Thursday, May 31, 2012

बोली नहीं सहभाषा कहिए !


   

दूसरी किताब का नाम है ‘हिमाचली’ . यह किताब  साहित्य अकादमी , दिल्ली ने प्रकाशित की है.  प्रकाशकीय मे  सूचित किया गया है कि यह पुस्तक मूलतः एक योजना के तहत लिखवाया गया विनिबंध है, जिस की अनुशंसा हिन्दी परामर्श मण्डल से फरवरी 2004 मे प्राप्त हुई . हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार गिरिराज किशोर उन दिनो हिन्दी परामर्श मण्डल  के संयोजक थे . उन्हो ने हिन्दी की बोलियों के लिए ‘हिन्दी की सहभाषाएं’  नाम सुझाया . विनिबन्ध प्रकाशन के लिए एक उपसमिति गठित की गई जिस मे गिरिराज किशोर के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक मेनेजर पाण्डेय तथा हिन्दी भाषा के वरिष्ठ चिंतक विश्वनाथ त्रिपाठी सदस्य बने. इस योजना के पीछे यह विचार था कि हिन्दी की प्रमुख बोलियों (सहभाषाओं) की एक शृंखला प्रकाशित की जाय , ताकि खड़ी  बोली हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को तय करने मे इन बोलियों ( सहभाषाओं) के योगदान का आकलन हो सके. उप समिति का सुझाव था कि इस श्रृंखला  के प्रथम चरण में हिमाचली ,कुमाऊँनी, गढ़वाली, हरियाणवी, भोजपुरी, अवधी आदि हिन्दी की बोलियों (सहभाषाओं) पर विनिबंध लिखवाएं जाएं. 

हिन्दी परामर्ष मण्डल की इस महती योजना के पीछे निस्सन्देह एक महत्वपूर्ण किंतु संवेदनशील एजेंडा था. इसी लिए इस पुस्तक चर्चा को सुनना मेरे लिए बहुत ज़रूरी था . और ज़ाहिर है इस चर्चा के दौरान मैने कुछ आश्चर्यजनक एवम रोचक टिप्पणियाँ दर्ज कीं :

लेखकीय वक्तव्य ( वक्तव्य हिन्दी भाषा में था) में श्री मौलू राम ठाकुर ने साहित्य अकादमी दिल्ली के  इस बुक रिलीज़ फंक्शन को ऐतिहासिक  आयोजन बताया . फिर उन्हो ने स्पष्ट किया कि

# यह उनकी  अपनी  किताब (हिमाचली) का लोकार्पण होने के कारण या फिर उन की अपनी संस्था (देवप्रस्थ साहित्य एवम कला संगम कुल्लू) का  आयोजन होने के कारण ऐतिहासिक नहीं है, वरन हिमाचली को सहभाषा के रूप मे पहचान मिलने के कारण  ऐतिहासिक है.

# आरम्भ में सम्विधान की 8वी अनुसूचि मे केवल 15 भाषाएं थीं. आज 22 हैं .

# साहित्य अकादमी दिल्ली  ने हिमाचल की भाषा को 1997 मे इस के दो लेखकों को पुरस्कृत  कर के पहचाना .

# हिन्दी / उर्दू का कुल्लू क्षेत्र मे आरम्भ से ही घोर विरोध रहा है. जब वे स्कूल मे पढ़ते थे हिन्दी बोलने वाले के लिए कहावत थी—“ देशी गधा विलायती भाषा”.

उन्हों ने आगे जानकारी दी : 

# “हिन्दी की सहभाषा के रूप मे “हिमाचली भाषा” पर किताब लिखने का  प्रस्ताव मुझे साहित्य अकादमी दिल्ली से प्राप्त हुआ. पुस्तक के अध्याय तय थे, पृष्ठ संख्या तय थे, अध्यायों में ग्रामर की बात नहीं थी . केवल विवेच्य सहभाषा के साथ हिन्दी के संबंधों की बात थी. यह मेरे लिए रोचक था और सुविधाजनक भी.” 

उन्हो ने दावा किया कि इस विनिबंध मे हिमाचल की भाषा मे लिखी गई समस्त विधाओं की पुस्तकों का सन्दर्भ लिया गया  है.

# Peoples Linguistic survey of India  -2011  मे बतौर  हिमाचल खण्ड  के  सह – सम्पादक  काम कर रहे  श्री तोबदन ने जानकारी दी कि विवेच्य विनिबंध इस विषय पर पहला  और अकेला काम है  और बहुत महत्वपूर्ण है . क्यों कि इसी लेखक की एक किताब पहाड़ी भाषा का व्याकरण नाम से 2008 मे हिमाचल अकादमी ने भी छापी है.

# व्युत्पत्ति विद श्री विद्या चन्द ठाकुर ने बताया कि जॉर्ज ग्रियरसन ने  काँगड़ी  और कहलूरी को पंजाबी >  डोगरी की उपबोलियाँ  कहा था . इस स्थापना को इस पुस्तक मे श्री मौलू राम ने निराधार सिद्ध कर दिया है क्यों कि ग़्रियर्सन साहब को इन बोलियों के ग्राम्य स्वरूप का ज्ञान नही था. जो कि पंजाबी>डोगरी  से नितांत भिन्न है.

# अकादमी के उप सचिव बृजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि भाषा , उपभाषा और बोलियों का भेद आज निरर्थक है . अकादमी समस्त भाषाओं को सम्मान की दृष्टि से देखती है.  भारत मे आज 1650 भाषाएं अस्तित्व मे हैं . सम्विधान ने 22 भाषाओ को स्वीकृत किया है जब कि अकादमी ने अंग्रेज़ी और राजस्थानी को मिला कर 24 भाषाएं स्वीकृत की हैं .उन्हो ने अपील की कि लोग अपनी भाषाओं को अपने घरों मे बचाएं .और सलाह दी कि भाषा प्रेमियों को डेविड क्रिस्टल की किताब Language Death ज़रूर पढ़नी चाहिये.

#  डॉ. वरयाम सिंह ने मौलू राम जी के काम की सराहना करते हुए  कहा कि भाषा आप के चिंतन , दृष्टि, मानसिकता, और चेतना को प्रभावित करने की क्षमता रखती  है . भविष्य की लड़ाई अभिव्यक्ति के माध्यमों की लड़ाई  है ; और भविष्य का विषय है “ भाषा विज्ञान” . यह बहुत लज्जाजनक  है कि अपना देश भाषाओ का सब से बड़ा  भण्डार है ,  किंतु भाषा के उच्च अध्ययन की व्यवस्था हमारे यहाँ सब से निकृष्ठ है. यहाँ भाषा का अध्ययन केवल सतही तौर पर  उस के व्याकरण और साहित्य के स्तर पर किया जाता है. भाषा के विकास की वैज्ञानिक अवधारणा से अभी तक देश का बहुत बड़ा  बौद्धिक वर्ग वंचित है. उन्हो ने सूचित किया कि जब वे JNU  मे  SCHOOL  Of LANGUAGE LITERATURE & CULTURE STUDIES के  DEAN थे, उस समय उन्हो ने  UGC  के ACADEMIC COUNCIL  के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि और आवाज़ उठाई थी कि यहाँ के विश्व विद्यालयों में     SCHOOL OF LANGUAGE SCIENCES स्वतंत्र रूप से स्थापित करने की आवश्यकता है .ताकि भाषाओं का सुव्यवस्थित अध्ययन सम्भव हो . लेकिन बड़े हास्यास्पद कारणों के चलते इस संघर्ष को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया . आज इसी का खामियाज़ा हम भुगत रहे हैं कि भाषा विज्ञान नामक विषय को सलीक़े से समझ ही नही पा रहे. उन्हे दुख था कि एक अति महत्वपूर्ण विषय भारतीय प्रतिभा से छूटा रह गया है और छूटता ही  जा रहा है.

बहर हाल मैने तोबदन जी से “हिमाचली” नामक इस किताब की प्रति प्राप्त कर ली है और इन ज़रूरी तथ्यों, सूचनाओं और विचारो के मद्देनज़र अब यह देखना निहायत ही रुचिकर रहेगा कि सिद्धहस्त वैयाकरण , व्युत्पत्तिविद एवम संस्कृति कर्मी समाज चिंतक  श्री मौलू राम ठाकुर ने   
कितने श्रम से हिमाचली  का एक मानक रूप तय्यार किया है ( गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश के पूरे भौगोलिक  विस्तार मे दो दर्जन से अधिक स्वतंत्र भाषाएं बोली समझी जाती हैं जिन मे से कुछ तो नितांत भिन्न भाषा परिवारों से सम्बन्ध रखते हैं!   ) और यह देखना और भी अद्भुत अनुभव रहेगा कि  कौन से तर्क इस मानक हिमाचली को हिन्दी की बोली (सहभाषा) सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किए होंगे; जो कि कथित हिन्दी परामर्श मण्डल का प्रमुख एजेंडा  रहा होगा. 

Tuesday, May 29, 2012

यह पश्चिमी हिमालय कहाँ है ?





दिनांक 28.05.2012 को कुल्लू में भाषा एवम संस्कृति विभाग हिमाचल प्रदेश के तत्वाधान मे साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा दो रोचक पुस्तकों का लोकार्पण आयोजित किया गया.

पहली किताब का नाम था “पश्चिमी हिमालय में नाग परम्परा” .  देवप्रस्थ साहित्य एवम कला संगम कुल्लू द्वारा प्रकाशित  यह पुस्तक वस्तुतः विभिन्न लोगों द्वारा लिखे गए पचास के लगभग निबन्धों का एक संकलन है. जो मुख्यतः हिमाचल प्रदेश व इस के निकटवर्ती इलाक़ों मे जनश्रुतियों और विभिन्न भाषाओं मे उपलब्ध इस विषय के अधिकारिक विद्वानो के  पूर्ववर्ती लेखन पर आधारित है . सर्वश्री तोबदन , विद्यासागर नेगी , विद्याचन्द ठाकुर तेज राम नेगी तथा केशवचन्द्र जैसे प्रबुद्ध लेखक इस मे शामिल हैं.  हालाँकि  एकाध लेखों मे अपने अनुसंधानात्मक अप्रोच के कारण मौलिकता  की झलक भी मिलती है. ऐसे लेखों मे   ठोस ताज़ा स्थापनाएं देने का उपक्रम बेशक बहुत दबा दबा और अंडरटोन  दिखता हो,लेकिन  कुछ ज़रूरी  प्रश्न अवश्य खड़े होते हैं . मसलन लोक परम्परा मे नागों व नारायणों का संघर्ष. (डॉ.  मौलू राम ठाकुर) 18 नागों और 18 ही नारायणो का तिलिस्म (टि. दानवेन्द्र सिंह) , इत्यादि. इन सद्य अनुसंधानित पौराणिक/ लोकिक  अवधारणाओं  पर नए सिरे से बात करने की सम्भावनाएं ज़रूर पैदा होती हैं . बहरहाल 420 पृष्टों की यह  पुस्तक साहित्य अकादमी दिल्ली से फंडेड 1.50 लाख के प्रोजेक्ट के अंतर्गत छापा गया और इस की कीमत 350/- अंकित है . इसे  हीरा लाल ठाकुर तथा विद्या शर्मा  ने मिलकर सम्पादित किया है . पुस्तक चर्चा के सत्र में कुछ दिलचस्प बातें दर्ज कर पाया .

#  निरंजन देव शर्मा का पत्र उन की अनुपस्थिति मे स्थानीय भाषा अधिकारी ने पढ़ा. अपने पत्र मे युवा साहित्य आलोचक कुछ लोक धारणाओं से खासे अभिभूत नज़र आए. मसलन,  नागो का अर्धमानवो की श्रेणी मे रखा  जाना और कहीं कहीं उन का मानव रूप मे उपस्थित हो जाना उन्हे डार्विन के विकासवाद के सूत्रों की पुष्टि करता  दिखाई दिया .

# कवि कथाकार सुदर्शन वशिष्ठ  अधिकारिक सूत्रों के हवाले से  सूचित किया कि नाग ऊँचे परवतों  के वासी थे और जल स्रोतों के स्वामी भी . यह तथ्य बाद की चर्चाओं  मे असंख्य लोक मान्यताओं , कथाओं , गीतों और जनश्रुतियों के संदर्भों से  भी उभर कर आया . लेकिन एक वैज्ञानिक तथ्य के चलते यह मान्यता बहुत चौंकाने वाला है कि साँप ऊँचे पर्वतों पर सर्वाईव नही करते. मसलन लाहुल मे पश्चिम  की ओर जाहलमा से ऊपर, दक्षिण की ओर राल्हा से ऊपर, और स्पिति मे ताबो /लरी से ऊपर साँप प्राकृतिक रूप से ज़िन्दा नही रह सकते .  

# प्रख्यात अनुवादक एवम रूसी भाषा के विद्वान डॉ. वरयाम सिंह ने विद्वानो से अपील की , कि मिथक और इतिहास दो अलहदा विषय हैं इन्हे परस्पर मिला कर खुद कंफ्यूज़ न हों और पाठकों को भी कंफ्यूज़ न करें.

# साहित्य अकादमी के उप सचिव बृजेद्र त्रिपाठी ने स्पष्ट किया कि हमारे पास इतिहास को समझने की दो दृष्टियाँ हैं . पहला  पाश्चात्य  है . जिस मे इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर वैज्ञानिक ढंग से गढ़ा जाता है . दूसरा भारतीय है, जिस मे पुराणों और महाकाव्यों  को ही इतिहास समझने की परम्परा है . भारत के ज़्यादातर विद्वान इसी दृश्टि से परिचालित हैं . लेकिन मैं यह दर्ज करना क़तई  भूल गया कि त्रिपाठी जी ने कौन सी दृष्टि को अधिक न्यायोचित और प्रासंगिक बताया !

# विश्व विख्यात पर्वतारोही एवम हिमालय विद कर्नल प्रेम चन्द ने एक अंतिम प्रश्न द्वारा सभा को स्तब्ध कर दिया कि यह  “पश्चिमी  हिमालय” जिस की संस्कृति पर विवेच्य पुस्तक छापी गई है,  इस का सही सही भौगोलिक विस्तार कहाँ से कहाँ तक माना गया है ? क्या यह महज हिमाचल प्रदेश तक ही सीमित है ?  सम्बद्ध विद्वानो की चुप्पी से प्रतीत होता था कि उन्हो  ने पुस्तक कंसीव करते समय शायद इस अति महत्वपूर्ण बिन्दु पर ध्यान ही नही दिया था  और आनन फानन हिमाचल के कुछ सुपरिचित लेखकों से निबन्ध लिखवा कर इसे पुस्तकाकार छाप दिया.

# तत्पश्चात जङ-जुङ भाषा और बोन संस्कृति के प्रमुख पैरोकार छेरिंग दोर्जे ने भी  तस्दीक किया  कि पश्चिमी हिमालय का क्षेत्र सतलुज शिपकीला से ले कर  काश्मीर के उस पार सुदूर बल्तिस्तान मे कराकोरम के अंतिम छोर पर रोन्दू होर्स शू बेंड  तक  फैला है और इस पूरे भूभाग से ही  एक अति समृद्ध नाग संस्कृति हिमालय के आर पार तक फैल गई थी . जिस के कुछ अंश हिमाचल मे भी  दिख जाते हैं.

अस्तु,  अब इसे एक गफलत ही मान लिया जाय. इन  सेमिनारों मे  हम सतत इम्प्रोवाईज़  करते  रहें !  

...............................................................................................................................जारी , अगले अंक मे समाप्य  

Sunday, May 20, 2012

हम कमज़ोर भाषा मगर मज़बूत सपनों वाले आदमी हैं






“ भूमण्डलीकरण के बाद कुछ ऐसी परिस्थिति बनी है कि इस समय शासक वर्ग का सब से क्रूर हमला आदिवासियों पर है . इस लिए अब मैं अपनी कविता को सब से ज़्यादा इन्ही पर केन्द्रित करना चाहता हूँ . यह बहुत कठिन है और मेरे पास जानकारियाँ बहुत कम हैं . हालाँकि मैंने अपने लेखन , नौकरी और राजनीतिक कर्म की शुरुआत धनबाद से की थी और तभी झारखण्ड आन्दोलन और आदिवासियो के संघर्षों  से जुड़ गया था , लेकिन बीच मे इन से रिश्ता टूटा हुआ सा था . आन्दोलन का पतन भी द्देखा और निराश भी हुआ , जैसा कि मध्यवर्गीय आदमी होता है. मगर अब एक बार फिर मुक्तिबोध की यह उक्ति मेरे लिए प्रासंगिक हो रही है. ----- ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे / तोड़्ने ही होंगे .....!”

---- वरिष्ठ कवि एवम समालोचक मदन कश्यप


कुछ दिन पूर्व शिमला  मे मेरे अनुरोध पर मदन जी ने अपनी कविता “ अपना ही देश’ का बेहद आत्मीय  पाठ किया . हालाँकि पाठ से पूर्व उन्होने यह घोषणा करना बेहद ज़रूरी समझा कि यदि इस कविता मे श्रोताओं को कुछ त्रुटियाँ *नज़र*  आईं तो इस का श्रेय अजेय को ही जएगा, क्यों कि उन्ही के आग्रह पर यह पाठ कर रहा हूँ! मेरे लिए यह घोषणा एक  सुखद आश्चर्य था ! 
 आदिवासियों पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है . तमाम स्वदेशी  विदेशी आभिजात्य शब्दकारों ने आदिवासियों को अपनी अपनी *नज़र*  से देखने दिखाने की कोशिश की है . और निश्चय ही  इन तमाम तरह के लेखन के चलते  आदिम समाजों और मानसिकताओं की हैरतंगेज़ परते हमारे सामने खुलीं हैं .
 इधर निर्मला पुतुल , अनुज लुगून, और प्रभात जैसे आदिवासी  हिन्दी कवियों ने आदिवासी जीवन  के कुछ अनकहे मर्मों  पहलुओं को भी छुआ है, अपनी ठेठ *देसी*  नज़र से .
 सालों से इस विषय को बहुत शिद्दत से पढ़ने के बाद  मुझे महसूस हुआ  है कि  आदिवासी विमर्श को सम्पूर्णता मे समझने के लिए हमें एकाँगी दृष्टि का सहारा नही लेना चाहिए . हमे इन की समस्याओं को सब की *नज़र* से परख़ना चाहिए ... यानि कि अन्दर वालों की नज़र से भी और बाहर वालों की नज़र से भी, और लगातार परखते रहना चाहिए . तुम्हारी आंतरिक सुरक्षा की तीसरी कड़ी के रूप मे मदन जी यह कविता मुझे बहुत ज़रूरी लगी .









अपना ही देश

हमारे पास नहीं है कोई पटकथा


हम खाली हाथ ही नहीं


लगभग खाली दिमाग आएं हैं मंच पर






विचार इस तरह तिरोहित है


कि उस के होने का अहसास तक नहीं है


बस सपने हैं जो हैं


मगर उनकी भी कोई भाषा नहीं है


कुछ रंग हैं पर इतने गड्डमड्ड


कि पहचानना असंभव






वैसे हमारी आत्मा के तहखाने में हैं कुछ शब्द
पर खो चुकीं हैं उस की ध्वनियाँ


निराशा का एक शांत समुन्दर हमारी आँखों में है
और जो कभी आशा की लहरें उठतीं हैं उस में


तो आप हत्या हत्या कह कर चिल्लाने लगते हैं


माफ कीजिएगा
हम किसी और से नहीं
केवल अपनी हताशा से लड़ रहे हैं
आप इसी को देश द्रोह बता रहे हैं






हम हिंस्र पशु नहीं हैं
पर बिजूके भी नहीं हैं
हम चुपचाप संग्रहालय में नहीं जाना चाहते


हालांकि हमारे लेखे आपकी यह दुनिया
किसी अजायब घर से कम नहीं है


हम कमज़ोर भाषा मगर मज़बूत सपनों वाले आदमी हैं
खुद को कस्तूरी मृग मानने से इनकार करते हैं






आप जो भाषा को खाते रहे
हमारे सपनों को खाना चाहते हैं


आप जो विचारों को मारते रहे
हमारी संस्कृति को मारना चाहते हैं


आप जो काल को चबाते रहे


हमारे भविष्य को गटकना चाहते हैं


आप जो सभ्यता को रौन्दते रहे
हमारी अस्मिता को मिटाना चाहते हैं


पर हमारे संघर्षों का इतिहास हज़ार साल पुराना है


आप बहुत बोल चुके हैं हमारे बारे में


इतना ज़्यादा कि
अब आप को हमारा बोलना भी गवारा नहीं है


फिर भी हम बताना चाहते हैं
कि आप जो कर रहे हैं


वह कोई युद्ध नहीं केवल हत्या है


हम हत्यारों को योद्धा नहीं कह सकते


ये बक्साईट के पहाड़  हमारे पुरखे हैं
आप इन्हें सेंधा नमक सा चाटना बन्द कीजिए
यह लाल लोहा माटी हमारी माता है
आप बेसन के लड्डू सा इन्हें भकोसना बन्द कीजिए
ये नदियाँ हमारी बहनें हैं
इन्हे इंग्लिश बीयर की तरह गटकना बन्द कीजिए


उधर देखिए


बलुआई ढलानों पर काँटों के जंजाल के बीच


बौंखती वह अनाथ लड़की
जनुम हटा हटा कर कब्र देखना चाह रही है
कहीं उसकी माँ तो दफ्न नहीं है वहाँ
वह बार बार कोशिश कर रही है हड़सारी हटाने की


जिस के नीचे पिता की लाश ही नहीं
उस की अपनी ज़िन्दगी दबी हुई है




आप के सिपाहियों के डर से
शेरनी की माँद तक में छिप जातीं हैं लड़कियाँ
हमें शांत छोड़ दीजिए अपने जंगल में
हम हरियाली चाह्ते हैं आग की लपटें नहीं
हम मांदल की आवाज़ें सुनना चाहते हैं


गोलियों की तड़तड़ाहट नहीं


न पर्वतों पर खाऊड़ी है
न ही नदी किनारे बड़ोवा
अगली बरसात में
फूस का छत्रा बन जाएंगी हमारी हमारी झोंपड़ियाँ
हमें अपना अन्न उगाने दीजिए


अपना छ्प्पड़ छाने दीजिए  
भला आप क्यों बनाना चाहते हैं यहाँ


मिलिटरी छावनी
यहा तो चारों तरफ अपना ही देश है


देखिये आसमान से बरसने लगी है
वर्षा की कोदो के भात जैसी  बूँदें


अब तो बन्द कीजिए गोलियाँ बरसाना !

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`जनुम = काँटों का जाल

हड़सारी = कब्र पर रखा पत्थर

खाऊड़ी, बड़ोवा  = जंगली घास