Friday, March 25, 2011

तुम तीनो क्यों आपस में गोल गोल घूमते हो ?

क्षणिका मेरी आठ वर्षीय बेटी है। पिछले एक पोस्ट में कुल्लू के अपने साहित्यिक मित्रों के बारे लिख रहा था तो उस का ज़िक़्र करना भूल गया. तब तो उस ने कहा " कोई बात नहीं "

लेकिन कोई बात तो ज़रूर थी ..... वर्ना महज़ अपनी *मेम* के कहने पर उस ने आज इतनी सुन्दर कविता नही लिखी होती ................



ओ धरती
तुम सूरज के गोल गोल घूमती हो

ओ चाँद
तुम धरती के गोल गोल घूमते हो

मगर तुम तीनो
क्यों आपस में गोल गोल घूमते हो ?

और तारे क्यों दूर दूर होते हैं ?

और वो टूट कर
मेरे पास क्यों नहीं आ जाते ?

चाँद और सूरज की तरह
सुन्दर बन जाते

हम तो खुश होते ही
शायद उन की भी खुशी बढ़ जाती

हम भी देखें
कितना सुन्दर दिखता है
टूटा हुआ तारा !

Thursday, March 24, 2011

काश ऐसा ही होता जीवन !


निरंजन देव शर्मा कुल्लू मे मेरे सब से अज़ीज़ साहित्यिक मित्रों में हैं. ये साहित्य के गम्भीर एवं सचेत पाठक हैं. महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में इन की आलोचनात्मक टिप्पणियां आती रहतीं हैं. रविवारीय जनसत्ता (दुनिया मेरे आगे) मे नियमित कॉलम लिखते हैं. इन की कुछ कविताएं मैंने अनौपचारिक गोष्ठियों मे सुन रखीं थीं। वो वाली तो मुझे नहीं मिल पाईं, लेकिन कुछ ताज़ा रचनाएं जो खास इस ब्लॉग के लिए मुझे प्राप्त हुईं हैं. उन के अपने वक्तव्य के साथ लगा रहा हूँ.



"आपके कहने पर कविताओं जैसा कुछ रचते हुए मुझे लगा कि मैं कविताओं का पाठक ही भला हूँ। हर विधा प्रतिभा के साथ –साथ पर्याप्त अभ्यास भी चाहती है । मैं कविता की लहलहाती फसल देख कर आनंदित हो सकता हूँ उस फसल को तैयार करने करने का धैर्य मुझ में नहीं। "___________ निरंजन देव शर्मा

बच्चा जैसे

स्कूल से लौटते बच्चों को देख
जो दो लोग बातें कर रहे थे आपस में
एक बोला उन में से
ऐसा ही होना चाहिए स्कूल
कितने खुश –खुश जा रहे हैं बच्चे
मैंने सोचा
ऐसा ही होता जीवन
स्कूल से घर लौटता
उमंग से उछलता
बच्चा जैसे


बस के सफर में

एक
बस में अदा से
भानुमति के पिटारे को खोलता
दस के चार निकलता
बिखेरता अद्भुत रस
चूक गया है उस जादूगर की
अनूठी कला का जादू

दो
गाँव- कस्बे के बच्चे को भी नहीं रिझाती अब
संतरे वाली गोलियाँ , चूरन और चटपटी नींबू दाल
हिंदुस्तानी तड़का अब चमचमाते पोलिथीन
की नाइट्रोजन में कैद है

तीन
प्राइवेट बस का ड्राइवर देसी इलाज ही कराता है
पैकेज वाले अस्पताल में बूढ़े –बुढ़ियाँ
अब बेटे- बेटियों पर नहीं
कम तनख्वाह वाली नर्सों की दया पर हैं निर्भर
जो मुस्कान चिपकाय चेहरों पर
रहती हैं सेवारत
निरंतर ॥

चार
वाल्वो पैक है अन्दर
कानों पर इयरफ़ोन चिपकाए
लैपटाप खोले
सपाट चेहरों की बहुतायद से
साधारण बस का कंडक्टर
रोपड़ , समरला , लुधियाना
चिल्ला रहा है बाहर

Wednesday, March 23, 2011

ओम मणि पद्मे हूँ !

गत वर्ष रेग्युलर हिन्दी * साहित्य* के पाठकों , सम्पादकों और आलोचकों को स्नोवा बॉर्नो नामक मनाली की युवा लेखिका ने खूब चौंकाया , छकाया, तड़्पाया , और माशा अल्ला प्रभावित भी किया।

एक हिन्दी साहित्यकार के रूप मे स्नोवा की कुछ खूबियां सचमुच अजीबो गरीब और ध्यानाकर्षक थीं...... मसलन ;

* वो युरोपी मूल की *हिमालयी* *हिन्दी* *लेखिका* थी।
* उसे बहुत कम लोगों ने देखा था।
* उस की भाषा मे नया पन था
* उस की रचनाएं एक साथ रूहानी, जिस्मानी और सियासी थीं
* उस के कथा चरित्र इश्क़ ए मजाज़ी और इश्क़ ए हक़ीक़ी के बीच सहज यात्राएं करते हुए मिलते थे
* उसका काव्य नायक उक़ाब की तरह ढाका से ले कर अम्स्टर्डम तक की घटनाओं पर नज़र रखे हुए था

बहुत कम लोगों को पता था कि स्नोवा ने कुछ गूढ़ रूहानी कविताएं भी लिखीं हैं। पहल के सम्पादक श्री ज्ञान रंजन को उस की कुछ कविताएं बेहद पसन्द आईं थीं. पहल यदि असमय बन्द न हो जाती तो हिन्दी के मूर्धन्य पाठकों तक स्नोवा की कुछ कविताएं ज़रूर पहुँचतीं।
स्नोवा की ऐसी ही कुछ कविताएं गत दिनों पुरानी मनाली मे एक माऊंटेन हट की सफाई करते हुए मिलीं. आप सब के लिए :


अभाषा

उस आहट से दिल कम्पा
दिल पर उस छुअन से प्राण कम्पे
प्राणों ने अग्नि भर दी
अग्नि ने शान्ति...
स्वाहा!
समन्दर में घुल गई देह
रूह हो गई आकाश!
मुसिव्वर हैरान है

पुनरागत

जब बहाव भंवर बन गया
मैं डूब जाने से नहीं डरी
न बांहों में न होंठों में
न धड़कन में न परकाया प्रवेश में
चाहती रही कि डूबें और मिट जाएं
पर तुम्हें क्या हुआ......
दोहरावों की लाइफ़ जैकेट पहने
तुम न डूब सकोगे
न उड़ पाओगे!

ओम मणि पद्मे हुम

एक शब्द बोती हूं

और
उसी के साथ गल जाती हूं
पृथ्वी घूम कर लौटती है
मैं कोम्पल बन कर निकल आती हूं

Monday, March 21, 2011

मैं लौट कर आऊँगा --3

लोट गाँव में जहाँ एक दुकान हुआ करती थी वहाँ ढाबा खुल गया है. खाकी वर्दी पहने बच्चे स्कूल जा रहे हैं. ढाबे के बरामदे में लोग ठेठ पहाड़ी अन्दाज़ में चा सुड़कते हुए इंतज़ार कर रहे हैं . गुनगुनी धूप या बॉर्डर रोड्स का ट्रक ; जो भी पहले पहुँच जाय ! ढाबे का मालिक नया नया स्कूल से छूटा हुआ छोकरा प्रतीत होता है . उस में ढेर सारी ऊर्जा है.इस ठण्ड मे एक पतला हाईनेक पहने हुए है. उस के नीचे कबाड़ वाली डाँगरी और आर्मी के सफेद स्नो बूट .गरम पारका कोट उतार कर उस ने मुँडेर पर रखा हुआ है और खुद एक ठीये पर मोमो के लिए कीमा बना रहा है. तेज़ी से चॉपर चलाते हुए वह किसी ‘सेठ’ की माँ बहन एक कर रहा है.
ज़ोरों की भूख लगी है. हम ने चाय के साथ कुछ खाने को माँगा है .
“ “खाने के लिए तो भाई जी , मोमो बन रहा है. एक घण्टा लगेगा. बिस्कुट बगैरा कुछ नहीं है. तब तक सत्तू घोलना हो तो बोलो”.” छोकरा चण्ट है.
चौहान जी की ओर देखता हूँ .....अच्छा , चाय बनाओ और थोड़ा सत्तू और चीनी दो. मैं अपने पिट्ठू में से टटोल कर ताज़ा छङ की बोतल निकालता हूँ. पहले दो घूँट हलक़ से नीचे उतार कर फिर एक सूप बाऊल में सत्तू और चीनी के साथ इसे घोल कर खुद खाता हूँ और सहगल जी को भी खिलाता हूँ. इस रेसिपी को यहाँ बक्पिणि कहते हैं. हिमालय का फास्ट फूड ..... और एक कारगर एनेर्जाईज़र भी. इसे रोह्ताँग पर बीसियों बार आज़मा चुका हूँ. भूख भी मिट जाती है और प्यास भी. केलोरीज़ अलग मिलती है. ग्लुकोज़ से भी ज़्यादा असरदार. ऊपर से हल्का सा खुमार भी चढ़ा रहता है. चौहान जी ने फिर अजीब सा मुँह बनाया है. दारू ही मिल जाती , दो पेग सट लेते... बेचारे ! चाय पीते हुए वो सिगरेट के लम्बे लम्बे कश खींच रहे हैं. खाली मोग़्टू से निकलते भाप को हसरत से तकते हुए ! और मैं पेड़ों से छन कर आती धूप को महसूसने का प्रयास कर रहा हूँ. कामयाबी नहीं मिल रही. मैं ने गौर किया कि यहाँ टहनियों मे हरापन आ चुका है लेकिन कोंपलें अभी नहीं फूटीं हैं. इस अहसास ने मुझे गरमाहट दी है कि हम गरम इलाक़े में प्रवेश कर रहे हैं.

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काफी देर तक हरकत में नही होने के कारण जिस्म फिर से ठण्डा रहा है. उस्ताद बीर सिंह ने सलाह दी है कि आधे घण्टे मे हम कीर्तिंग़ पहुँच सकते हैं. वहाँ कुछ न कुछ खाने को मिल जाएगा . हमारे पास यह सलाह मानने के सिवा और विकल्प भी नहीं है. हम चलने ही लगे हैं कि इंजन की आवाज़ सुनाई दी है. हम लोग कतार मे खड़े होगए. गाड़ी आई और हमारे लाख हाथ जोड़ने के बावजूद गुर्राती हुई निकल गई है . हम पर ढेर कीचड़ उछालती और उबकाई पैदा करने वाला धुँए का काला गुबार छोड़ती हुई. चौहान जी की हालत पतली होने लगी है. उनका चेहरा देख कर लगता है अभी सरेंडर कर जाएंगे. धीरे धीरे हम आगे बढ़ने लगे हैं . मुझे डर था कि यह आदमी कहीं कोलेप्स न कर जाए. धूप तेज़ हो रही है और हवा का नामो निशान नहीं.
ख्रूटी नाला पार करते करते गला सूखने लग पड़ा है. एक जगह पॉपलर के बड़े से पेड़ के पास ज़मीन सीली हो रही है. देखा तो वहाँ पानी चू रहा है. . लेकिन इतना कम कि अंजुरी भर कर पिया भी न जाए. वहाँ कुछ घास के हरे तिनके उग रहे हैं और चिचिलोटि का एक नन्हा पीला फूल भी खिल रहा है. यह एक दुर्लभ फूल है. इस की उम्र बहुत कम होती है. बर्फ के बीच ही खिलता है और उस के पिघलने के साथ साथ झर भी जाता है. माँ कहा करतीं थीं कि यह फूल गाल पर रगड़ने से त्वचा नहीं झुलसती. मैने हाथ बढ़ा कर पीछे खींच लिए. इस उजाड़ में खिले अकेले फूल की हत्या करने चला था. एक बड़ा पाप करने से बच गया . बड़े स्नेह से मैंने उसे विदा कहा:
मेरे लौट कर आने तक यहीं रहना तुम
ओ नन्ही प्यारी चिचिलोटि
मैं रुकूँगा यहाँ तुम्हें खिलती हुई देखने को !

कीर्तिंग में कोई ढाबा खुला नहीं मिला. अलबत्ता एक बन्द दुकान के अहाते में कुछ युवक और अधेड़ छोलो और ताश खेल रहे हैं. हुक्के और चिलम चल रहे हैं . एकाध ने बीयर या व्हिस्की का जाम भी पकड़ रखा है हाथ में. नल पर खूब पानी पी कर हम आगे बढ़ गए हैं. मुझे कुछ भूख भी लगने लगी है. सहगल जी सहज और ‘कूल’ दिख रहे हैं. चौहान जी के चेहरे पर अथाह थकान और बेबसी नज़र आ रही है. अभी आधा रास्ता भी तय नही हुआ और दोपहर होने को आ रही है. थकावट, भूख, ढलता हुआ दिन और लिफ्ट न मिलने की खीज. ये सब मिल कर एक अवसाद पूर्ण अनुभूति उत्पन्न करते है. वाक़ई, यह एक सुखद यात्रा नहीं है. लेकिन मेरे भीतर एक कोना अभी भी पुलकित है , कि एक नई जगह को एक्स्प्लोर करूँगा .

षङ्गढ़ पार कर हम शाँशा गाँव के सिरे पर बने छोर्तेन के पास पहुँचे हैं. एक खेत पर हल जोता जा रहा है. “ ल्हासो .........हो $$$$$$$$ .... ” की पुकार सामने पहाड़ से टकरा कर देर देर तक गूँज रही है. “.ला ज़ङ्पोई पिवा ला नोर ज़ङ्पो लना..........हे ........यौहु योह बीर भाई कु, सुघर्निऊ टूँहषिकु, धरतिऊ मालकु........” इस गायन में अजीब सी कशिश है. हो भी क्यों न ? मानवीय श्रम और संघर्ष की अकथ गाथाओं का सार छिपा है इस में. मैं हाथ जोड़ कर नमन करता हूँ ……इस हलवाहे मानव को और उस के अनहद मर्मस्पर्शी गान को, और उन दो निरीह पशुओं को ! मेरी आँखे इस अद्भुत दृष्य से उपकृत हो कर भीग आईं हैं . ताज़ी मिट्टी की सुगन्ध हवा में तैर गई है. ब्यूँस ने हरियाली ओढ़ ली है. नवाँकुरित टहनियाँ हवा के उस झौंके में हौले से झूम गई हैं. उस पर बैठा कोई पक्षी आहिस्ता से चहक उठा है....... आह ! यह मधुरतम क्षण क्या मेरे लिए घटित हुआ? ईश्वर ,क्या यही हो तुम? अब इस सब के अलावा हो भी क्या सकते हो तुम ! मैं अपनी भूख प्यास और तमाम खुशी और गम भूल कर इस परिदृश्य में विलीन हो जाना चाहता हूँ.

तभी मोड़ के पीछे तेज़ हॉर्न की आवाज़ हुई है. दहाड़ता हुआ एक ट्रक आया है. मेरी तन्द्रा टूटी तो देखता हूँ चौहान जी दोनों हाथ जोड़ कर घुटनो के बल बीच सड़क पर बैठ गए हैं. जैसे कोई भगत देवता के आगे बैठता है. उन का ईश्वर तो अब जाकर आया है. सामने की सीटें फुल हैं. इशारे से हमें पीछे बैठने को कहा गया है. मैं और सह्गल जी तुरत फुरत चढ़ गए, चौहान जी एक्साईट्मेंट में गिरते पड़ते ट्रक के ‘डाले’ तक पहुँचे. मैंने हाथ दे कर उन्हें ऊपर खींच लिया है. शुक्र है, हम तीनों अन्दर हो गए. ट्रक में ताज़ा कटे लकड़ी के बेडौल ठेले भरे हुए हैं.. अभी हम बैठने के लिए जगह ढूँढ ही रहे हैं कि झटके से ट्रक चल पड़ा है. एक ठेला लुढ़कता हुआ चौहान जी की टाँगों से जा टकराया है. वो वहीं निढाल हो कर बैठ गए. उन की पॉलीकॉटन की पतलून घुटनो के पास रोमन ‘एल’ आकार में फट गई. मैंने पूछा – लगी तो नहीं ज़्यादा ?
‘लग्गी तो है , चल मराण देया... अपर पेंट फट गी माईयवी’. वह बन्दा बस रुलाई रोके हुए है किसी तरह.

जाहलमा पहुँच कर ठेले उतार दिए जाते हैं. हम ने भोजन के लिए दस मिनट रुकने का अनुरोध किया लेकिन ड्राईवर के पास ‘टेम’ नहीं है . अभी तक हम ने कुल 26 किलोमीटर का सफर तय किया है. इतना ही और चलना है. चलो अब गाड़ी में घण्टे भर की ही तो बात है. मैं ने खुद को तसल्ली दी है.

जूंडा गाँव पार करने पर जुनिपर के पेड़ दिखने लगते हैं. ये प्राकृतिक रूप से उगे हुए हैं. यहाँ से आगे हवा की तासीर ही बदल जाती है. गन्ध भी. यह शायद वेजिटेशन के कारण है. थिरोट के बाद तो दयार , कायल, राई तोस... तमाम अल्पाईन प्रजातियाँ मिल जाती हैं. यह इलाक़ा हरा भरा, गर्म, और संसाधनों से भरपूर है.शायद इसी लिए लोग भी केयर फ्री और मस्त हैं. मैं इस अद्भुत जगह को देख रोमेंटिक होना चाहता हूँ. लेकिन सडक बहुत खराब है .जम्प लगता है तो झटका पैरों से होता हुआ सीधे खोपड़ी पर लगता है. समझ में आता है कि लम्बी और खराब यात्राओं पर चलने वाले ट्रक ड्राईवर दिमाग पर ज़्यादा बोझ क्यों नहीं डालते. मैं भी सोचना छोड़ कर पड़ा रहता हूँ. ट्रक की गति और लय के साथ एकात्म होने की कोशिश करता !

उदयपुर पहुँचते हैं तो धूप जा चुकी है. माहौल एक दम सर्द सा है. बच्चे स्कूल से लौट रहे हैं. चौहान जी को हाथ का सहारा दे कर ट्रक से उतारता हूँ. उन की हथेलियाँ एक दम बरफ हो रहीं हैं. पैर भी ठीक से टिक नही रहे हैं. जब वो डाले के पीछे Horn * OK* Please लिखी जगह से घिसटते हुए उतर रहे थे तो उन के बायें पाँयचे पर एक गीला धब्बा नज़र आ रहा था. सह्गल जी मफलर में मुँह छिपाए खूब हँसे हैं. हो गया काम इस का तो. अरे नहीं सर, ठेले पर बरफ चिपका था. उस पर बैठने से भीग गया है.

मेरा मन है कि सब से पहले कुछ खा लिया जाय. लेकिन चौहान जी का विचार था कि पहले मन्दिर में माँ के दर्शन कर लिए जाएं. यहाँ प्रख्यात मृकुला मन्दिर है, जिस में लकड़ी की नक्काशी के अद्भुत नमूने हैं. महिषासुर मर्दिनी की बेशकीमती काँस्य प्रतिमा है. पुजारी जी ने इतिहास , पुराण , मिथक और दंतकथाओं की पंचमेल खिचड़ी हमे सुनाई. सब से पहले यहाँ केवल एक घर होता था पुजारियों का. यह परिवार काश्मीर से आ कर यहाँ बस गया था. माँ खुद बंगाल से आईं थीं. महिषासुर को यहीं मौत के घाट उतारा . आज पुजारियों के आठ परिवार बन गए हैं. उदय पुर गाँव में आज 70 के करीब घर हैं. सब इधर उधर से आ कर बसे हुए. ये संख्या बढ़ ही रही है. यहाँ उपमण्डल कार्यालय है. लेकिन बाज़ार में मात्र एक ही ढाबा है. मामू ढाबा. मामू को हम ने ताश की जुंडली से उठा कर लाया है. ताकि हमारे लिए भोजन बना सके. सुबह के भूखों ने खूब छक कर खाया है. इतना, कि रात को कुछ खाने की ज़रूरत ही न पड़े.

भोजन के बाद चाय पीते हुए सहगल जी ने गाईड का मशहूर गीत “मुसाफिर, जाएगा कहाँ” सुनाया है. सहगल जी बहुत अच्छा गाते हैं. जवानी में सब उन्हे कुन्दन लाल सह्गल पुकारते. इसी से यह तखल्लुस पड़ गया. वर्ना उन का असल नाम तो त्सेरिङ फुंत्सोग है ! “दम ले ले , घड़ी भर, यह छईंयाँ पाएगा कहाँ .. ओ मुसाफिर, ..... वहाँ कौन है तेरा ?” एक पुर सुकून संगीत ने मुझे उनींदा कर दिया है.

जब हम पुल पार कर पी डब्ल्यू डी रेस्ट हाऊस की तरफ सोने जा रहे थे तो सहगल जी ने मयाड़ घाटी का प्रवेश द्वार दिखाया. कल इसी नाले के अन्दर जाना है हमें. मैं उत्तेजित हूँ . चौहान जी आशंकित और सहगल साब उदासीन..... चौकी दार से एक हीटर माँग कर हम तापते रहे. वे लोग तो रज़ाई और हीटर की गरमाहट में जल्द ही बेसुध हो गए हैं. लेकिन मैं सोने से पहले दिन भर के अनुभव दर्ज कर लेना चाहता हूँ. बाहर असहज चुप्पी है. पिछवाड़े की झाड़ियों में एक लोमड़ी रात भर रोई है. मुझे कतई नींद् नहीं आ रही लेकिन अपने जूते - मोजे सुखा लिए हैं.
(जारी)

Monday, March 7, 2011

मैं लौट कर आऊँगा .......... 2








15 अप्रेल 1995. सुबह छह बजे हम अपने पिट्ठू – डण्डे उठाए केलंग से उदयपुर (मर्गुल) के लिए पद यात्रा पर निकल पड़े हैं . HRTC की बसें अभी चल नही रहीं . उदय पुर की तरफ से BRO (बॉर्डर रोड्स ऑर्गेनाईज़ेशन ) का डोज़र चल पड़ा है लेकिन केलंग की ओर से स्नो क्लीयरेंस का काम शुरू नही हुआ . हमें मयाड़ घाटी के दस्तकारों को वज़ीफे बाँटने हैं. साथ मे मेरे सीनियर सहगल जी और दफ्तर के केशियर चौहान जी हैं . लोक सम्पर्क विभाग के ड्राईवर बीर सिंह छुट्टी जा रहे हैं , वो भी हमारे साथ हो लिए.

पतली सी भागा नदी बर्फ से ढँकी हुई है. घाटी में एक ठण्डा सन्नाटा पसरा है .रास्ता टेढ़ा मेढ़ा है. रास्ता क्या है, सड़क के बीचोंबीच ताज़ा बरफ में एक पतली लीक खिंची हुई है जिस की चौड़ाई इतनी कम है कि सामने से आते पथि को रास्ता देने के लिए लीक से बाहर होना पड़ता है. तोक्तोक्च के पास हमे समतल रास्ता छोड़ कर पगडण्डी पर चढ़ना पड़ा. बरफ काफी ज़्यादा है और रास्ता ऊबड़ खाबड़ . हमारे पास साधारण स्पोर्ट्स और हंटिंग शूज़ हैं. तलुओं में जलन होने लगी है और गरम कपड़ों के भीतर हमारा बदन पसीने से भीग रहा है .

कारगा पहुँच कर हम ने कमर सीधी की. आठ किलो मीटर का सफर हम ने सवा घण्टे में तय किया है मैं तो बरफ में लेट ही गया. चौहान जी काँगड़ा की तरफ के हैं . शायद बरफ में पैदल चलने के आदी नही हैं और खासे परेशान नज़र आ रहे हैं . फर्लाँग भर की चढ़ाई ने उन की साँस फुला दी है . एक पत्थर पर उकड़ूँ बैठ कर वे एक सिग्रेट सुलगाते हैं . बड़े चाव से कश खींच रहे हैं . पूरे रम कर. मानो उन सुलगती चिनगियों की तपिश धुँए के साथ भीतर खींच लेना चाहते हों. यह देख कर मैं भी तृप्त हुआ जा रहा हूँ . अभी एक साल पहले तक मैं खुद भी चेन-स्मोकर था. बड़ी ज़ोर की तलब उठी है भीतर. और बमुश्किल रोक पाया हूँ खुद को.

“सर, यहाँ कोई ढाबा –ढूबा होना चाहिए था. ...” -- सुबह के मटमैले आकाश को देखते हुए लेटे- लेटे ही मैं कहता हूँ . सहगल जी स्थानीय हैं. बहुत अनुभवी और धैर्यवान. मुस्कराते हुए कहते हैं —“ लौटती बार यहीं चाय पियेंगे. इस दफा बरफ कर के नहीं लगा होगा ढाबा . वर्ना लग ही जाता है इन दिनों ” . फिर चौहान जी को हौसला देने लगे हैं —“ बस दो चार किलोमीटर की बात है. सुना है उस तरफ से BRO के ट्रक चले हुए हैं. उदयपुर तक लिफ्ट मिल ही जाएगी. आगे की आगे देख लेंगे.”

कारगा मेरे गाँव के ठीक नीचे मेरे बचपन के खेलने की जगह है. यह तान्दी संगम के पास स्थित है..जहाँ चन्द्र और भागा नदियाँ मिल कर चन्द्रभागा बनती है और पश्चिम की ओर उदयपुर, किलाड़, भद्रवाह, किष्तवाड़ होती हुई जम्मू पहुँचती है.आगे पंजाब जा कर यह सोहनी – महिवाल वाली ऐतिहासिक चिनाब नदी बन जाती है.

गर्मियों की लम्बी छुट्टियों में हम यहीं मस्ती करते थे. हरी घास , घने पेड़ , खूब सारे पानी के सोते, और खुली जगह्..... लेकिन गर्मियों का यह स्वर्ग सर्दियों मे नरक से भी बदतर हो जाता है. 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस अधित्यिका के चारों ओर घाटियाँ खुलती हैं . खूब तेज़ हावाएं चलतीं हैं और जम कर बरफबारी होती है. आज भी चारों दिशाओं में झक्क सफेदी फैल रही है. ठेठ जाड़ों का मौसम प्रतीत हो रहा है. ब्यूँस की शाखें अभी तक गाढ़ी काली दिख रहीं हैं . साईबेरियाई हवाओं से जूझतीं, निपट नंगी ! उदयपुर यहाँ से 45 किलोमीटर दूर है.

हम चलने के लिए खड़े हुए हैं .अचानक मेरी नज़र कर्क्योक्स के पीछे वाले भव्य ग्लेशियर पर पड़ी है. उस के पूर्वी भाग पर सुनहली किरणों की बौछार हो रही है और पश्चिमी हिस्से से बर्फ का गुबार उड़ रहा है. आह ! पहाड़ों की देवी ने अपना चूल्हा सुलगा लिया है. ठहर कर आँख भर वह नज़ारा देख लेना चाहता हूँ. ..... “But I have promises to keep, and miles to go before I sleep”. हम कूच कर चुके हैं, लेकिन मैं मुड़ मुड़ कर पीछे देख रहा हूँ. बीर सिंह जी इसे भाँप कर बोलते हैं “ जनाब , कैमरा ही उठा लाते !” अब मैं इन महाशय को कैसे समझाता कि मैं कैमरा क्यों नहीं रखता! और कैमरे की लेंस और नंगी आँखो की तासीर में फर्क़ क्या है?

सुमनम की तरफ जाती बिजली की लाईन पर उस पुराने खम्भे को देख कर घर की याद हो आई. वापसी पर ज़रूर घर जाऊँगा. जन्धर के सिरे पर ITBP(इंडो तिबतन बॉर्डर पुलिस) का केम्प उसी पुरानी अदा में सो रहा है. नीचे संगम में काफी बदलाव आए हैं . संगम के बीचोंबीच एक टापू उभर आया है. दोनो नदियों की दो दो धाराएं बन रहीं हैं . घुषाल गाँव की तरफ काफी सारा सख्त गट्टों वाला किनारा नदी ने काट दिया है. घुषाल अब पुराने दिनों की तरह घने क्लस्टर में नही बसा है. ज़्यादातर घर छिटक कर दूर दूर हो गए हैं. जैसे ध्रुवीय प्रदेश में गर्मियाँ आने पर पेंग्विनो का झुण्ड छिटकता है. नए घर अब टीन की छत वाले ही बन रहे हैं. पहले ज़्यादातर फ्लेट रूफ मिट्टी के मकान होते थे.

बीर सिंह जी बहुत बातूनी हैं. उन के क़िस्से सुनते हुए हम लोग कब तान्दी , ठोलंग , तोज़िंग गाँवों को पार करते हुए रङ्लिङ पहुँच गए, पता ही न चला.

हम पटन घाटी में हैं. यह पीर पंजाल और ज़ंस्कर रेंज के बीच चन्द्र्भागा नदी के किनारे स्थित एक ऊर्वर भूभाग है. आधुनिक शिक्षा, आर्थिकी और अन्य भौतिक मानदंडों के आधार पर यहाँ का समाज काफी विकसित माना गया है. बहुत से लोग भारत सरकार के ऊँचे पदों पर नौकरियाँ कर रहे हैं. इधर काफी सारे लोग विदेशों में भी निकल गए हैं. ज़्यादातर घाटी से बाहर जा कर व्यवसाय कर रहे हैं. यहाँ मुख्यत: दो समुदायों (जनजातियों) के लोग रहते हैं – स्वाङ्ला और बोद . स्वाङ्ला स्वयं को हिन्दू मानते हैं. और इन के जन्म, विवाह, मृत्यु आदि संस्कार भाट पुरोहितों द्वारा सम्पन्न होते हैं. ‘बोद’ लोगों मे अपनी पहचान को ले कर थोड़ी कंफ्यूजन है. मैं स्वयं इसी समुदाय से हूँ. लेकिन चूँकि इन के संस्कार लामा पुरोहितों द्वारा सम्पन्न होते हैं अत: प्राय इन्हे: बौद्ध धर्म के अनुयायी मान लिया जाता है. लेकिन लोक देवताओं और तीज त्यौहारों और रहन सहन, खान पान , बोली बानी, पहरावा आदि से सम्बन्धित तथा अन्य तमाम परम्पराएं दोनो समुदायों में प्राय: एक जैसी है. अंतर है भी तो नगण्य ही.
इस घाटी मे पटनी बोली व्यवहृत है. जो तिब्बती –बर्मी परिवार की मानी गई है, लेकिन इस पर ऑस्ट्रिक परिवार के गहरे इम्प्रेशन भी स्वीकारे गए हैं. इस के अतिरिक्त दो जातियाँ चाण तथा लोहार हैं. इन की अपनी अपनी बोलियाँ हैं जो सम्भवतय: आर्यभाषा परिवार की कोई प्राचीन बोलियाँ हैं. इन सभी समुदायों में परस्पर विवाह सम्बन्ध प्रायः मान्य नहीं है. लेकिन ये नियम बहुत सख्त भी नहीं हैं .


धूप अब ढलानों से उतर कर नीचे वादी में बिछ रही है. सामने चन्द्रभागा लुका छुपी करती बह रही है. सड़क के निचले किनारे हटाई गई बरफ के ढेर पर बैठ कर मैं वह नज़ारा देखने लगा. नीचे खेतों पर नन्हे बच्चे किलकारियाँ मारते हुए अपने देसी ‘स्लेजेज़’ पर फिसल रहे हैं. कुछेक ने बाँस की बल्लियाँ चीर कर ‘स्कीज़’ भी बना रखीं हैं. कुत्ते प्रफुल्ल उन के पीछे दौड़ रहे हैं. औरतें पीठ पर किल्टे उठाए खेतों में मिट्टी बिखेर रहीं हैं. उन्हों ने कतर के ऊपर डॉन फेदर के उम्दा गरम जेकेट पहन रखे हैं. आँखो पर् काले चश्मे और माथा और नाक से नीचे पूरा चेहरा स्कार्फ से ढका हुआ. क्षण भर के लिए मुझे लगा है किसी रूसी फिल्म का दृष्य देख रहा हूँ.

तभी सामने से मज़दूरों से भरे दो ट्रक आते दिखते हैं. हम आश्वस्त हो गए हैं कि कभी न कभी तो ये गाड़ियाँ लौटेंगी ही. सड़क पर ध्यान जाता है तो पता चलता है कि काफी देर से हम बरफ छोड़ कर मेटल्ड सड़क पर चल रहे थे. कहीं कहीं जहाँ पानी इकट्ठा हो रहा है, यक (ice) की पतली झिल्लियाँ जमी दिख रहीं हैं. सामने ख्रूटी, और रानिका क्षेत्र की ढलानों पर बरफ नहीं दिख रही. बल्कि हल्की सी हरियाली का अहसास हो रहा है. शायद मेरी विशफुल थिंकिंग हो. दो मज़दूर लड़के सड़क किनारे गड्ढा खोद कर क़िल्टों में मिट्टी भर रहे हैं. मैं यूँ ही उन से बतियाने लगा हूँ.
-- भईया, ये क्यों खोद रहे हो?
-- मट्टी देना पड़ता है न खेत को !
-- मिट्टी, क्यों?
-- बरफ जल्दी पिघलेगा बोल के , इस लिए.
-- पिघल जाएगा ऐसा करने से ?
-- अभी घाम ठिक से रहे त हफ्ता दिन मे खतम. एकदम जाएगा.
-- अच्छा, घर कहाँ है तुम्हारा ?
-- दुमका.
-- और उस का?
-- गोरखा.
-- तेरी माँ का .......
दूसरे लड़के ने , जो नेपाली था उसे मोटी सी गाली देते हुए एक किक जमाई और मुझ से कहा— सुर्खेत नेपाल , हुज़ुर! मुझे वहाँ रुकते देख मेरे तीनो सहयात्री ठहर गए हैं. सह्गल जी बताते हैं कि अगला मोड़ पार कर के लोट गाँव में होटल (ढाबा) है. वहाँ आराम से चाय पी लेंगे और जूते – मोज़े सुखा कर के कुछ नाश्ता भी ले लेंगे. तब तक कोई गाड़ी लौट ही आएगी. मैं अधूरे मन से उठा और उन लड़कों की तरफ ‘वेव’ करते हुए आगे बढ़ गया. दोनों बड़े प्रसन्न नज़र आ रहे थे. सम्वाद भी क्या नायाब नैमत है क़ुदरत की ! बेवजह ही कितना उदात्त हो जाता है मन ? क्या मैं उन लड़कों के मन की कोई नाज़ुक तार छेड़ने में सफल हुआ था?
(जारी)

Sunday, March 6, 2011

मैं लौट कर आऊँगा तुम्हें यहाँ खिलती हुई देखने को !


28 मार्च 1995 . मेरी नियुक्ति हिमाचल सरकार के उद्योग विभाग में हो गई है और मुझे अपने ज़िला मुख्यालय केलंग में ड्यूटी ज्वाईन करने के आदेश हुए हैं. रोह्तांग बन्द है. मुझे हेलिकॉप्टर से जाना है . भूंतर एयरपोर्ट पर यह एक चमकीली सुबह है. चार दिनों की लगातार बारिश के बाद वातावरण साफ सुथरा लग रहा है. धुला-धुला और खुला-खुला सा. तो आज फ्लाईट मेच्योर हो ही जाएगी.. दोस्तों ने सलाह दी कि कहीं और एडजस्ट्मेंट करवा लो. ‘ट्राईबल’ में जा कर फँस जाओगे. लेकिन जन्म भूमि के लिए भीतर कुछ मचलता है. कोई परवाह नहीं. मै सोचता हूँ, आखिर किसी को तो वहाँ जाना ही है. तो फिर मैं ही क्यों नहीं? कुछ दोस्तों ने मोटिवेट किया. अरे ज़रूर जाओ यार , कैसी मस्त जगहें हैं वहाँ घूमने के लिए— स्पिति देख लो, मयाड़ घाटी की तरफ निकल जाओ घूमने !

स्पिति दो वर्ष पूर्व घूम आया था. लेकिन मयाड़ कभी नहीं. कितने ही विदेशी पर्वतारोही उधर जाते हैं ….. मेंतोसा, फोबरंग , थानपट्टन , कांग-ला. इन सब का केवल ज़िक़्र सुन रखा था. मयाड़ घाटी मेरी स्मृतियों में उन दो ‘दीदियों’ से सुने क़िस्सों के रूप में भी ज़िन्दा है , जो बचपन में हमारे घर पर रहतीं थीं. उन के लोकगीतों और कथाओं में मयाड़ की एक तिलस्मी छवि बनती थी।



हमारा हेलिकॉप्टर तान्दी संगम के ठीक ऊपर पहुँचा है. सामने अपना गाँव सुमनम दिखाई दिया है . शर्न के आँगन में मवेशियों को धूप तापते देख कर बहुत रोमांचित हुआ हूँ. भागा घाटी की ओर मुड़ने से पहले पीर पंजाल के दूसरी ओर ज़ंस्कर रेंज के सिर उठाए भव्य पहाड़ों की झलक मिली है . मैं अनुमान लगाता हूँ कि इन्हीं धवल शिखरों के आँचल में कहीं मयाड़ घाटी होगी. केलंग पहुँचते पहुँचते पक्का मन बना लिया है कि चाहे जो हो, मयाड़ घाटी ज़रूर जाना है.

केलंग में मेरा स्वागत भारी हिमपात से हुआ है . लाहुल यूँ तो मॉनसून के हिसाब से रेन – शेडो क्षेत्र मे स्थित है. मॉनसून पीर पंजाल को प्राय: पार नहीं कर पाता. लेकिन पश्चिमी विक्षोभ (western disturbances) के लिए कोई रुकावट नहीं. सर्दियों में ये बर्फीली हवाएं सीधी घाटी में घुस आती हैं और निकासी नही होने के कारण हफ्तों बरसती रहतीं हैं.

उस रात को लगभग दो फीट बरफ पड़ी और अगले सात आठ दिन बादल छाए रहे. फिर एक दिन बढ़िया धूप निकल आई. छत पर निकल कर कस्बे को निहारने लगा हूँ ।

पूरब की ओर विहंगम लेडी ऑफ केलंग चोटी ताज़ा गिरी बरफ में छिप गई है . रङ्चा दर्रे के नीचे से बरबोग, पस्परग और नम्ची गाँवों को धमकाते हुए तीन चार एवलांश निकल गए हैं ।

ड्रिल्बुरी खामोश खड़ा है . पश्चिम मे गुषगोह के जुड़वाँ हिमनद मानों दो खाए अघाए बैल जुगाली करते अधलेटे पसरे हों।

केलांग टाऊन मुझे कमोवेश वैसा ही दिख रहा है जैसा पन्द्रह साल पहले छोड़ गया था. सुबह उठने पर नथुनों में धुँए की वह चिर परिचित गन्ध घुसी रहती है . यह धुआँ जो कस्बे के ऊपर बादल सा छाया रहता, घरेलू चूल्हों और सरकारी भक्कुओं से निकलता था, तक़रीबन 11 बजे छँटना शुरू हो जाता और यही सरकारी बाबुओं के दफ्तर पहुँचने का समय भी होता. दफ्तरों में स्टीम कोल के भक्कू जलते . उन्ही के ऊपर अल्युमीनियम की केतलियों में चाय उबलती रहती. हिमपात के दिनों में घरों और दफ्तरों में सब से प्राथमिकता वाला काम होता है खुद को गरम बनाए रखना. बहरहाल, मेरी प्राथमिकता है मयाड़ घाटी की यात्रा.