
15-16 नवम्बर 2010 को इंडिया हेबिटेट सेंटर दिल्ली में प्रज्ञा नामक संस्था ने दो दिवसीय कार्यशाला आयोजित की. विषय था ‘हिमालयी विरासत- मूल्यवृद्धिकरण एवम संरक्षण्’ . बात क्यों कि एक साथ बचाने और बेचने की हो रही रही थी, मुझे वहाँ जाना ज़रूरी लगा. कि भाई लोग दोनो का निर्वाह एक साथ कैसे कर पाते हैं? प्रज्ञा एक गुड़गाँव बेस्ड स्वयं सेवी संस्था है जो 7000 फीट से अधिक ऊँचाई वाले सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों के आर्थिक साँस्कृतिक उत्थान के लिए कृत संकल्प है. इस के निदेशक गार्गी बेनर्जी नाम की दिल्ली वासी महिला हैं. केन्द्रीय राज्य मंत्री ग्रामीण विकास सुश्री अगाथा संगमा ने इस आयोजन का उद्घाटन किया. अपने सम्बोधन मे उन्होने कहा कि हिमालय की

जटिल चुनौतियों को समझना आसान नहीं है. कार्य शाला का फोकस मुख्यत: चार इदारों में था— Eco tourism, Horticulture, Handicrafts, Medicinal plants. बीज पत्र डॉ. महेन्द्र लामा का था जो सिक्किम विश्वविद्यालय के उप कुलपति एवम सिक्किम सरकार के आर्थिक सलाह्कार भी हैं. उन्हों ने चिंता व्यक्त की कि भूमण्डली करण के इस युग में हिमालय का अस्तित्व संकट मे है . उन्हों ने नाथुला व्यापार को फिर से खोलने के मुद्दे पर् विस्तार से चर्चा की. उन्हो ने चेताया कि अपनी विशिष्ठ भौगोलिकता के चलते हिमालय बरबस ही बहुराष्त्रीय कम्पनियों और विश्व की बड़ी शक्तियों का ध्यान खींच रहा है. मुझे अपनी कविता ‘एक बुद्ध कविता में करुणा.......’ की याद आई. वे बोले कि निस्सन्देह इस वर्ष क्रॉस बॉर्डर पॉवर ट्रेडिंग के तहत 20 करोड़ डॉलर का व्यापार हुआ है ,किंतु हमे यह भी ध्यान मे रखना चाहिए कि अन्धाधुन्ध जल विद्युत परियोजनाओं के चलते मौसम में व्यापक परिवर्तन आया है. जो बुराँश का फूल पूर्वी हिमालय में अप्रेल के बाद खिलता था इस वर्ष फर्वरी के प्रथम सप्ताह ही खिलता देखा गया. MSME मंत्रालय के सचिव श्री उदय कुमार ने कहा कि हिमालय को बचाना है तो ‘क्लस्टर’ बनाओ. फिर् उन्हो ने गालिब की खूबसूरत ग़ज़लें सुनाई. पता नही, अहिन्दी भाषी हिमालयी श्रोताओ ने इन ग़ज़लों को कितना समझा , पर एक शे’र मुझे याद रह् गया--
न तीर कमाँ में है न सय्याद कमी में
गोशे में क़फ़स की हमें आराम बहुत है.
हिमाचल भाषा एवम संस्कृति निदेशक श्री प्रेम शर्मा ने हिमालय को दो तरीक़ों से बचाने की कोशिश की – सीमेण्ट फेक्ट्री का विरोध कर के . और पहाड़ी और भोटी भाषा को आठवीं अनुसूची में डाल कर. मैं ने दूसरे तरीक़े पर घोर आपत्ति दर्ज की तो वे काफी लाल हो गए थे. बाद मे लंच पर हम में सुलह हो गई. लकिन मैंने उन्हे जता दिया कि मैं *आप* से सुलह कर रहा हूँ; आप की सरकार की उस *वाहियात नीति* से क़तई नहीं, जो भाषाओं को राजाश्रय का मोह्ताज बना देना चाहती है. इस तरह बड़े बड़े इदारों से बड़े लोग आये थे जिन्हों ने अपनी अपनी समझ( सहूलियत) से इस कार्यशाला मे हिमालय को बचाया. हर कोई हिमालय की समृद्ध विरासत पर शोध करने (बचाने ?) के लिए अधिक से अधिक फण्ड माँग रहा था. मैं हैरान था. ....... *समृद्ध* को *बचाने* के लिए *धन * की ज़रूरत?
लेकिन इस आयोजन मे केवल ये बड़े लोग ही नही थे. कुछ कम्युनिटी पीपल भी आए थे. लद्दाख, स्पिति, लाहुल, पांगी, किन्नौर, निति, पिथौरागढ, दार्चुला, अरुणाचल,सिक्किम ,नेपाल , दार्जीलिंग के लोग अपनी पारम्परिक वेशभूशा मे IHC के पाँगण मे टहलते , बूफे का आनन्द लेते बहुत आकर्षक लग रहे थे. ज़ाहिर है उन्हे अपने बारे अच्छी अच्छी बातें सुन कर बहुत *अच्छा* लग रहा था. सच, ये ऐसे ही अच्छे बने रहे तो हिमालय मे पर्यटन खूब बढ़ेगा. जो पहले ही 880 मिलियन प्रति वर्ष का आँकड़ा पार कर चुका है. (इस में 5.5 मिलियन बुधिस्ट टूरिस्ट? है)
दूसरे दिन पहले सत्र में डाबर कम्पनी के डॉ. वृन्दावरन ने प्रज्ञा का आभार जताया कि उन्हो ने डाबर को कुठ के धन्धे ( कॉंट्रेक्ट फार्मिंग) में लाहुल में पाँव जमाने का मौका दिया. लाहुल के किसान की ताअरीफ मे उनने कहा कि वह बहुत मेहनती और समझदार है. जैसा कम्पनी को चाहिए वैसा उत्पादन कर के देता है. कम्पनी किसान को व्यापारी से प्रतिकिलो 32/- रुपये ज़्यादा दे रही है. लाहुल मेडिसिनल प्लांट उत्पादक सहकारी सभा के श्री रिग्ज़िन हायर्पा ने प्रज्ञा को धन्यवाद दिया कि उस ने वर्ष 2010-11 मे सभा से 52 लाख का माल खरीदा. बाद मे प्रज्ञा ने स्पष्ट किया कि वह माल दर असल डॉबर ने खरीदा था.
दूसरे सत्र मे सहकारिता पर प्रेसेंटेशन था. लोगों से पूछ गया कि सहकारी सभाओं से कितने लोग जुड़े हैं?केवल चार हाथ खड़े हुए. मुझे खुशी हुई कि चारों लोग लाहुल के थे.
आखिर में बायर-सेलर मीट था. खरीद फरोख्त का मामला था. तब तक काफी बातें समझ में आ गईं थीं. अगले दिन मुझे मनाली में लाहुली लेखन और लेखकों पर पर्चा पढ़ना था . मुझे फौरन ISBT की तरफ दौड़ना पड़ा.