Saturday, July 27, 2013

सफर पर निरंजन -2

बस के सफर में


पहाड़ों में रेल नाम को ही चलती है । इसलिए पड़ौसी राज्यों में आना जाना बसों से ही होता है। जब पढ़ता था तो साधारण बस से ही दिल्ली आना जाना होता था । इक्का –दुक्का डीलक्स भी चलती थी । अब मध्य वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ी है। दो तरह की दुनियाओं के लिए दो तरह की व्यवस्था है । अधिक पैसा खर्च कर सकने वालों के लिए अधिक आरामदेह वाल्वो बसें हैं। जब भी वॉल्वो से दिल्ली आना-जाना हुआ एक नई दुनिया तेजी से बनती और बढ़ती देखी । अधिकतर सीटों पर या तो लैपटाप खोले छात्र या प्रोफेशनल होते हैं ,या फिर नवविवाहित जोड़े जो शादी के बाद हनीमून मनाने पहाड़ों पर आते हैं।  अधिकतर ईयर फोन लगाए मोबाइल नामक यंत्र से गाने या एफ एम सुनने में मशगूल रहते हैं या फिर डिजिटल कैमरा से लिए गए फोटो देखने में । अजीब तरह का आभिजात्य पसरा रहता हैं इन बसों में । आभिजात्य अपने साथ दंभ से भरा एकाकीपन भी लिए आता है।
 पिछली यात्रा के दौरान मेरे साथ वाली सीट पर बैठा दक्षिण भारतीय लगातार फोन पर बात किए जा रहा था । उसकी बातचीत से अंदाजा लग रहा था कि वह किसी निजी कंपनी में कार्यरत था । वह अंग्रेजी में तो कभी काम चलाऊ हिन्दी में या तो अपने ऊपर वालों से या फिर अपने से नीचे वालों से बात करने में लगातार व्यस्त था। बात –बात में राइट सर –राइट सर से पता चलता कि वह अपने से ऊपर कहीं बतिया रहा है । अपने से नीचे हाँ .. बोलो .. जैसे जुमलों का इस्तेमाल करके हूँ .. हूँ .. करता रहता । मेरे साथ दिल्ली तक के सफर में उस सहयात्री से जो संवाद हुआ वह रात्री भोजन हेतु जगह छोड़ने के लिए एक्स्क्युज मी जैसा बेहद औपचारिक संवाद था।
एक चीज और देखने में आई कि दिल्ली से लौटते हुए यह बसें एक ही भव्य रेस्तरां पर खाने के लिए रुकती थी । भले ही रात के ग्यारह बज रहे हों। पिछले चार बरसों में इस जगह खाने के प्रति व्यक्ति दाम बढ़ते –बढ़ते दुगने हो गए हैं और रेस्तरां भी फैल कर दुगना हो गया है। प्रवेश आपको एक शानदार उपहारों की दुकान से करना होता है जो बेशकिमती तोहफों से अटी रहती है। इन ठिकानों में बफे सजा होता है जहाँ प्रति व्यक्ति डेढ़ सौ रुपये के हिसाब से मिलने वाले खाने के साथ यह हिदायत भी लिखी रहती है कि इस खाने को आप दूसरे से बाँट नहीं सकते। बाकायदा नजर राखी जाती है कि इस हिदायत पर अम्ल हो । दौलत से सजी-धजी इस यांत्रिक दुनिया में सुविधा भोगी इंसान किस दिशा में जा रहा है समझ नहीं आता।

साधारण बसों की यात्राएं याद हैं । सहयात्री आपस में सुख –दुख साझा करते थे । छोटे –छोटे रोजगार जिंदा थे।  अब भी हैं, लील लिए जाने के ख़तरे के खिलाफ खड़े हैं । यदि दुनिया दो तरह के लोगों में इसी तरह बंटी रहेगी तो दुनिया को चलाने वाले कारोबार भी दो हिस्सों में बंटे रहेंगे । एक वह हिस्सा जिसमें थोड़ा पैसा लगाओ , जायदा  मेहनत करो , कम मुनाफा कमाओ और ईमानदार कहलाओ। एक दूसरी दुनिया जिस में ज्यादा पैसा लगाओ , ज्यादा  मुनाफा कमाओ और तुर्रा यह कि ईमानदार तो वह होता है जिसे बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता।  हाल ही एक यात्रा के दौरान साधारण बस से सफर आधी से ज्यादा दुनिया की जमीनी हकीकतों से जुड़ा हुआ था । खट्टी –मीठी गोलियाँ , नारियल से ले कर मौसमी फल बेचने वाले बस रुकते ही अंदर घुस आते। कंघी से ले कर टॉर्च और औज़ार बेचने वाले तक अपनी –अपनी चीजों के लाजवाब गुण बताते । किसी एक चीज के साथ एक या दो चीजें मुफ्त बेचते। दस-बीस रुपए की इस डील में मुनाफा नाममात्र ही होता होगा । कुछ आगे वाली सीट पर बैठा छोकरा ज़ोर –शोर से अपने परिवार वालों से बतियाए जा रहा था। उसकी पत्नी बिना सूचना के मायके चली गई थी। इसके लिए वह लगातार माँ ने पट्टी पढ़ा रखी होगी .. वाला जुम्ला दोहरे जा रहा था और लगातार ताकीद दिये जा रहा था कि अभी कंपनी वाले छुट्टी नहीं दे रहे इसलिए उसके पहुँचने तक शांत रहा जाए वरना मीडिया वाले बात का बतंगड़ बना देते हैं । बाकी वह वापिस आ कर सब देख लेगा । बस किसी स्टॉप पर रुकी थी । कंडक्टर उतार कर चिल्ला रहा था –“ रोपड़ , समरला , लुधियाना .... रोपड़ , समरला...”

Sunday, July 14, 2013

सफर पर निरंजन -1

जीवन का सफर बांचना तो कठिन है मेट्रो का सफर भी आसान नहीं
  • निरंजन देव शर्मा                                                                                          


[निरंजन देव शर्मा जितनी सजगता के साथ साहित्य को पढ़ते हैं उसी सतर्कता के साथ आस पास की दुनिया को भी  देखते हैं । गत दिनों जनसत्ता में 'दुनिया मेरे आगे'  स्तंभ में उन का एक रोचक लेख पढने को मिला । मैंने वह लेख अपने ब्लॉग के लिए माँगा तो उन्हों ने अपने दो अन्य रोचक  आलेख री राईट कर के मुझे दिए । तीनों चीज़ें यहाँ क्रमशः  दे रहा हूँ ] 




मेट्रो दौड़ रही है , ज़मीन के नीचे . स्टेशन पर खासी हलचल है . सीढियाँ दौड़ रही हैं , लिफ्ट भी . लोग तो दौड़ ही रहे हैं . रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर भी गहमा गहमी , भागम –भाग मची रहती है . पर मेट्रो स्टेशन की भाग दौड़ कुछ अलग है. इन सब जगहों की अपेक्षा मेट्रो  में वैसा शोर गुल और ऊँचे बोलने चिल्लाने . किसी को बुलाने या झल्लाने की आवाजें नहीं हैं .  शोर है तो बस मेट्रो के दौड़ने का . मेट्रो के भीतर उद्घोश्नाएँ चल रही हैं . जिनकी तरफ केवल नई सवारियों का ध्यान है . जो लोग इयर फोन लगाये रेडियो सुन रहे हैं वे इस शोर गुल से भी मुक्त हैं . मेट्रोमें लोग जो वर्गीय शालीनता ओढ़ लेते हैं वह भारतीय रेल के स्टेशनों पर तो नहीं पर ए . सी . कोच में ज़रूर दिख सकती है . एक तरुण जोड़ा लगभग एक दूसरे से सटा कुछ बतिया रहा है . मेट्रोकी भीड़ से बेखबर . आँखों में आँखें डाले . कुछ लोग उन्हें लगातार घूर रहे हैं और कुछ बीच –बीच नज़र भर देख लेते हैं . लगातार घूरना सभ्यता नहीं है . उन दोनों को किसी के अपनी और देखने की कोई परवाह नहीं है. बतिया रहे हैं इतने धीमे की एक दूसरे की आवाज़ वही सुन सकते हैं .
अचानक कुछ अटपटा सा कानफोडू संगीत बजता है .लोग इधर –उधर झांकते हैं . कानों में बाली , उलटीटोपी , झका झक पैंट और स्लीव लेस बंडी पहने एक युवक शान से चमचमाता  मोबाईल निकलता है . यह उसी की रिंग टोन है . लोगों की नज़रें सहज ही उसकी तरफ उठती हैं . वह लड़का मेट्रो की दुनिया का नहीं जान पड़ता . मेट्रो से बाहर की दुनिया का है . मेट्रो वाले उसे कनखियों से देखते हैं और मुस्कुरा कर चुप लगा जाते हैं . वह अपना फोन चालू करके कुछ  फिकरों का इस्तेमाल करता है. उसे सुन कर मेट्रो सवारों के चेहरों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान तैर जाती है . कई नज़रें आपस में मिल कर‘कैसे –कैसे लोग चढ़ आते हैं’ जुमले का मौन अनुवाद करती हैं .
राजीव चौक आ गया है . भागम –भागम शुरू . बाहर कोने के विज्ञापन बोर्ड का सहारा लिए एक और जोड़ा अपने में तल्लीन है . किसी विज्ञापन की तरह .स्टेशन की एस रेल पेल से अनासक्त एक यह भी दुनिया है मित्रो की . पार्क तो असुरक्षित हैं . यहाँ संभवतः सुरक्षा का अहसास होता है .

मैं बाहर आता हूँ . कनाट प्लेस की औपनिवेशिक भव्यता को फिर से जिन्दा करने की कोशिश चल रही है. सामने जो पार्क विकसित हुआ है . वह ओपन एयर थियेटर है . यहाँ किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन की तैयारी चल रही है . यह बिना टिकट का सावजनिक स्थल है . समाजवाद अभी जिन्दा है . जगह –जगह आइसक्रीम बिक रही है . लिफाफे और खाली कप हवा में इधर –उधर सरक रहे हैं . कचरा बाक्स दिखाई नहीं देते . शाम ढलने को है . दस के दो और बीस के चार बेचने वाले सक्रिय हो गए हैं . पटरी वाले भी दो –चार नज़र आने लगे हैं . एक –दूसरे को चेताते कारोबार कर रहे हैं . ‘आया रे .... आया ... सामान उठा कर ले जा रहा है ....’ एक आवाज़ . ‘हफ़्ता नहीं दिया था क्या ...’ दूसरी आवाज़ . शो रूम के अंदर और बाहर दोनों जगह कारोबार का संघर्ष जारी है . दोनों पक्षों के लिए दो वक्त की रोटी का मसला है . कौन कहता है कि रोटी तो रोटी ही होती है. रोटी –रोटी में फर्क है . देखें कौन जीतता है . पार्क के कोने में एक ही आइसक्रीम कोन का स्वाद लेते एक जोड़े की मुद्रा बेफिक्र लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है .
मुझे अंतर्राजीय बस अड्डे पहुंचना है . मेट्रो फिर दौड़ पड़ी है . शाम गहराने लगी है . मेट्रोसे बस अड्डे जाने वाले रास्ते पर वही युवक सी डी, डी वी डी बेच रहा है जिसका मेट्रो में फोन बजा था . कोई दूसरा भी तो हो सकता है उसी की तरह का. बीस रूपये से ले कर पैंतीस रुपये में ढेर सारा पायरेटिड सामान यहाँ मौजूद है . वह ग्राहक को यह बताना नहीं भूलता कि हिंदी और अंग्रेजी दोनों तरह की पोर्न उसके पास हैं . डबल एक्स ट्रिपल एक्स -सेम रेट . बाज़ार है , कारोबार है . छोटी छिपे है , सरेआम है . मेट्रो को  बस अड्डे को अलग करता  मेकडोवेल दो देशों की सीमाओं को विभाजित करता जान पड़ता है . एक चबूतरे पर कुछ हरियाला उगाया गया है . वहीँ एक जोड़ा मानो सांसारिकता से निर्लिप्त देह की भाषा समझने में तल्लीन है . क्या यह आदि अनुभव होता है पहली –पहली बार किसी के लिए भी . यहाँ की दुनिया इस वक्त एक दम बिंदास है .

बस अड्डे की दुनिया धुएँ , डीज़ल की गंध और ‘लावारिस सामान को न छुएँ...’ जैसी उद्घोषणाओं का मिला –जुला रूप है . अंदर एक पगली यात्रियों पर चिल्ला रही है . सुरक्षा कर्मियों पर भी . एक थुल –थुल आदमी उसे घूरता हुआ लगातार ही –ही कर रहा है . इधर –उधर घूमती वह उस पर भी बरसती है . वह ही –ही करता उससे बतियाने लगा है. वह लिजलिजा नज़र आ रहा है .जिसको जितनी फुर्सत है उतना दृश्य लोग देख रहे हैं .रोज़हम ऐसे कितने ही दृश्य देखते हैं और निकल जाते हैं अपनी मंजिल की ओर.