‘’ह्रीं ..ह्रीं …फट ..फट ऊंचार ...हुंकार क्लीं ..क्लीं फट्ट ! ह्रीं…!’ के उपरांत उसने कुछ अस्फुट टकार वर्णक्रम के व्यंजनों से भरे हुए वर्णों से संपन्न मंत्रोच्चर- शब्दोच्चार किया और पुन: अपने बाहुओं को ऊर्ध्वोन्मुख, दक्षिण दिशांत की ओर झुलाते हुए, उच्च स्वरों में कहा, जिसे सुन कर गर्भधारिणी स्त्रियों, पक्षियों, गउओं समेत समस्त जलचर, थलचर तथा नभचर प्राणियों का गर्भापात हुआ एवं नवजात अकाल काल-कवलित हुए :
‘मैं यदि उस दुष्ट आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को यह शाप देता हूं तो इसका लक्ष्य संकीर्ण एवं सीमित रहेगा. इसीलिए मैं इस महाभिशाप से आप समस्त उपस्थित और अनुपस्थित विभूति-आकांक्षियों को अभिसिक्त करता हूं. आप सब इस अभिशाप के आजीवन आधीन रहेंगे तथा मृत्योपरांत आपकी संततियां भी इससे विमुक्त नहीं हो सकेंगी ….!’
तत्पश्चात उसने एक अतीव अट्टहास किया और कहा :
‘आज के पश्चात, अर्थात, यह जो भी दिवस, प्रहर, घटी, संवत्सर, वर्ष और पल हो, आप में से जो भी उस अचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को प्रश्रय, शरण, समर्थन, भोजन, शयन इत्यादि प्रदान करने का दुष्प्रयत्न करेगा अथवा उसकी प्रशंसा, आतिथ्य का नियोजन करेगा, उसका मस्तक स्वत: अपने धड़ से पृथक हो कर भूमि पर गिर जायेगा. ऐसा करने वाले का शिरोच्छेदन करने के लिए, आज से समस्त तंत्र विवश और वाध्य होंगे…!’
इतना कह कर उस विकराट, भयप्रद प्राणी ने गौ, अश्व, नर, स्त्री तथा शिशु मांस का भक्षण किया और अट्टहास करता हुआ दक्षिण दिशा की ओर, जिधर पाताल का साम्राज्य था और जहां इस मध्याह्न में भी अर्द्ध-रात्रि बेला थी, प्रस्थान कर गया.
जाते हुए उसने जो डकार तथा अपान वायु का निसर्जन किया उससे समस्त वायु मंडल आप्लावित हो गया.
किंवदंती है कि तब से आज तक हर तंत्रोपासक अथवा तंत्राश्रित बौद्धिक तथा सताश्रयी-सत्तासीन मानवतनधारी उस आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को अपशब्दों, अपमानजनक विश्लेषणों, अफ़वाहों इत्यादि से संबोधित करता रहता है.
यही कारण है, आप ध्यान से अपने आसपास के ऐसे लोगों को देखें, उनके सिर उनके कबंधों पर न सिर्फ़ सुशोभित हैं बल्कि उनके मस्तकों पर राज-मुकुट भी धरे हुए दीखते हैं.
उन्हें आप पंच मकारों अर्थात मांस, मत्स्य, मुद्रा, मदिरा और अनवरत मैथुन में निमग्न देख सकते हैं. तनिक अपनी भाषा एवं भूगोल में देखें, वे छाये हुए हैं.
इसी के लिए उन्होंने एक ‘ग्लोबल-व्यवस्था’ अथवा 'करप्ट कास्ट कम्युनल नेक्सस' का निर्माण कर रखा है.
जहां तक आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम का प्रश्न है, तो वे किन्हीं कंदराओं, वनों और दुर्गम पर्वतों में किसी अज्ञात स्थल में रह रहे होंगे.
उनका क्या है ?
वे तो अब भी राजमार्गों के आसपास उगे वृक्षों के तनों की खाल पर कुछ न कुछ वाक्य उत्कीर्ण करते रहते हैं.
दावाग्नि इसी से उत्पन्न होती है.
(जारी )
‘मैं यदि उस दुष्ट आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को यह शाप देता हूं तो इसका लक्ष्य संकीर्ण एवं सीमित रहेगा. इसीलिए मैं इस महाभिशाप से आप समस्त उपस्थित और अनुपस्थित विभूति-आकांक्षियों को अभिसिक्त करता हूं. आप सब इस अभिशाप के आजीवन आधीन रहेंगे तथा मृत्योपरांत आपकी संततियां भी इससे विमुक्त नहीं हो सकेंगी ….!’
तत्पश्चात उसने एक अतीव अट्टहास किया और कहा :
‘आज के पश्चात, अर्थात, यह जो भी दिवस, प्रहर, घटी, संवत्सर, वर्ष और पल हो, आप में से जो भी उस अचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को प्रश्रय, शरण, समर्थन, भोजन, शयन इत्यादि प्रदान करने का दुष्प्रयत्न करेगा अथवा उसकी प्रशंसा, आतिथ्य का नियोजन करेगा, उसका मस्तक स्वत: अपने धड़ से पृथक हो कर भूमि पर गिर जायेगा. ऐसा करने वाले का शिरोच्छेदन करने के लिए, आज से समस्त तंत्र विवश और वाध्य होंगे…!’
इतना कह कर उस विकराट, भयप्रद प्राणी ने गौ, अश्व, नर, स्त्री तथा शिशु मांस का भक्षण किया और अट्टहास करता हुआ दक्षिण दिशा की ओर, जिधर पाताल का साम्राज्य था और जहां इस मध्याह्न में भी अर्द्ध-रात्रि बेला थी, प्रस्थान कर गया.
जाते हुए उसने जो डकार तथा अपान वायु का निसर्जन किया उससे समस्त वायु मंडल आप्लावित हो गया.
किंवदंती है कि तब से आज तक हर तंत्रोपासक अथवा तंत्राश्रित बौद्धिक तथा सताश्रयी-सत्तासीन मानवतनधारी उस आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को अपशब्दों, अपमानजनक विश्लेषणों, अफ़वाहों इत्यादि से संबोधित करता रहता है.
यही कारण है, आप ध्यान से अपने आसपास के ऐसे लोगों को देखें, उनके सिर उनके कबंधों पर न सिर्फ़ सुशोभित हैं बल्कि उनके मस्तकों पर राज-मुकुट भी धरे हुए दीखते हैं.
उन्हें आप पंच मकारों अर्थात मांस, मत्स्य, मुद्रा, मदिरा और अनवरत मैथुन में निमग्न देख सकते हैं. तनिक अपनी भाषा एवं भूगोल में देखें, वे छाये हुए हैं.
इसी के लिए उन्होंने एक ‘ग्लोबल-व्यवस्था’ अथवा 'करप्ट कास्ट कम्युनल नेक्सस' का निर्माण कर रखा है.
जहां तक आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम का प्रश्न है, तो वे किन्हीं कंदराओं, वनों और दुर्गम पर्वतों में किसी अज्ञात स्थल में रह रहे होंगे.
उनका क्या है ?
वे तो अब भी राजमार्गों के आसपास उगे वृक्षों के तनों की खाल पर कुछ न कुछ वाक्य उत्कीर्ण करते रहते हैं.
दावाग्नि इसी से उत्पन्न होती है.
(जारी )