बस के सफर में
पहाड़ों में रेल
नाम को ही चलती है । इसलिए पड़ौसी राज्यों में आना जाना बसों से ही होता है। जब
पढ़ता था तो साधारण बस से ही दिल्ली आना जाना होता था । इक्का –दुक्का डीलक्स भी
चलती थी । अब मध्य वर्ग की क्रय शक्ति बढ़ी है। दो तरह की दुनियाओं के लिए दो तरह
की व्यवस्था है । अधिक पैसा खर्च कर सकने वालों के लिए अधिक आरामदेह वाल्वो बसें
हैं। जब भी वॉल्वो से दिल्ली आना-जाना हुआ एक नई दुनिया तेजी से बनती और बढ़ती देखी
। अधिकतर सीटों पर या तो लैपटाप खोले छात्र या प्रोफेशनल होते हैं ,या फिर
नवविवाहित जोड़े जो शादी के बाद हनीमून मनाने पहाड़ों पर आते हैं। अधिकतर ईयर फोन लगाए मोबाइल नामक यंत्र से गाने
या एफ एम सुनने में मशगूल रहते हैं या फिर डिजिटल कैमरा से लिए गए फोटो देखने में
। अजीब तरह का आभिजात्य पसरा रहता हैं इन बसों में । आभिजात्य अपने साथ दंभ से भरा
एकाकीपन भी लिए आता है।
पिछली यात्रा के दौरान मेरे साथ वाली सीट पर
बैठा दक्षिण भारतीय लगातार फोन पर बात किए जा रहा था । उसकी बातचीत से अंदाजा लग
रहा था कि वह किसी निजी कंपनी में कार्यरत था । वह अंग्रेजी में तो कभी काम चलाऊ
हिन्दी में या तो अपने ऊपर वालों से या फिर अपने से नीचे वालों से बात करने में लगातार
व्यस्त था। बात –बात में राइट सर –राइट सर से पता चलता कि वह अपने से ऊपर कहीं
बतिया रहा है । अपने से नीचे ‘हाँ .. बोलो .. ‘ जैसे जुमलों का इस्तेमाल करके हूँ .. हूँ .. करता रहता । मेरे साथ दिल्ली तक
के सफर में उस सहयात्री से जो संवाद हुआ वह रात्री भोजन हेतु जगह छोड़ने के लिए ‘एक्स्क्युज
मी ‘ जैसा बेहद औपचारिक संवाद था।
एक चीज और
देखने में आई कि दिल्ली से लौटते हुए यह बसें एक ही भव्य रेस्तरां पर खाने के लिए
रुकती थी । भले ही रात के ग्यारह बज रहे हों। पिछले चार बरसों में इस जगह खाने के
प्रति व्यक्ति दाम बढ़ते –बढ़ते दुगने हो गए हैं और रेस्तरां भी फैल कर दुगना हो गया
है। प्रवेश आपको एक शानदार उपहारों की दुकान से करना होता है जो बेशकिमती तोहफों
से अटी रहती है। इन ठिकानों में ‘बफे’ सजा
होता है जहाँ प्रति व्यक्ति डेढ़ सौ रुपये के हिसाब से मिलने वाले खाने के साथ यह
हिदायत भी लिखी रहती है कि इस खाने को आप दूसरे से बाँट नहीं सकते। बाकायदा नजर
राखी जाती है कि इस हिदायत पर अम्ल हो । दौलत से सजी-धजी इस यांत्रिक दुनिया में
सुविधा भोगी इंसान किस दिशा में जा रहा है समझ नहीं आता।
साधारण बसों की
यात्राएं याद हैं । सहयात्री आपस में सुख –दुख साझा करते थे । छोटे –छोटे रोजगार
जिंदा थे। अब भी हैं, लील लिए
जाने के ख़तरे के खिलाफ खड़े हैं । यदि दुनिया दो तरह के लोगों में इसी तरह बंटी
रहेगी तो दुनिया को चलाने वाले कारोबार भी दो हिस्सों में बंटे रहेंगे । एक वह
हिस्सा जिसमें थोड़ा पैसा लगाओ , जायदा मेहनत करो , कम
मुनाफा कमाओ और ईमानदार कहलाओ। एक दूसरी दुनिया जिस में ज्यादा पैसा लगाओ , ज्यादा मुनाफा कमाओ और तुर्रा यह कि
ईमानदार तो वह होता है जिसे बेईमानी करने का मौका नहीं मिलता। हाल ही एक यात्रा के दौरान साधारण बस से सफर आधी
से ज्यादा दुनिया की जमीनी हकीकतों से जुड़ा हुआ था । खट्टी –मीठी गोलियाँ , नारियल
से ले कर मौसमी फल बेचने वाले बस रुकते ही अंदर घुस आते। कंघी से ले कर टॉर्च और औज़ार
बेचने वाले तक अपनी –अपनी चीजों के लाजवाब गुण बताते । किसी एक चीज के साथ एक या
दो चीजें मुफ्त बेचते। दस-बीस रुपए की इस डील में मुनाफा नाममात्र ही होता होगा । कुछ
आगे वाली सीट पर बैठा छोकरा ज़ोर –शोर से अपने परिवार वालों से बतियाए जा रहा था। उसकी
पत्नी बिना सूचना के मायके चली गई थी। इसके लिए वह लगातार ‘माँ ने
पट्टी पढ़ा रखी होगी .. ‘ वाला जुम्ला दोहरे जा रहा
था और लगातार ताकीद दिये जा रहा था कि अभी कंपनी वाले छुट्टी नहीं दे रहे इसलिए उसके
पहुँचने तक शांत रहा जाए वरना मीडिया वाले बात का बतंगड़ बना देते हैं । बाकी वह
वापिस आ कर सब देख लेगा । बस किसी स्टॉप पर रुकी थी । कंडक्टर उतार कर चिल्ला रहा
था –“ रोपड़ , समरला , लुधियाना .... रोपड़ , समरला...”
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