कल फेसबुक मित्र महेश पुनेठा के साथ चेट करते हुए यह कविता मिली । यह महेश को बहुत पसन्द है और मुझे भी । गणतंत्रदिवस की शुभकामनाओं के साथ आप सब के लिए महेश की यह ताज़ा कविता
उसके पास पति नहीं है
- महेश पुनेठा
उसके पास पति नहीं है
पिता भी बचपन में ही चल बसे
एक छोटा भाई है उसका
उसके और छोटे भाई के बीच
लगभग11-12 वर्ष का अंतर है
माँ उस क्षेत्र की सबसे पहली महिला दुकानदार है
वह समाज सेवा करती है
अनेक महिला संगठनों से जुड़ी है
महिला उत्पीड़न-शोषण के मुद्दों पर
वह अक्सर लड़ती-झगड़ती मिल जाती है
अक्सर पुरुष साथियों के साथ काम करना पड़ता है
उसे
पर कोई नहीं पूछता उससे उनके बारे में
उसे आए दिनों घर से बाहर रहना पड़ता है
घर लौटने में तो अक्सर देर हो जाती है
पर उसे इस बात पर कभी कोई टेंशन नहीं होता है
बस एक बार माँ को सूचित कर देती है फोन से
जब कभी पढ़ने में कुछ अधिक रम जाता है उसका मन
देर रात तक भी पढ़ती रहती है
तब सुबह देर तक ताने रहती है चादर
जल्दी उठने का भी उसे कभी कोई टेंशन नहीं
जब मन करता है उसका लांग ड्राइव में जाने का
निकाल अपनी कार या बाइक चल देती है
पहाड़ी नदी की तरह
कोई उससे फेरुवा नहीं कहता है
कोई नहीं पूछता कहाँ गई थी और क्यों?
वह कभी जींस-टाॅप कभी सलवार-कमीज
तो कभी साड़ी में भी दिख जाती है
वह अपने जीवन के सारे फैसल खुद लेती है
इन दिनों वह आपदा राहत कार्यों में लगी है
वह जब भी घर से निकलती है
मुहल्ले की औरतें अपनी छत की रैलिंग पर खड़ी
उसको दूर तक जाते देखती रहती हैं
जैसे देख नहीं खोज रही हैं सदियों से कुछ और
हमेशा भीतर की ओर लौट आती हैं खोजती हुई
जहाँ खोकर रह जाती हैं
कुछ चुनी-अनचुनी गुफाओं और बाड़ों में
और याद करने लग जाती हैं
तमाम कड़वे फलों के बीच
कुछ मीठे फलों के स्वाद को।