19 सितम्बर 2010 को मैं ऊना, हिमाचल प्रदेश मे एक काव्यायोजन में शिरकत करने गया . अवसर था कवि मित्र सुरेश सेन 'निशांत' के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित 'आकण्ठ' पत्रिका के हिमाचल समकालीन कविता विशेषांक का लोकार्पण.
केलंग से प्रस्थान करते हुए मुझे फोन पर बताया गया कि कुल्लू से हम कम-अज़-कम छह लोग होंगे . और हमें टेम्पो ट्रेवलर बुक करवाना पड़ेगा. मुझे याद है 2004 मे जब प्रगतिशील लेखक संघ का प्रांतीय अधिवेशन मण्डी मे हो रहा था तो हम फक़त तीन जन थे-- मैं , निरंजन देव शर्मा और ईशिता आर्. गिरीश. तो इन छह सालों में गंभीर साहित्य प्रेमियों की संख्या दोगुनी हो गई! यह 'प्रगति' देख कर मैं खुश हो रहा था. लेकिन ज्यों -ज्यों कुल्लू के नज़दीक आता गया, प्रगति के नए घटक एक एक कर के फुगाँ होते चले गए. उरसेम लता के घर का लेंटर पड़ रहा था और हरीश ( उन के पति) के बॉस कुल्लू दौरे पर थे. गणेश भारद्वाज स्कूल से फ्री नहीं हो पा रहे थे. कृष्ण चन्द्र महादेविया को 'सीमेंट फेक्ट्री विरोध' के मुतल्लिक़ किसी ज़रूरी बैठक में शामिल होना था. रह गए ढाक के वही तीन पात. हाँ, इतनी प्रगति ज़रूर हुई थी कि इस बार हम सफेद मारुति 800 की बजाय एक 'लाल' स्विफ्ट में सफर कर रहे थे.
सुन्दर नगर से बैनर, पत्रिकाएं, और अन्य ताम झाम उठाए 'निशांत' ने हमे ज्वाईन किया.
रात साढ़े नौ बजे ऊना पहुँचे तो पता चला कि हमारा ठहरने का इंतज़ाम सब्ज़ी मण्डी में स्थित सराय नुमा अकोमोडेशन में किया गया है. वह जगह खासी 'प्रगति शील' नज़र आ रही थी. यदि बस से या थर्ड क्लास ट्रेन से आ रहे होते तो शायद हमें वहाँ ठहरने मे कोई दिक्कत न होती. लेकिन 'स्विफ्ट' की मर्यादा का खयाल रखते हुए हम ने फैसला किया कि कोई साधारण टेरिफ वाला होटेल ही देख लिया जाए. हो सकता है हमारे सामूहिक अवचेतन मे इस की एक वजह और भी हो-- एक महिला का साथ होना ! खैर, थोड़ी मशक़्क़त के बाद हमे अपने पसन्द की जगह मिल ही गई. होटेल का नाम था-- सुविधा. दूसरा ऑप्शन भी था-- माया. हम उस के जाल में नहीं फँसे.
थकावट मे अच्छी नींद आई. कोई दु:स्व्प्न नहीं, कोई कड़वाहट और मलाल नहीं ! नाश्ता कुलदीप शर्मा के घर पर हुआ.
, लोकार्पण उपायुक्त ऊना श्री के. आर . भारती के कर कमलों द्वारा हुआ. श्री भारती खुद एक सुपरिचित हिन्दी लेखक हैं. इस अवसर पर पत्रिका के सम्पादक श्री हरिशंकर अग्रवाल मुख्य अतिथि के रूप मे विद्यमान थे तथा साथ मे उन की धर्म पत्नी श्रीमति कृष्णा अग्रवाल , जो कि पत्रिका की प्रकाशक भी हैं, भी उपस्थित थीं.
सर्वप्रथम विमोचित पत्रिका का परिचय पढ़ते हुए अतिथि सम्पादक सुरेश सेन 'निशांत' ने बताया कि कविता की पत्रिका आकण्ठ सन 1968 से निरंतर प्रकाशित हो रही है. पंजीकरण के पश्चात इस के 110 अंक निकल चुके हैं, और यह 111वाँ अंक हिमाचल की समकालीन कविता पर केन्द्रित किया गया है. इस मे हिमाचल के नए पुराने 45 कवियों की कुल 105 कविताएं शामिल की गईं हैं.
प्रथम सत्र का बीज पत्र 'असिक्नी' के सम्पादक डॉ. निरंजन देव शर्मा ने पढ़ा. यह पत्र हिमाचल मे लिखी जा रही हिन्दी कविता की प्रवृत्तियों, और विशेषताओं का बड़ी बारीक़ी से पड़ताल करता हुआ उन पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ भी करता है. उन्हो ने कहा कि लोकोन्मुखता समकालीन कविता का नया मुहावरा है. बल्कि आज की कविता का सरोकार ही लोकधर्मिता है. हिमाचल की समकालीन कविता स्थानीयता को संजोए रखने के साथ साथ सार्वभौमिकता को भी छूने का प्रयास करती है. लोकभाषा और मुहावरों का प्रयोग करने में अभी हिमाचल की कविता झिझक रही है. उसे इस गतिरोध से उबरना होगा.
'लोकायात ' के सम्पादक बलराम ने लघु पत्रिका आन्दोलन पर बोलते हुए कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता एक घाटे का सौदा होने के बावजूद भी देश के कोने कोने में ऐसे जोखिम उठाने वाले लोग मौजूद हैं.
'शिखर' के सम्पादक केशव नारायण ने प्रश्न उठाया कि इतना महत्वपूर्ण कार्य करने वाली पत्रिकाओं के साथ 'लघु' शब्द क्यों जुड़ गया? उन्हों ने असिक्नी ,सर्जक, सेतु, इरावती, शिखर, पर्वत राग, हिमाचल मित्र आदि पत्रिकाओं के हिमाचल की रचनाधर्मिता को मुख्यधारा तक ले जाने के प्रयास को रेखांकित किया.
इस के बाद प्राय: सभी वक्ताओं ने लघु पत्रिका आन्दोलन पर ही अधिक बोला. यह विषयांतरण अखरने वाला तो था लेकिन चूँकि पर्चे दिल्चस्प और जानकारियों से भरे हुए थे . (मसलन ,एक महाशय ने सूचित किया कि आरण्यक और पौराणिक काल मे ही लघु पत्रिका आन्दोलन जन्म ले चुका था.... :) अत: इस भटकाव को नज़र अन्दाज़ कर दिया गया.
के.आर भारती ने कहा कि हिन्दी की स्थिति इतनी शौचनीय नहीं है जितनी कि दर्शाई जा रही है. लघुपत्रिकाओं की संख्या इस का प्रमाण है. हिमाचल जैसे छोटे प्रांत में ही लघुपत्रिकाओं की भरमार है. उन्हो ने जानकारी दी कि हिमाचल में हिन्दी साहित्य को ले कर स्तरीय काम हो रहा है और यहाँ एक से बढ़ कर एक संजीदा साहित्यकार मौजूद हैं.
श्री हरिशंकर अग्रवाल ने आकण्ठ के ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि साठोत्तरी हिन्दी कविता की पूरी पीढ़ी विजेन्द्र से ले कर विष्णु खरे तक आकण्ठ मे छपती रही है. लेकिन आकण्ठ का वास्तविक उद्देश्य छोटे स्थानों के अलक्षित लोगों को सामने लाना है.
दूसरे सत्र मे परम्परागत शैली मे कवीता पाठ हुआ. सुरेश सेन निशांत, ईशिता , प्रदीप सैनी, आत्मा रंजन, के आर भारती, केशव, हरिशंकर अग्रवाल और राजीव त्रिगर्ती ने सुन्दर कविताएं पढ़ीं. मैं अपनी कविता 'एक बुद्ध कविता मे करुणा ढूँढ रहा है' सुना कर आश्वस्त और निवृत्त महसूस कर रहा था.
हम लोगों के साथ ऊना के दर्जन भर स्थानीय कवियो ने अपनी कविताएं पढ़ीं.
हाल ही में भाषा विभाग हिमाचल प्रदेश द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता मे प्रथम पुरुस्कार विजेता ऊना के कवि श्री कुलदीप शर्मा ने स्थानीय कवियों से आग्रह किया कि वे बाहर से आए हुए कवियों की कविता में समकालीन ट्रेंड को पकड़ कर तदानुसार काव्य सृजन का प्रयास करें. उपायुक्त महोदय ने भाव विभोर हो कर इस आयोजन के लिए अपने निजी फण्ड से 5,000/- रुपयों की घोषणा की . कि 'ये रौनक मेला लगा रहणा चाहिए'.
जैसा कि हर आयोजन अपना प्रभाव छोड़ता होता है, काफी लोग इस आयोजन से भी हताहत हुए. पोज़िटिवली भी, और नेगेटिवली भी. नेगेटिव लिस्ट लम्बी है, उन का नाम ले कर नमक मिर्च का कारोबार नहीं करना चाहता. पोज़िटिव लिस्ट मे सब से ऊपर है नन्हा बालक दिव्यांशु जो पूरे आयोजन मे विमोचित अंक की एक प्रति कभी तन्मय हो कर उलटता पलटता रहा तो कभी भावुक हो कर इसे छाती से लिपटाता रहा.
पर्वत राग के सम्पादक स्थानीय कवि ,व्यंग्य्कार, लोक सम्पर्क अधिकारी गुरुमीत बेदी सरकारी व्यवधान के चलते इस समारोह का हिस्सा न बन पाए. खैर, ठीक शाम आठ बजे उन्हों ने प्रतिगोष्ठी ज्वाईन की. उन के पूर्व कुलीग एवम सीनियर केशव नारायण उन्हे ज़बरन रात 1:30 तक बिठाए रहे.
परवेज़ अख्तर सुन्दर नगर के निवासी हैं तथा सम्प्रति सींचाई एवम जनस्वास्थ्य विभाग ऊना मे अधिशासी अभियंता हैं. साहित्य प्रेमी होने के साथ साथ निशांत तथा निरंजन के अच्छे परिचितों में से हैं. समस्त प्रतिभागियों ने उन्ही के सौजन्य से लज़ीज़्र रात्रिभोज का लुत्फ उठाया . सुबह सभी लोग नाश्ते के लिए गुरुमीत बेदी के घर गए.
हिमाचल प्रदेश की प्र ले स इकाई की बैठक भी निशांत भाई के एजेंडे में शामिल था. लेकिन किसी करणवश यह फलीभूत नही हो सका.
यात्रा सुखद रही. 'लाल' स्विफ्ट का ट्यूब्लेस टायर दो बार पंक्चर हुआ. मैंने और निरंजन ने दोनों ही बार 'प्रगति शील' तरीक़े से स्टेप्प्नी बदली .और इस प्रक्रिया में मैले हुए हाथ धोने मे एक दूसरे की मदद की.
अनुमोदनार्थ प्रस्तुत.
केलंग से प्रस्थान करते हुए मुझे फोन पर बताया गया कि कुल्लू से हम कम-अज़-कम छह लोग होंगे . और हमें टेम्पो ट्रेवलर बुक करवाना पड़ेगा. मुझे याद है 2004 मे जब प्रगतिशील लेखक संघ का प्रांतीय अधिवेशन मण्डी मे हो रहा था तो हम फक़त तीन जन थे-- मैं , निरंजन देव शर्मा और ईशिता आर्. गिरीश. तो इन छह सालों में गंभीर साहित्य प्रेमियों की संख्या दोगुनी हो गई! यह 'प्रगति' देख कर मैं खुश हो रहा था. लेकिन ज्यों -ज्यों कुल्लू के नज़दीक आता गया, प्रगति के नए घटक एक एक कर के फुगाँ होते चले गए. उरसेम लता के घर का लेंटर पड़ रहा था और हरीश ( उन के पति) के बॉस कुल्लू दौरे पर थे. गणेश भारद्वाज स्कूल से फ्री नहीं हो पा रहे थे. कृष्ण चन्द्र महादेविया को 'सीमेंट फेक्ट्री विरोध' के मुतल्लिक़ किसी ज़रूरी बैठक में शामिल होना था. रह गए ढाक के वही तीन पात. हाँ, इतनी प्रगति ज़रूर हुई थी कि इस बार हम सफेद मारुति 800 की बजाय एक 'लाल' स्विफ्ट में सफर कर रहे थे.
सुन्दर नगर से बैनर, पत्रिकाएं, और अन्य ताम झाम उठाए 'निशांत' ने हमे ज्वाईन किया.
रात साढ़े नौ बजे ऊना पहुँचे तो पता चला कि हमारा ठहरने का इंतज़ाम सब्ज़ी मण्डी में स्थित सराय नुमा अकोमोडेशन में किया गया है. वह जगह खासी 'प्रगति शील' नज़र आ रही थी. यदि बस से या थर्ड क्लास ट्रेन से आ रहे होते तो शायद हमें वहाँ ठहरने मे कोई दिक्कत न होती. लेकिन 'स्विफ्ट' की मर्यादा का खयाल रखते हुए हम ने फैसला किया कि कोई साधारण टेरिफ वाला होटेल ही देख लिया जाए. हो सकता है हमारे सामूहिक अवचेतन मे इस की एक वजह और भी हो-- एक महिला का साथ होना ! खैर, थोड़ी मशक़्क़त के बाद हमे अपने पसन्द की जगह मिल ही गई. होटेल का नाम था-- सुविधा. दूसरा ऑप्शन भी था-- माया. हम उस के जाल में नहीं फँसे.
थकावट मे अच्छी नींद आई. कोई दु:स्व्प्न नहीं, कोई कड़वाहट और मलाल नहीं ! नाश्ता कुलदीप शर्मा के घर पर हुआ.
, लोकार्पण उपायुक्त ऊना श्री के. आर . भारती के कर कमलों द्वारा हुआ. श्री भारती खुद एक सुपरिचित हिन्दी लेखक हैं. इस अवसर पर पत्रिका के सम्पादक श्री हरिशंकर अग्रवाल मुख्य अतिथि के रूप मे विद्यमान थे तथा साथ मे उन की धर्म पत्नी श्रीमति कृष्णा अग्रवाल , जो कि पत्रिका की प्रकाशक भी हैं, भी उपस्थित थीं.
सर्वप्रथम विमोचित पत्रिका का परिचय पढ़ते हुए अतिथि सम्पादक सुरेश सेन 'निशांत' ने बताया कि कविता की पत्रिका आकण्ठ सन 1968 से निरंतर प्रकाशित हो रही है. पंजीकरण के पश्चात इस के 110 अंक निकल चुके हैं, और यह 111वाँ अंक हिमाचल की समकालीन कविता पर केन्द्रित किया गया है. इस मे हिमाचल के नए पुराने 45 कवियों की कुल 105 कविताएं शामिल की गईं हैं.
प्रथम सत्र का बीज पत्र 'असिक्नी' के सम्पादक डॉ. निरंजन देव शर्मा ने पढ़ा. यह पत्र हिमाचल मे लिखी जा रही हिन्दी कविता की प्रवृत्तियों, और विशेषताओं का बड़ी बारीक़ी से पड़ताल करता हुआ उन पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ भी करता है. उन्हो ने कहा कि लोकोन्मुखता समकालीन कविता का नया मुहावरा है. बल्कि आज की कविता का सरोकार ही लोकधर्मिता है. हिमाचल की समकालीन कविता स्थानीयता को संजोए रखने के साथ साथ सार्वभौमिकता को भी छूने का प्रयास करती है. लोकभाषा और मुहावरों का प्रयोग करने में अभी हिमाचल की कविता झिझक रही है. उसे इस गतिरोध से उबरना होगा.
'लोकायात ' के सम्पादक बलराम ने लघु पत्रिका आन्दोलन पर बोलते हुए कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता एक घाटे का सौदा होने के बावजूद भी देश के कोने कोने में ऐसे जोखिम उठाने वाले लोग मौजूद हैं.
'शिखर' के सम्पादक केशव नारायण ने प्रश्न उठाया कि इतना महत्वपूर्ण कार्य करने वाली पत्रिकाओं के साथ 'लघु' शब्द क्यों जुड़ गया? उन्हों ने असिक्नी ,सर्जक, सेतु, इरावती, शिखर, पर्वत राग, हिमाचल मित्र आदि पत्रिकाओं के हिमाचल की रचनाधर्मिता को मुख्यधारा तक ले जाने के प्रयास को रेखांकित किया.
इस के बाद प्राय: सभी वक्ताओं ने लघु पत्रिका आन्दोलन पर ही अधिक बोला. यह विषयांतरण अखरने वाला तो था लेकिन चूँकि पर्चे दिल्चस्प और जानकारियों से भरे हुए थे . (मसलन ,एक महाशय ने सूचित किया कि आरण्यक और पौराणिक काल मे ही लघु पत्रिका आन्दोलन जन्म ले चुका था.... :) अत: इस भटकाव को नज़र अन्दाज़ कर दिया गया.
के.आर भारती ने कहा कि हिन्दी की स्थिति इतनी शौचनीय नहीं है जितनी कि दर्शाई जा रही है. लघुपत्रिकाओं की संख्या इस का प्रमाण है. हिमाचल जैसे छोटे प्रांत में ही लघुपत्रिकाओं की भरमार है. उन्हो ने जानकारी दी कि हिमाचल में हिन्दी साहित्य को ले कर स्तरीय काम हो रहा है और यहाँ एक से बढ़ कर एक संजीदा साहित्यकार मौजूद हैं.
श्री हरिशंकर अग्रवाल ने आकण्ठ के ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि साठोत्तरी हिन्दी कविता की पूरी पीढ़ी विजेन्द्र से ले कर विष्णु खरे तक आकण्ठ मे छपती रही है. लेकिन आकण्ठ का वास्तविक उद्देश्य छोटे स्थानों के अलक्षित लोगों को सामने लाना है.
दूसरे सत्र मे परम्परागत शैली मे कवीता पाठ हुआ. सुरेश सेन निशांत, ईशिता , प्रदीप सैनी, आत्मा रंजन, के आर भारती, केशव, हरिशंकर अग्रवाल और राजीव त्रिगर्ती ने सुन्दर कविताएं पढ़ीं. मैं अपनी कविता 'एक बुद्ध कविता मे करुणा ढूँढ रहा है' सुना कर आश्वस्त और निवृत्त महसूस कर रहा था.
हम लोगों के साथ ऊना के दर्जन भर स्थानीय कवियो ने अपनी कविताएं पढ़ीं.
हाल ही में भाषा विभाग हिमाचल प्रदेश द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता मे प्रथम पुरुस्कार विजेता ऊना के कवि श्री कुलदीप शर्मा ने स्थानीय कवियों से आग्रह किया कि वे बाहर से आए हुए कवियों की कविता में समकालीन ट्रेंड को पकड़ कर तदानुसार काव्य सृजन का प्रयास करें. उपायुक्त महोदय ने भाव विभोर हो कर इस आयोजन के लिए अपने निजी फण्ड से 5,000/- रुपयों की घोषणा की . कि 'ये रौनक मेला लगा रहणा चाहिए'.
जैसा कि हर आयोजन अपना प्रभाव छोड़ता होता है, काफी लोग इस आयोजन से भी हताहत हुए. पोज़िटिवली भी, और नेगेटिवली भी. नेगेटिव लिस्ट लम्बी है, उन का नाम ले कर नमक मिर्च का कारोबार नहीं करना चाहता. पोज़िटिव लिस्ट मे सब से ऊपर है नन्हा बालक दिव्यांशु जो पूरे आयोजन मे विमोचित अंक की एक प्रति कभी तन्मय हो कर उलटता पलटता रहा तो कभी भावुक हो कर इसे छाती से लिपटाता रहा.
पर्वत राग के सम्पादक स्थानीय कवि ,व्यंग्य्कार, लोक सम्पर्क अधिकारी गुरुमीत बेदी सरकारी व्यवधान के चलते इस समारोह का हिस्सा न बन पाए. खैर, ठीक शाम आठ बजे उन्हों ने प्रतिगोष्ठी ज्वाईन की. उन के पूर्व कुलीग एवम सीनियर केशव नारायण उन्हे ज़बरन रात 1:30 तक बिठाए रहे.
परवेज़ अख्तर सुन्दर नगर के निवासी हैं तथा सम्प्रति सींचाई एवम जनस्वास्थ्य विभाग ऊना मे अधिशासी अभियंता हैं. साहित्य प्रेमी होने के साथ साथ निशांत तथा निरंजन के अच्छे परिचितों में से हैं. समस्त प्रतिभागियों ने उन्ही के सौजन्य से लज़ीज़्र रात्रिभोज का लुत्फ उठाया . सुबह सभी लोग नाश्ते के लिए गुरुमीत बेदी के घर गए.
हिमाचल प्रदेश की प्र ले स इकाई की बैठक भी निशांत भाई के एजेंडे में शामिल था. लेकिन किसी करणवश यह फलीभूत नही हो सका.
यात्रा सुखद रही. 'लाल' स्विफ्ट का ट्यूब्लेस टायर दो बार पंक्चर हुआ. मैंने और निरंजन ने दोनों ही बार 'प्रगति शील' तरीक़े से स्टेप्प्नी बदली .और इस प्रक्रिया में मैले हुए हाथ धोने मे एक दूसरे की मदद की.
अनुमोदनार्थ प्रस्तुत.