना मानने से इनकार कर दिया.उस ने साफ साफ कह दिया कि "यह कविता मेरे नाम से नहीं छपनी चाहिए थी".सातवीं कक्षा की इस छात्रा का अपने लिखे हुए पर यह आत्म विश्वास देख कर मैं फक़त इतना ही कर पा रहा हूँ कि वह कविता मूल रूप में यहाँ लगा रहा हूँ.इस लिए नही कि इस नन्हे कवि ने एक महान कविता लिखी है; बल्कि इस लिए कि मैं उस की महान ज़िद और जुनून का सम्मान करना चाहता हूँ.सच्ची कविता की यही दो प्राथमिक शर्तें हैं.


प्रकृति

पहाड़ों से सजाई
फूलों से खिलाई
ईश्वर ने हमारी यह धरती थी जब बनाई
कोई कमी न थी छोड़ी
पर इक गलती कर दी थोड़ी
दे दी अक्ल हमें ज्यादा
गलत था मानवीय इरादा
तभी पहाड़ हो गए हैं खाली
क्या करे बेचारा माली
जब फूलों का ही मिट गया है नमो –निशान
अब तो ईश्वर भी हो गए हैं हैरान
छिपा है
हाँ छिपा है इंसानी जीत की हर खुशी में
एक बड़ा नुकसान
जिससे हर कदम पर हो रही है
प्रकृति परेशान

Thursday, October 14, 2010

हिमालय पर धावा ?

घबराईए नहीं, यह यह आक्रमण चीन या कोई और पड़ोसी मुल्क नहीं हमारे अपने ही लोग कर रहे हैं। इस जिप्सी पर लगी चिप्पी बता रही है 1999 से ले कर कुछ लोग हर वर्ष इस raid-de himalaya को सरंजाम दे रहे हैं। इस शब्द Raid पर ज़रा गौर कर लेना चाहिए. इस शब्द के पीछे के मानसिकता काम कर रही है. जो कि एक आम हिमालयी मानस के attitude का प्रतिनिधित्व नही करती. हम अपने हिमालय के साथ तादात्मयता के साथ जीते आये हैं. आगे भी वैसे ही जीना चाहते हैं. प्रकृति पर विजय पाने की अवधारणा शायद भारतीय सोच का हिस्सा ही नही है. तो फिर यह सोच कहाँ से आ रही है?
आज शाम को पाँच बजे जब दफ्तर से लौट रहा था, तो raid-de Himalaya की पहली गाड़ी स्पिति के दुर्गम पठारों , पीर पंजाल के दुरूह दर्रों को को रौन्दती –कुचलती केलंग की जर्जर गलियों तक पहुँच गई थी. इस गाड़ी की तस्वीर खींचते हुए यह विचार मुझे परेशान कर रहा था और मैं सहसा *अतिक्रमित* सा महसूस करने लगा था. क्या हमॆं इस Raid का स्वागत करना चाहिए ?


Saturday, October 9, 2010

तुम ने गहरी खुरच डाली स्वर्ग की धरती.....

'लिखो यहाँ वहाँ ' पर आप ने लद्दाख त्रासदी पर यादवेन्द्र पाण्डेय जी का लम्बा आलेख देखा. और कुछ तस्वीरें भी. ये कविताएं उन्हो ने लद्दाख यात्रा से लौटते ही मुझे मेल की थीं. गलती से बिटिया के हाथों डिलीट हो गया. मेरे अनुरोध पर उन्हो ने तस्वीरों के साथ इन्हे फिर से मेल किया है . अभी मेरा नेट काम कर रहा है तो शुरुआत ये कविताएं पोस्ट कर के कर रहा हूँ. त्रासदी के बाद लद्दाख को एक कवि की नज़र से देखिये:




सर्द रेगिस्तान से गुजरते हुए

अरे ओ छत पर छुपे बैठे निष्ठुर,
अपने ऐशो आराम के लिए
अट्टालिकाएं,नहरें और बिजलीघर बनाते बनाते
तुमने गहरी खुरच डाली स्वर्ग की धरती
और उड़ेल दिया अपने घर का सारा मलबा
बेचारी सब की भौजी जैसी सीधी सरल धरती पर
ढांप दिए जंगल, गाँव, झरने और झील....
ऊँचाई के इसी दंभ ने लील ली तुम्हारी सहज मानव वृत्ति
और तेरी स्मृति से बेशर्मी से फिसल गया
इस मिट्टी में हरियाली के बीज रोपने का सबसे जरुरी काम....
साँय साँय करते भुतहे अभिशप्त रेगिस्तान में
अब घूमते हैं भूख और वंचना के अंधड़ में जहाँ तहां
अपनी धरती से उजड़े हुए आदिम सभ्यता के बीज पुरुष
मुछों की रेख उगाने की आपा धापी में मशगूल
हजारों हजार दुमका मजदूर...
कुछ तो सोच खुद पर लट्टू..अरे ओ निष्ठुर
इस सर्द रेगिस्तान को अंकुरण देने वाली ऊष्मा की बाबत
मिट्टी,बीज और जड़ों की बाबत...

काश

रात भर अंधे जूनून में मदहोश
सारे महल चौबारे हिला कर रख देने वाली
घर से बिन बताये भागी हुई कुँवारी आवारा हवा
सुबह होते ही
सितारों की घोडागाडी पर लिफ्ट लेकर ओझल हो जाती है
किसी लिहाजदार चोर की मानिंद...
मुझे पहले मालूम होता
तो सूटकेस में
इतनी जगह और बची थी कि
कपडे,शेविंग किट, किताबें और पानी की बोतल के साथ
अपने शहर से ले आता
मिठाई के डिब्बों में भर कर
आधी रात की प्रेमरस से उभ चुभ होती उन्मादी कूक के साथ
पक्षियों की भोर की पंचायती नोंक झोंक
और प्रिय को रिझाने वाली लम्बी तान वाली प्यार की मनुहार भी...
कुछ तो बँटता इस तरह बिछुडों का विरह

सिर के ऊपर

निहायत बेरुखी से जाने किसकी इज्जत की खातिर
मायके से निकाल दी गयी थोड़ा सा ताक झाँक करती अल्हड धरती
देखो तो फिर भी कैसे ठाठ से
बगैर किसी की मर्ज़ी की परवाह किये
लाल.पीले और चटक बैंगनी फूलों का गजरा बांधे

इस जलहीन वीराने में भी करीने से संवारती इतराती है...
उसको अपना दमख़म साधते दिखते जो हैं
जाने कितने जन्मों से व्याकुल भूखे
स्त्री देह की गहराई नाप लेने को आतुर
आसमान से टकटकी लगा कर ललचाई आँखों से ताकते
आकाशगंगा और चाँद सितारे
गर्म उसांसें लेते अपने इतने पास
जैसे उद्धत हो कर उतर ही आये हों
बौरायी लटों में उंगलियां फंसाने
बिलकुल उनके सिर के ऊपर ....