Sunday, July 14, 2013

सफर पर निरंजन -1

जीवन का सफर बांचना तो कठिन है मेट्रो का सफर भी आसान नहीं
  • निरंजन देव शर्मा                                                                                          


[निरंजन देव शर्मा जितनी सजगता के साथ साहित्य को पढ़ते हैं उसी सतर्कता के साथ आस पास की दुनिया को भी  देखते हैं । गत दिनों जनसत्ता में 'दुनिया मेरे आगे'  स्तंभ में उन का एक रोचक लेख पढने को मिला । मैंने वह लेख अपने ब्लॉग के लिए माँगा तो उन्हों ने अपने दो अन्य रोचक  आलेख री राईट कर के मुझे दिए । तीनों चीज़ें यहाँ क्रमशः  दे रहा हूँ ] 




मेट्रो दौड़ रही है , ज़मीन के नीचे . स्टेशन पर खासी हलचल है . सीढियाँ दौड़ रही हैं , लिफ्ट भी . लोग तो दौड़ ही रहे हैं . रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड पर भी गहमा गहमी , भागम –भाग मची रहती है . पर मेट्रो स्टेशन की भाग दौड़ कुछ अलग है. इन सब जगहों की अपेक्षा मेट्रो  में वैसा शोर गुल और ऊँचे बोलने चिल्लाने . किसी को बुलाने या झल्लाने की आवाजें नहीं हैं .  शोर है तो बस मेट्रो के दौड़ने का . मेट्रो के भीतर उद्घोश्नाएँ चल रही हैं . जिनकी तरफ केवल नई सवारियों का ध्यान है . जो लोग इयर फोन लगाये रेडियो सुन रहे हैं वे इस शोर गुल से भी मुक्त हैं . मेट्रोमें लोग जो वर्गीय शालीनता ओढ़ लेते हैं वह भारतीय रेल के स्टेशनों पर तो नहीं पर ए . सी . कोच में ज़रूर दिख सकती है . एक तरुण जोड़ा लगभग एक दूसरे से सटा कुछ बतिया रहा है . मेट्रोकी भीड़ से बेखबर . आँखों में आँखें डाले . कुछ लोग उन्हें लगातार घूर रहे हैं और कुछ बीच –बीच नज़र भर देख लेते हैं . लगातार घूरना सभ्यता नहीं है . उन दोनों को किसी के अपनी और देखने की कोई परवाह नहीं है. बतिया रहे हैं इतने धीमे की एक दूसरे की आवाज़ वही सुन सकते हैं .
अचानक कुछ अटपटा सा कानफोडू संगीत बजता है .लोग इधर –उधर झांकते हैं . कानों में बाली , उलटीटोपी , झका झक पैंट और स्लीव लेस बंडी पहने एक युवक शान से चमचमाता  मोबाईल निकलता है . यह उसी की रिंग टोन है . लोगों की नज़रें सहज ही उसकी तरफ उठती हैं . वह लड़का मेट्रो की दुनिया का नहीं जान पड़ता . मेट्रो से बाहर की दुनिया का है . मेट्रो वाले उसे कनखियों से देखते हैं और मुस्कुरा कर चुप लगा जाते हैं . वह अपना फोन चालू करके कुछ  फिकरों का इस्तेमाल करता है. उसे सुन कर मेट्रो सवारों के चेहरों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान तैर जाती है . कई नज़रें आपस में मिल कर‘कैसे –कैसे लोग चढ़ आते हैं’ जुमले का मौन अनुवाद करती हैं .
राजीव चौक आ गया है . भागम –भागम शुरू . बाहर कोने के विज्ञापन बोर्ड का सहारा लिए एक और जोड़ा अपने में तल्लीन है . किसी विज्ञापन की तरह .स्टेशन की एस रेल पेल से अनासक्त एक यह भी दुनिया है मित्रो की . पार्क तो असुरक्षित हैं . यहाँ संभवतः सुरक्षा का अहसास होता है .

मैं बाहर आता हूँ . कनाट प्लेस की औपनिवेशिक भव्यता को फिर से जिन्दा करने की कोशिश चल रही है. सामने जो पार्क विकसित हुआ है . वह ओपन एयर थियेटर है . यहाँ किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन की तैयारी चल रही है . यह बिना टिकट का सावजनिक स्थल है . समाजवाद अभी जिन्दा है . जगह –जगह आइसक्रीम बिक रही है . लिफाफे और खाली कप हवा में इधर –उधर सरक रहे हैं . कचरा बाक्स दिखाई नहीं देते . शाम ढलने को है . दस के दो और बीस के चार बेचने वाले सक्रिय हो गए हैं . पटरी वाले भी दो –चार नज़र आने लगे हैं . एक –दूसरे को चेताते कारोबार कर रहे हैं . ‘आया रे .... आया ... सामान उठा कर ले जा रहा है ....’ एक आवाज़ . ‘हफ़्ता नहीं दिया था क्या ...’ दूसरी आवाज़ . शो रूम के अंदर और बाहर दोनों जगह कारोबार का संघर्ष जारी है . दोनों पक्षों के लिए दो वक्त की रोटी का मसला है . कौन कहता है कि रोटी तो रोटी ही होती है. रोटी –रोटी में फर्क है . देखें कौन जीतता है . पार्क के कोने में एक ही आइसक्रीम कोन का स्वाद लेते एक जोड़े की मुद्रा बेफिक्र लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है .
मुझे अंतर्राजीय बस अड्डे पहुंचना है . मेट्रो फिर दौड़ पड़ी है . शाम गहराने लगी है . मेट्रोसे बस अड्डे जाने वाले रास्ते पर वही युवक सी डी, डी वी डी बेच रहा है जिसका मेट्रो में फोन बजा था . कोई दूसरा भी तो हो सकता है उसी की तरह का. बीस रूपये से ले कर पैंतीस रुपये में ढेर सारा पायरेटिड सामान यहाँ मौजूद है . वह ग्राहक को यह बताना नहीं भूलता कि हिंदी और अंग्रेजी दोनों तरह की पोर्न उसके पास हैं . डबल एक्स ट्रिपल एक्स -सेम रेट . बाज़ार है , कारोबार है . छोटी छिपे है , सरेआम है . मेट्रो को  बस अड्डे को अलग करता  मेकडोवेल दो देशों की सीमाओं को विभाजित करता जान पड़ता है . एक चबूतरे पर कुछ हरियाला उगाया गया है . वहीँ एक जोड़ा मानो सांसारिकता से निर्लिप्त देह की भाषा समझने में तल्लीन है . क्या यह आदि अनुभव होता है पहली –पहली बार किसी के लिए भी . यहाँ की दुनिया इस वक्त एक दम बिंदास है .

बस अड्डे की दुनिया धुएँ , डीज़ल की गंध और ‘लावारिस सामान को न छुएँ...’ जैसी उद्घोषणाओं का मिला –जुला रूप है . अंदर एक पगली यात्रियों पर चिल्ला रही है . सुरक्षा कर्मियों पर भी . एक थुल –थुल आदमी उसे घूरता हुआ लगातार ही –ही कर रहा है . इधर –उधर घूमती वह उस पर भी बरसती है . वह ही –ही करता उससे बतियाने लगा है. वह लिजलिजा नज़र आ रहा है .जिसको जितनी फुर्सत है उतना दृश्य लोग देख रहे हैं .रोज़हम ऐसे कितने ही दृश्य देखते हैं और निकल जाते हैं अपनी मंजिल की ओर. 

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