दूसरी किताब का नाम
है ‘हिमाचली’ . यह किताब साहित्य
अकादमी , दिल्ली ने प्रकाशित की है. प्रकाशकीय
मे सूचित किया गया है कि यह
पुस्तक मूलतः एक योजना के तहत लिखवाया गया विनिबंध है, जिस की अनुशंसा हिन्दी
परामर्श मण्डल से फरवरी 2004 मे प्राप्त हुई . हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार गिरिराज
किशोर उन दिनो हिन्दी परामर्श मण्डल के संयोजक थे . उन्हो ने हिन्दी की बोलियों के
लिए ‘हिन्दी की सहभाषाएं’ नाम सुझाया . विनिबन्ध
प्रकाशन के लिए एक उपसमिति गठित की गई जिस मे गिरिराज किशोर के अतिरिक्त हिन्दी
साहित्य के वरिष्ठ आलोचक मेनेजर पाण्डेय तथा हिन्दी भाषा के वरिष्ठ चिंतक विश्वनाथ
त्रिपाठी सदस्य बने. इस योजना के पीछे यह विचार था कि हिन्दी की प्रमुख
बोलियों (सहभाषाओं) की एक शृंखला प्रकाशित की जाय , ताकि खड़ी बोली हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को तय करने मे
इन बोलियों ( सहभाषाओं) के योगदान का आकलन हो सके. उप समिति का सुझाव था कि इस
श्रृंखला के प्रथम चरण में हिमाचली
,कुमाऊँनी, गढ़वाली, हरियाणवी, भोजपुरी, अवधी आदि हिन्दी की बोलियों (सहभाषाओं) पर
विनिबंध लिखवाएं जाएं.
हिन्दी परामर्ष
मण्डल की इस महती योजना के पीछे निस्सन्देह एक महत्वपूर्ण किंतु संवेदनशील एजेंडा
था. इसी लिए इस पुस्तक चर्चा को सुनना मेरे लिए बहुत ज़रूरी था . और ज़ाहिर है इस
चर्चा के दौरान मैने कुछ आश्चर्यजनक एवम रोचक टिप्पणियाँ दर्ज कीं :
लेखकीय वक्तव्य (
वक्तव्य हिन्दी भाषा में था) में श्री मौलू राम ठाकुर ने साहित्य अकादमी दिल्ली
के इस बुक रिलीज़ फंक्शन को ऐतिहासिक आयोजन बताया . फिर उन्हो ने स्पष्ट किया कि
# यह उनकी अपनी
किताब (हिमाचली) का लोकार्पण होने के कारण या फिर उन की अपनी संस्था
(देवप्रस्थ साहित्य एवम कला संगम कुल्लू) का आयोजन होने के कारण ऐतिहासिक नहीं है, वरन हिमाचली
को सहभाषा के रूप मे पहचान मिलने के कारण ऐतिहासिक है.
# आरम्भ में
सम्विधान की 8वी अनुसूचि मे केवल 15 भाषाएं थीं. आज 22 हैं .
# साहित्य अकादमी
दिल्ली ने हिमाचल की भाषा को 1997 मे इस
के दो लेखकों को पुरस्कृत कर के पहचाना .
# हिन्दी / उर्दू का
कुल्लू क्षेत्र मे आरम्भ से ही घोर विरोध रहा है. जब वे स्कूल मे पढ़ते थे हिन्दी
बोलने वाले के लिए कहावत थी—“ देशी गधा विलायती भाषा”.
उन्हों ने आगे
जानकारी दी :
# “हिन्दी की सहभाषा
के रूप मे “हिमाचली भाषा” पर किताब लिखने का
प्रस्ताव मुझे साहित्य अकादमी दिल्ली से प्राप्त हुआ. पुस्तक के अध्याय तय
थे, पृष्ठ संख्या तय थे, अध्यायों में ग्रामर की बात नहीं थी . केवल विवेच्य
सहभाषा के साथ हिन्दी के संबंधों की बात थी. यह मेरे लिए रोचक था और सुविधाजनक
भी.”
उन्हो ने दावा किया
कि इस विनिबंध मे हिमाचल की भाषा मे लिखी गई समस्त विधाओं की पुस्तकों का सन्दर्भ
लिया गया है.
# Peoples Linguistic survey of
India -2011 मे बतौर हिमाचल खण्ड के सह –
सम्पादक काम कर रहे श्री तोबदन ने जानकारी दी कि विवेच्य
विनिबंध इस विषय पर पहला और अकेला काम
है और बहुत महत्वपूर्ण है . क्यों कि इसी
लेखक की एक किताब पहाड़ी भाषा का व्याकरण नाम से 2008 मे हिमाचल अकादमी ने
भी छापी है.
# व्युत्पत्ति विद श्री विद्या चन्द ठाकुर
ने बताया कि जॉर्ज ग्रियरसन ने काँगड़ी और कहलूरी को पंजाबी > डोगरी की उपबोलियाँ कहा था . इस स्थापना को इस पुस्तक मे श्री मौलू
राम ने निराधार सिद्ध कर दिया है क्यों कि ग़्रियर्सन साहब को इन बोलियों के
ग्राम्य स्वरूप का ज्ञान नही था. जो कि पंजाबी>डोगरी से नितांत भिन्न है.
# अकादमी के उप सचिव
बृजेन्द्र त्रिपाठी ने कहा कि भाषा , उपभाषा और बोलियों का भेद आज निरर्थक
है . अकादमी समस्त भाषाओं को सम्मान की दृष्टि से देखती है. भारत मे आज 1650 भाषाएं अस्तित्व मे हैं . सम्विधान
ने 22 भाषाओ को स्वीकृत किया है जब कि अकादमी ने अंग्रेज़ी और राजस्थानी को मिला कर
24 भाषाएं स्वीकृत की हैं .उन्हो ने अपील की कि लोग अपनी भाषाओं को अपने घरों मे
बचाएं .और सलाह दी कि भाषा प्रेमियों को डेविड क्रिस्टल की किताब Language Death ज़रूर पढ़नी चाहिये.
# डॉ. वरयाम सिंह ने मौलू राम जी के काम की
सराहना करते हुए कहा कि भाषा आप के चिंतन
, दृष्टि, मानसिकता, और चेतना को प्रभावित करने की क्षमता रखती है . भविष्य की लड़ाई अभिव्यक्ति के माध्यमों की
लड़ाई है ; और भविष्य का विषय है “ भाषा
विज्ञान” . यह बहुत लज्जाजनक है कि अपना
देश भाषाओ का सब से बड़ा भण्डार है , किंतु भाषा के उच्च अध्ययन की व्यवस्था हमारे
यहाँ सब से निकृष्ठ है. यहाँ भाषा का अध्ययन केवल सतही तौर पर उस के व्याकरण और साहित्य के स्तर पर किया जाता
है. भाषा के विकास की वैज्ञानिक अवधारणा से अभी तक देश का बहुत बड़ा बौद्धिक वर्ग वंचित है. उन्हो ने सूचित किया कि
जब वे JNU मे SCHOOL
Of LANGUAGE LITERATURE & CULTURE STUDIES के DEAN थे, उस समय उन्हो ने UGC के ACADEMIC COUNCIL के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि और आवाज़ उठाई थी
कि यहाँ के विश्व विद्यालयों में SCHOOL OF LANGUAGE SCIENCES स्वतंत्र रूप से स्थापित करने की आवश्यकता है
.ताकि भाषाओं का सुव्यवस्थित अध्ययन सम्भव हो . लेकिन बड़े हास्यास्पद कारणों के
चलते इस संघर्ष को ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया . आज इसी का खामियाज़ा हम भुगत रहे
हैं कि भाषा विज्ञान नामक विषय को सलीक़े से समझ ही नही पा रहे. उन्हे दुख था कि एक
अति महत्वपूर्ण विषय भारतीय प्रतिभा से छूटा रह गया है और छूटता ही जा रहा है.
बहर हाल मैने तोबदन
जी से “हिमाचली” नामक इस किताब की प्रति प्राप्त कर ली है और इन ज़रूरी तथ्यों, सूचनाओं और विचारो के मद्देनज़र अब यह देखना
निहायत ही रुचिकर रहेगा कि सिद्धहस्त वैयाकरण , व्युत्पत्तिविद एवम संस्कृति कर्मी
समाज चिंतक श्री मौलू राम ठाकुर ने
कितने
श्रम से हिमाचली का एक मानक रूप तय्यार
किया है ( गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश के पूरे भौगोलिक विस्तार मे दो दर्जन से अधिक स्वतंत्र भाषाएं
बोली समझी जाती हैं जिन मे से कुछ तो नितांत भिन्न भाषा परिवारों से सम्बन्ध रखते
हैं! ) और यह देखना और भी अद्भुत अनुभव रहेगा कि कौन से तर्क इस मानक हिमाचली को हिन्दी की बोली
(सहभाषा) सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किए होंगे; जो कि कथित हिन्दी परामर्श मण्डल
का प्रमुख एजेंडा रहा होगा.