Wednesday, August 31, 2011

३- हर साल कटती घास की तरह कट रही हैं पहाड़ की औरतें

ठियोग , हिमाचल प्रदेश के युवा कवि मोहन साहिल को आप ने यहाँ पहले भी पढ़ा है. पहाड़ की औरत पर केन्द्रित कविताओं के इस क्रम मे उन की एक कविता यहाँ लगा रहा हूँ . उन की इस महत्वपूर्ण कविता मे घासनियाँ और औरतें एक दूसरी के दुख दर्द की साक्षी बनती हैं. देखिये , कैसे घासनिया और औरतें आपस मे दर्द बाँटती हुई, और साथ साथ एक दूजे को पोसती हुई जीतीं हैं !


औरतें और घासनियाँ मोहन साहिल

अशौज के महीने में
पहाड़ पर बिछी घासनियों को प्रतीक्षा है
दरातियों वाली औरतों की
साल भर सुनसान रहे ज़मीन के ये टुकड़े
दरातियों की लय और चूड़ियों की खनक के बीच
कुछ दिन रहेंगे आबाद
मुट्ठियों मे भिंच भिंच कर
खुशी खुशी कट जाएगी लम्बी लम्बी हरी घास
यहाँ बाँची जाएंगी साल भर के सुख दुख की कथाएं
दो पहर मे खाना ले कर आए पति
निकालेंगे उंगलियों मे चुभे काँटे
पीठों के कुम्बर
घायल उँगलियों से टपका रक्त
मिट्टी को और ऊर्वर बनाएगा
अगले साल और घना होगा घास
कोई अभागी इस बरस भी
ढाँक से लुढ़क कर हो जाएगी मुक्त
और एक नई नाटी का होगा जन्म
जिसे आँसुओं के साथ
बरसों गाएंगी घाटी की औरतें

कोई कुँवारी अल्हड़ लम्बे घास मे मुँह छिपा
अनजान प्रेमी के लिए छेड़ेगी तान
कटती घास की आवाज़ के बीच
आवाज़ मिलाते हुए
घासनियाँ जानतीं हैं हर साल कटती घास की तरह
कट रही हैं पहाड़ की औरतें
कई कुलों की औरतों का इतिहास जानती हैं वे
किस की दराती चलती थी बिजली सी तेज़
कौन सधे कदमों गड्डी लिए चढ़ जाती थी
बित्ता भर पगडंडी पर
किस औरत ने बहाए कितने आँसू
पुले बाँधते हुए
सहते हुए कुम्बरों काँटों की चुभन
पीठ का असहनीय दर्द
और किस भाग्यशालिनी का पति
बड़े ही प्यार से निकालता था पीठ मे चुभा कुम्बर

घासनियाँ पहाड़ी औरतों का परीक्षा स्थल हैं
यहाँ तय होतीं हैं अच्छी बहू
अच्छी प्त्नी
दहेज में लाई गई दराती रस्सी
उम्र भर रहती ज़ेवरों की तरह काँधे पर

औरतें आँख बन्द कर भी पहचानती हैं
अपनी घासनी की सीमाएं
और घासनियाँ भी खूब जानती हैं उन की सीमाएं
ज़ाहिर है दोनों का साथ
जन्म जन्म का है

Wednesday, August 24, 2011

दो- मैं सब कुछ समझा दूँगी तुम्हारी बेटी को

भाई सुरेश सेन निशांत की कुछ कविताएं मुझे हमेशा प्रेरित करती हैं. जैसे “छोटे मुह्म्मद” , “इस वृक्ष के पास से गुज़रो” , “प्रेम मे डूबी हुई स्त्री”, “लड़कियाँ” .और संयोग देखिये कि इन मे से ज़्यादातर स्त्री विषयक ही हैं . इन्हे में बार बार पढ़ता हूँ और इस तरह अपनी कविता के लिए ऊर्जा लेता हूँ . इन कविताओं मे गज़ब की ताक़त है जो आप को संघर्ष के लिए तय्यार करती है. अभी हाल ही मे नामवर सिंह ने कहा कि सुरेश सेन की स्त्री का विलाप असहायता और कम्ज़ोरी को बिछाने वाला विलाप न हो कर मुश्किलों से जूझने की ताक़त देने वाला विलाप है .... मसलन इसी कविता को लीजिये :

ढाँक से फिसल कर मृत हुई अपनी सखी से विलाप करती एक स्त्री

सोई रहो सखी
बहुत सालों बाद
हुई है नसीब तुम्हे यह
इतनी गहरी मीठी नींद .
जो टूटी ही नही
किसी मुर्गे की बाँग पर
पंछियों की चहचहाहट पर !
डूबी हुई हो तो
डूबी रहो सखी
गुनगुना रही हो
कोई प्यार भरा गीत
तो जी भर गुनगुना लो सखी
पूरी कर लो आज
मन की यह मुराद .

भूल जाओ
कि सूरज सिर तक
चढ़ आया है
सिक्कर दुपहरी में
कैसे तोड़नी है जंगल मे लकड़ियाँकैसे दबाए रखनी है
बार बार उठती प्यास .

सोई रहो सखी
भूल जाओ
पिछले दिन चुभे
पाँव मे काँटों की पीड़ा
बुखार में तपी
देह का दर्द
एकांत मे हुई
वह बदसलूकी भी .

सोई रहो सखी
तुम्हारी दराती और गाची
रख ली है संभाल कर
तुम्हारी बारह वर्ष की बेटी ने .
तुम निश्चिंत रहो
तुम्हारी बेटी को समझा दूँगी मैं
दुनिया दारी और
बाण के रास्तों का सच
और उन पे चलने का सलीक़ा.
किसी दिन फिर
तुम्हारी बेटी समझाएगी
इन रास्तों पे चलने का गुर
मेरी बेटी को .
कल से वही सम्भालेगी घर
कल से वही ढोयेगी
तुम्हारे हिस्से का बोझा
और चिंताएं
कल से वही जाएगी
उस ढाँक तक घास लाने
जहाँ से फिसली थी तुम .
सोई रहो सखी
बहुत सालों बाद
हुई है नसीब
तुम्हे इतनी गहरी नींद .

( इस क्रम मे अगले पोस्ट पर हिमाचल एक अन्य युवा कवि मोहन साहिल की कविता)