Monday, December 31, 2012

नए साल पर पियो यह कड़वा ठंडा प्याला

 के .  सच्चिदानन्दन  समकालीन भारतीय  कविता में एक महत्वपूर्ण नाम हैं . वे  मलयालम भाषा के वरिष्ठ कवि एवं आलोचक हैं।सचिदा मेरे प्रिय कवि हैं. नव वर्ष  पर उन की  कविता  का यह सुन्दर अनुवाद अचानक एक मित्र के पोस्ट पर  प्राप्त हुआ  . आप सब के लिए . 







   नया साल 
  • के. सच्चिदानंदन                                                                                               (अनुवाद : राजेंद्र घोड़पकर)


एक कांपता हाथ बदलता है कैलेण्डर 

घूमता है एक रथ का पहिया छितराता खून 

कवि अपना काम आसानी से करता है 

घंटियाँ घनघनाती हैं मोमबत्तियों के प्रकाश में सहमी 

फीकी कोमल लालसाएं बिना कटे केक के सामने 

आस्तिक मनाता है नया साल 


अमूर्त कलाकार के बिना तारीख और महीनों के 

पंचांग में है रंगों का अत्याचार 

हिजड़ों की गली में 

नया साल आता है हिजड़े के रूप में 

एक रुपये के मैले नोट पर अशोक का दयालु स्तम्भ 

सड़क की वैश्या को इतिहास सिखाता है 


दुखते हुए पैरों से मैं घुसता हूँ नए साल में 

रात-भर अंगूरों को पैरों से मसलकर रस निकाल 

नींद में की शराब भरता हूँ चार प्यालियों में 

एक प्याली प्यार के लिए जिसे मैंने देखा सिर्फ भद्दे कपड़ों में 

एक प्याली पुरखों के लिए , उजले सफ़ेद वस्त्र पहने 

जिसने हमें धकेला कठिनाई में 

एक प्याली क्रांती के लिए, जो फिसलती रही छोटे-छोटे हाथों से 

यह प्याली भावी पीढीयों के लिए, जिन्होंने नहीं खोये हैं अब तक सारे 

सपने 


दोस्तों आओ, आओ बच्चों 

इस जर्जर मेज़ के गिर्द बैठो , वाल्मीकि जितनी पुरानी 

मेरे साथ खाओ यह तुच्छ रोटी, जो बनाई मैंने शब्दों से 

दुस्वप्नों की खमीर डालकर 


पियो यह कडुआहट से बुदबुदाता प्याला, मुक्ति के देवता के नाम, 

अजन्मे 

पियो यह ठंडा हुआ जा रहा है .


( महेश वर्मा की समयरेखा से साभार) 

Friday, December 28, 2012

यह हमारा सामूहिक कुकृत्य था . हम शर्मिन्दा हैं

उस का जो भी नाम था , वह जहाँ से भी थीं , हम उसे बचा नहीं पाए !
                      



                          "हम ब्यूँस की टहनियाँ हैं 

                           जितना चाहो दबाओ
 
                           झुकती ही जाएंगी 


                           जैसा चाहो लचकाओ लहराती ही रहेंगी 
                                      
                           
                           जब तक हम मे लोच है

                           

                           और जब सूख जाएंगी                                                
                           कड़क कर टूट जाएंगी. " 




 दोस्तो यह गेंग रेप हम सब ने मिलकर किया है . 

   यह हत्या   हमारे समाज ने की है  .

 हम शर्मिन्दा हैं !!

Tuesday, December 25, 2012

दोयम दर्जे के इंसान


                          ‘‘अरे छोड़ो भाई, ये सब औरतों की बाते हैं।’’ अक्सर हम यह सुन ही लेते हैं। रंगभेद और पुरुष वर्चस्व का सिलसिला साथ ही शुरू हुआ और चलता रहा है। खुद को मजबूत बनाए रखने के उनके तर्क भी एक जैसे ही होते हैं। एउखेनिओ राउल साफ्फारोनि बताते हैं कि स्पेनी धार्मिक न्यायालयों इन्किसिशियोन के दौर में 1546 में आधी आबादी के खिलाफ बना तथाकथित डायन विरोधी कानूनएल मार्तिल्यो दे लास ब्रुखास दुनिया का पहला फौ़ज़दारी कानून था। इसे तैयार करने वाले धर्म के रक्षकोंने यह पूरा पोथा ही महिलाओं की दुर्दशा को जायज़ ठहराने और उनकी निम्नतरशारीरिक क्षमता को साबित करने के लिए लिख  डाला था। वैसे भी, बाइबिल और यूनानी पौराणिक कहानियों के जमाने से ही औरतों को कमतर बताने व बनाए जाने की शुरुआत हो चुकी थी। तभी तो हमें ये बताया जाता रहा कि वो हव्वा एक महिला ही थी जिसकी मूर्खता की वजह से हम सबको स्वर्ग से धरती का मुंह देखना पड़ा है, और दुनिया को कष्टों से भर देने वाला पिटारा भी तो एक महिला पांडोरा ने ही खोला था। एक तरफ जहां संत पाब्लो अपने चेलों को यह बताते थे कि ‘‘औरत के शरीर का एक ही हिस्सा मर्दों वाला होता है, और वह है उसका दिमाग’’ वहीं उनसे उन्नीस सौ साल बाद आए सामाजिक मनोविज्ञान के संस्थापकों में से एक माने गए गुस्ताव ले गोन यह साबित करने में लगे हुए थे कि ‘‘किसी औरत का बुद्धिमान होना उतना ही दुर्लभ है, जितना दो सिरों वाले चिम्पाजी का पाया जाना।’’ चाल्र्स डार्विन वैसे तो औरतों की कुछ खूबियों, जैसे कि घटनाओं का पूर्वानुमान कर लेने की उनकी क्षमता, की बात करतें हैं लेकिन वह भी इसे नीची नस्ल के लोगों की विशेषता ही बताते हैं।

                  अमेरिकी महाद्वीपों को जीत लिए जाने के समय से ही समलैंगिकों को मर्दानगी की स्वाभाविक प्रकृतिके खिलाफ़ मान लिया गया था। यूरोप से आए ईश्वर के लिए, जो कि अपने नाम से ही पुरुष है, सबसे बड़ा अपराध यह था कि मूलवासियों में मर्दों का औरतों की तरह होना बिल्कुल स्वाभाविक माना जाता था ईश्वर के सभ्य’ उपासकों के लिये तो यहां के पुरुष बिना स्तन और प्रजनन क्षमता वाली स्त्री ही थे। हमारे दौर में भी समलैंगिक औरतें स्त्रीत्व’ की स्वाभाविक स्थिति’ के खिलाफ़ ठहरा दी जाती हैं तो इसी वजह से की वे व्यवस्था के लिए जरूरी मजदूर नहीं पैदा करतींऔरत जिसका जन्म ही बच्चे पैदा करने, नशेड़ियों को आनंद देने व महात्माओं के कुकर्मों पर अपनी चुप्पी का पर्दा डालने के लिए हुआ है, आदिवासियों और अश्वेतों की तरह स्वभाव से ही पिछड़ी बता दी जाती है आश्चर्य नहीं कि इन्हीं समुदायों की तरह वह भी इतिहास के हाशिये पर पर फेंक दी गई है अमेरिकी महाद्वीपों का सरकारी इतिहास आज़ादी की लड़ाई के महान नायकों के पीछे छूट जाने वाली मांओं और विधवा औरतों के त्याग और दुख का जिक्र कर लिया करता है कुल मिलाकर यह एक झंडे (उस भावी गणराज्य का जिसके नायक हमेशा पुरुष ही होने थे-अनुवादक), कढ़ाई और मातम (घरेलु काम जो जाहिर है, औरतों के ही हिस्से आते हैं-अनुवादक) का उत्सव ही रहा है यही इतिहास यूरोप के अमेरिकी महाद्विपों पर हमले की महिला नायकों व बाद में आज़ादी की लड़ाईयों को आगे बढ़ाती लातिन अमेरिकी क्रियोल वर्ग (शुद्ध’ यूरोपीय खून का दावा करने वाले) की महिलाओं की बात शायद ही कभी करता है पुरुषों की वीरता बखानते ये इतिहासकार कम से कम युद्ध और मार-काट की इनकी (इन औरतों की) खुबियों का गुणगान तो कर ही सकते थेगुलामी के दौर में हुए कितने ही विद्रोहों की मूलवासी और अश्वेत नायिकाएं तो फिर गुमनाम ही रह जाने वाली थीं।  

लेखक
एदुआर्दो गालेआनो (जन्म उरुग्वे,1940- ) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातिनी अमेरिकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि "लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है" यह अनुवाद उनकी किताब Patas arriba: la escuela del mundo al revés (1998) (पातास आरिबा: ला एस्कुएला देल मुन्दो अल रेबेस- उलटबांसियां: उल्टी दुनिया की पाठशाला) का एक हिस्सा है यह किताब ग्लोबलाईज्डसमय के क्रूर अंतर्विरोधों और विडंबनाओं का खाका  है जो भारत सहित तथाकथित तीसरी दुनिया’ के देशों के लिए बहुत मौजूं है
अनुवादक
इस किताब का अनुवाद जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के लातिन अमेरिकी साहित्य के शोधार्थी पी. कुमार मंगलम कर रहे हैं समयांतर के अक्टूबर,2011 के अंक में गालेआनो के लेख का उनका किया हिंदी अनुवाद छप चुका है

Wednesday, December 19, 2012

जो प्रेम नहीं कर सकता , वही बलात्कार कर सकता है .

आहत , शर्मसार , और फ्रस्ट्रेटेड हूँ ! 






महज़ मोमबत्तियाँ जला कर हम स्त्री को सशक्त नहीं कर सकते ! 

सच यह है कि जो प्रेम नहीं कर सकता , वही बलात्कार कर सकता है . बालात्कार उस पिछड़ी मानसिकता का बाईप्रोडक्ट है जो स्त्री को सम्पत्ति मानती है . और उसे *पाने* के लिए किसी भी हद तक चली जाती है . यह बहुत शर्मनाक है कि हमारे संस्कारों में औरत (बेशक जिसे वह प्रेम करता हो) को *पाने* का कॉंसेप्ट बहुत गहरे बैठा हुआ है . बड़े बड़े लेखकों , कलाकारों में भी आप इस वाहियात *चाहत* को स्मेल कर सकते हैं. मुझे वे कविताएं और वो गीत बेहद अश्लील लगते हैं जहाँ "तुम्हें पा लिया " टाईप जुमले होते हैं . हमारे समाज का बहुत बड़ा वर्ग अजाने ही इस मानसिकता को जीता है और हैरान होता कि हमी में से कोई कैसे इतनी गिरी हुई हरकत कर सकता है ? मैं उस की इस भोली हैरानगी पर हैरान होने की अनुमति चाहता हूँ . ज़रा सोचिए हम किसी भी हालात मे स्त्री को व्यक्ति नही मान सकते यह आश्चर्यजनक है . मानते भी हों तो दोयम दर्जे का व्यक्ति मानते हैं .... हमारे महान स्त्री चिंतक बड़ी बेशर्मी से कहते फिरते हैं -- इन्हे एम्पॉवरमेंट की ज़रूरत है . माने , स्त्री दोयम हो गई . हम उसे ताक़त देंगे , तो भला होगा उस का . यह बहुत नेगेटिव सोच है समाधान का पहला कदम मैं समझता हूँ कि इस ओछी मानसिकता से निजात पाना होगा , जो कि निस्चित तौर पर आसान नहीं है ; लेकिन असम्भव भी नहीं . यह चेतना प्रसारित हो सकती है. बाक़ी ताक़त तो उसे खुद हासिल करना होगा . हम कौन होते हैं देने वाले ?

एक कवि के रूप मे, और एक इनसान के रूप में भी; मैं केवल सच्चे मन विश कर सकता हूँ कि मेरे समाज के तमाम कमज़ोर व्यक्ति , हारे हुए और डरे हुए समूह अपने लिए ताक़त खुद हासिल करें . बल्कि अपनी शक्तियों को पहचानें ,उन का प्रयोग करें जो उन के पास मौजूद ही है ! समाज में सम्वेदनाएं बची रहें , इंसानियत बची रहे .

Monday, December 17, 2012

शोक ग्रस्त

मित्र कवि अशोक कुमार पाण्डेय के आदरणीय पिता जी की असमय मृत्यु पर हार्दिक सम्वेदनाएं 

Thursday, December 13, 2012

अभी भी ज़िन्दा हैं !

तद्भव -26  में  बहुत अच्छी  , पठनीय सामग्री है . कृष्णा सोबती के संस्मरण , राम विलास शर्मा की दृष्टि  और चिंतन के कुछ अंनछुए पक्ष, हिन्दी आख्यान पर रमेश उपाध्याय का  विचारोत्तेजक विमर्श    ; दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा  का भारत मे  शिक्षा और पाठ्यक्रम को ले कर  तथ्यों पर आधारित आलेख ;  कात्यायनी ,  गीत चतुर्वेदी, प्रीति चौधरी  और एकांत श्रीवास्तव की बेहतरीन कविताएं ................


इसी अंक से  यू . के. एस. चौहान की एक छोटी कविता जो मुझे बहुत पसन्द आई  --

वे मरे नहीं थे 

वे लगातार रोते हुए से दिख रहे थे
पर वे रो नहीं रहे थे शायद
दरअसल वे हँसते ही ऐसे थे
लगता था जैसे रो रहे हों

वे जाहिल और गँवार लग रहे थे
पर वे जाहिल और गँवार थे नहीं
दरअसल नासमझी में लोगों को उनके तौर तरीक़े
लगते थे जाहिल और गँवारों जैसे

वे मरे हुए ज़रूर लग रहे थे
पर वास्तव में वे मरे नहीं थे अभी
दरअसल वे जी रहे थे मरे हुए से

वे ज़मीन से उखड़ेहुए दरख्त की भाँति सूख रहे थे
पर उनकी जड़ें अभी
पूरी तरह ज़मीन से अलग नहीं हुईं थीं शायद
दरअसल
अपनी इन तमाम बुनियादी लाचारियों के बावजूद
उनके भीतर अभी भी
अपना अस्तित्व बचाए रखने की उत्कण्ठा बरकरार थी
और इस लिए वे चुपचाप
आखिरी संघर्ष की तय्यारी करने के लिए
बस तन कर खड़े ही होने वाले थे किसी वक़्त .

Thursday, November 22, 2012

तब भी मैं ही था ; वहाँ भी मैं ही था


अशोक कुमार पाण्डेय  की कविताएं यहाँ पहले भी देखी गईं हैं . इस समय इंटरनेट पर सब से अधिक  सक्रिय इस कवि को मैंगत दो वर्षों से लगातार फॉलो कर रहा हूँ . और रीचार्ज हो रहा हूँ . कल फेस बुक पर अचानक यह महत्वपूर्ण कविता  देखा तो सोचा कि बिन पूछे इसे यहाँ चिपका दिया जाए. साफ दिखता है कि कविता एक दम ताज़ा है और ठाकरे की मृत्यु के बाद   इस मूढ़ देश  ने जिस तरह का व्यवहार किया उस की त्वरित प्रतिक्रिया के रूप मे निकली है. लेकिन कविता बहुत कम स्पेस लेता हुआ भी व्यापक स्कोप समेट रहा है . मैं इस कविता को अंग्रेज़ी मे पढ़ रहा हूँ और रोमाँचित हो रहा हूँ 





यह कविता नहीं है 
  • अशोक कुमार पाण्डेय 

(वह हर जगह था वैसा ही) 

मैं बम्बई में था
तलवारों और लाठियों से बचता-बचाता भागता चीखता
जानवरों की तरह पिटा और उन्हीं की तरह ट्रेन के डब्बों में लदा-फदा
सन साठ में दक्षिण भारतीय था, नब्बे में मुसलमान
और उसके बाद से बिहारी हुआ

मैं कश्मीर में था
कोड़ों के निशान लिए अपनी पीठ पर
बेघर, बेआसरा, मज़बूर, मज़लूम
सन तीस में मुसलमान था नब्बे में हिन्दू हुआ

मैं दिल्ली में था
भालों से गुदा, आग में भुना, अपने ही लहू से धोता हुआ अपना चेहरा
सैंतालीस में मुसलमान था
चौरासी में सिख हुआ

मैं भागलपुर में था
मैं बडौदा में था
मैं नरोडा-पाटिया में था
मैं फलस्तीन में था 
अब तक हूँ वहीँ अपनी कब्र में साँसे गिनता

मैं ग्वाटेमाला में हूँ 
मैं ईराक में हूँ
पाकिस्तान पहुँचा तो हिन्दू हुआ

जगहें बदलती हैं
वजूहात बदल जाते हैं
और मज़हब भी, मैं वही का वही !

Sunday, November 4, 2012

व्रत और विद्रोह

मणिपुरी कवयित्री इरोम शर्मिला के अनशन को आज बारह   वर्ष पूरे हो गए. यह उपवास उत्तर पूर्व के समाज मे अत्यधिक निन्दित  AFSPA  के विरोध मे है.  संयोग से आज करवा चौथ भी है . जिस मे हिन्दू  स्त्रियाँ अपने पति के लिए उपवास रखतीं हैं !! ऐसे में  उपवास की परम्परा  के बारे कुछ तथ्य जान लेने का मन करता है. क्यों  अकसर हम   व्रत  और विद्रोह को  दो विरोधाभासी चीज़ें  मानते हैं .    रति सक्सेना   ने कुछ दिलचस्प शोध किए हैं . और  उन के पास स्त्री चेतना के कुछ अद्भुत आयाम हैं . मुझे लगा कि इस दस्तावेज़ को सहेज लेना चाहिए. उन के फेस बुक स्टेटस से शब्दशः चिपका रहा हूँ.  आप लोगों की राय भी जानना चाहूँगा

आज हम करवा चौथ तीज आदि व्रतों को मना रहे हैं, तो कहीं इन्हें स्त्रीवाद से जोड़ा जा रहा है। कहीं पर ये महमामण्डित होते दिखाई दे रहे है। कहीं पर सवाल उठाये जा रहे है कि सारे व्रत स्त्रियाँ ही क्यों रखे आदि आदि...

हम अपने भूत से बस उतना ही परिचित है, जितना सुना हैं, पढ़ने की कोशिश करते भी नहीं....

इस वक्त मेरे सामने स्मृति ग्रन्थ खुले है, मैं व्रत के बारे में खोज रही हूं तो अचम्भित करते तथ्य दिखाई

देते है ( अंचम्भित अपने अज्ञान के प्रति, क्यों कि स्मृतियाँ तो सुरक्षित हैं हीं)

स्मृतियों में व्रतों के बारे विस्तार से बखान है, कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं। मैंने देखा स्मृति शास्त्रों में स्त्रियों और शूद्रों को व्रत- उपवासों से पूरी तरह वंचित किया गया है, मेरे सामने अत्रि स्मृति (सोलह स्मृतियाँ है, कृपया ध्यान रखें) खुली है, जिसका 133वाँ और 134 , 135 श्लोक कहते हैं--
जप तप तीर्थ यात्रा , सन्यास , मन्त्र सिद्धी, और देवताओ की अराधना शूद्र और स्त्री के पतन का हेतु हैं। जो स्त्री पति के जीवित रहते हुए उपवास करती है वह पति की आयु कम करती है। यदि स्त्री को किसी तरह के पुण्य कर्म की इच्छा है तो वह पति के पाँव धोकर जल पीये।

अतःपरंप्रवक्ष्यामि स्त्री शूद्रपतनानि च।
जपस्तपस्तीर्थयात्रा प्रव्रज्यामन्त्रसाधनम्।। अत्रि स्मृति १३३

देवताराधनचैव स्तरीशूद्रपतनानिषट।
जीवद्भर्तरियानारी उपोष्यव्रतचारिणी।।अत्रि स्मृति १३४

आयुष्यंहरतेभर्तुः सानारीनरकंब्रजेत।
तीर्थस्नानार्थिनीनारी पतिपादोदकंपिबेत्।। अत्रि स्मृति १३५

स्मृति काल वैदिक एवं उपनिषदिक काल से काफी बाद का है, लेकिन बृहदारण्यक उपनिषद में हम मेत्रैयी और याज्ञवल्यक्य की कथा पढ़ते हैं जहाँ याज्ञावल्क्य पत्नियों को छोड़ कर सन्यास हेतु वन जाने की बात कहते हैं तो मेत्रैयी यही सवाल करती है कि आपको तो आत्मज्ञान सन्यास से होगा तो आपके छोड़े गये धन से हमारी मुक्ति कैसे सम्भव होगी। यहाँ याज्यवल्क्य प्रसन्न होकर उपदेश देते है (क्या देते हैं, वह हमे उपनिषद में नहीं मिलता लेकिन दन्ड नहीं।) लेकिन स्मृति काल में तो दण्ड निश्चित कर दिया गया है।

स्मृति काल स्त्री और शूद्रों के लिये बेहद कटु काल रहा है, लेकिन इसकी कटुता को हम अपने जीन में आज तक धारण करते आ रहे हैं।
तो अब सवाल यह उठता है कि स्त्री ने पुरुष के संसार में कब सैंध मारी, कब उनके व्रत- उपवास उड़ा कर अपने बना लिये? यह एक रोचक विषय है और स्त्री स्वतन्त्रता का दूसरा मायने खोलता है। स्त्री ने ना केवल व्रत करना शुरु किया बल्कि पुरुष को भी भ्रमित कर स्त्री ने ना केवल व्रत करना शुरु किया बल्कि पुरुष को भी भ्रमित कर अपने काम में शामिल भी कर लिया। ध्यातव्य है कि स्त्री के व्रत अधिकतर पुत्र , पति या घर के लिये होते हैं, इसके पीछे भी कोई संज्ञान है क्या?

ध्यातव्य यह भी है कि पूर्णतया भक्ति या सन्यास के मार्ग में जाने वाली स्त्रियाँ समाज और परिवार से प्रताड़ित भी हुई, दक्षिण में अक्का महादेवी (माला चाहे हीरे की क्यो ना हो,/बंधन ही है/जाल चाहे मोतियों का क्यों ना हो/रुकावट ही है,/गर्दन चाहे /सोने की तलवार से/ क्यो ना कटे/मौत ही है।/हे प्रभु ! तुम ही बतलाओ/जिन्दगी के फेर में पड़ कर
क्या कोई छूट सकता है/जनम मरण के बन्धन से)

कश्मीर में ललद्यद या रूप भवानी हो, मीरा का संघर्ष भी यही था।
मैंने बचपन से देखा था कि स्त्रियों की पूजा में किसी माध्यम यानी पण्डित की जरुरत नहीं होती, वे स्वय ही चावल हल्दी के एपन चौक पूर मिट्टी के ढ़ेले की गौर स्थापन कर चार छह कथा कह पूज लेती हैं। उनकी पूजाओं में पुरुषों की भी जरुरत नहीं पड़ती....

मै अब यह जानने की कोशिश कर रही हूँ कि व्रतहीन स्थिति से व्रत युक्त स्थति तक आने में उन्हे कितना वक्त और कितनी मेहनत लगी.... और किस तरह से घर के भीतर ही उन्होंने विरोध की आग सुलगा कर रखी......
मैं अपनी माँ के इस विद्रोह कि साक्षी रही हूँ।( जब से मुझे याद है,) मैंने उन्हें सुबह सुबह मन्दिर जाते देखा है, इसके लिये उन्हे बेहद विरोध झेलना पड़ता था, वे सुबह तीन बजे ही उठ कर कपड़े धोकर नहा लेती और सबके उठने से पहले चुपचाप पूजा की थाली लेकर मन्दिर निकल जातीं। पिता दाँत पीसते रह जाते, गुस्सा होते लेकिन उनका विद्रोह चलता रहा। वे करीब सात बजे तक लौट भी आती, क्यो कि उन्हे नौ बजे तक पिता के लिये भोजन तैयार करना होता था.... लेकिन मन्दिर के नियम को नहीं तोड़ती... एक बार मैंने कहा कि जब घर में पिता जी को पसन्द नहीं तो आप मन्दिर क्यो जाती है, तो बोली कि सुबह -सुबह घर से निकलती हूँ तो ठण्डी हवा लगती है, मन्दिर में दण्डवत करों , जल चढ़ाओं को शरीर का व्यायाम हो जाता है, और कोई प्रवचन चल रहा हो तो दीमाग को दिन भर की खुराक मिल जाती है..... मैं तेरी- मेरी नहीं करती, इधर- उधर गप्पे नहीं लगाती तो मन्दिर और पूजा में क्या बुराई...
मेरी माँ स्त्रियों के विद्रोह की एक कड़ी थी, बस.....

मेरा करवा चौथ का व्रत उन तमाम स्त्रियों के विरोध को एक बून्द अंजलि है.....

Friday, October 26, 2012

इस बटवारे मे हम ने क्या खट लिया -2

बातों बातों में शिव बटालवी का ज़िक़्र चल पड़ा. मैं कवियों की केवल कविताओं से अभिभूत रहता हूँ , उन की व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बारे मुझे खास कुछ पता नहीं रहता. यह मेरी सीमा ही है. विनोद के पास शिव के मुतल्लक़ बड़ी दिचस्प जानकारियाँ हैं . मसलन, शिव बटालवी बैजनाथ में किसी संस्था मे इंजीनियरिंग पढ़ रहा था तो एक लड़की के इश्क़ मे पड़ गया. उस लडकी की शादी हो गई तो शिव उस का पीछा करता हुआ लन्दन पहुँच गया. और यह कि उस का शिमला बहुत आना जाना था. एक एक रात कमला नेहरू हॉस्पिटल के पास स्ट्रीट लाईट के नीचे बैठ कर पव्वा पीते हुए उस ने अपने एक दोस्त को ‘लूणा’ का पहला ड्राफ्ट सुनाया.

यह‘लूणा” क्या है ?

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विनोद ने बताया कि पंजाब के ‘पूरण भगत’ नामक लोक आख्यान की नायिका ‘लूणा’ को लेकर शिव बटालवी ने इसी शीर्षक से एक काव्य नाटक लिखा है..मूल आख्यान मे लूणा बूढ़े राजा सलवाण  की जवान रानी है जो राजा के बेटे पूरण  की हम उम्र है. एक बार लूणा पूरण   पर कामासक्त हो कर उस से यौन निवेदन कर बैठी. पूरण  के मना करने पर लूणा ने अपने रुतबे का दुरोपयोग कर उस मरवा डालने की कोशिश की . उस के हाथ पैर कटवा  कर कुँएं में फिंकवा दिया ................

पूरण भगत का कुँआ -- फोटो साभार गूगल
 
 अरे हाँ, याद आया लूना ..... वो तो पंजाबी साहित्य की कुख्यात ‘वेम्प’ है . पूरण भगत की कथा से मैं परिचित था. शायद इस का एक मंचन ( या रिहर्सल) भी चंडीगढ़ मे देखा है. लेकिन शिव के इस काम के बारे मुझे जानकारी नही थी . मैं अपनी सीमित जानकारी को ले कर मैं झेंप सा गया. जी अजेय भाई, वही लूना. लेकिन बटालवी ने एक तरह से लूणा को पुनर्सृजित किया, जिस मे वह उस रवायती कलंक से मुक्त हो गई. इस काव्य नाटक में लूणा की पारम्परिक चरित्रहीनता को , उस की दैहिक वाँच्छाओं को सहज मानवीय वृत्ति के रूप मे जस्टिफाई किया गया है. फिर हम ने पाश, पातर , खुशवंत सिंह और भिंडराँ वाला से ले कर दुल्ला भट्टी , हीर, वारिस, बुल्ले शाह , सुलतान बाहू , नानक तक को याद किया. 1983 के गोल्डन टेम्पल और1984 की दिल्ली को याद किया. विनोद ने भिंडराँवाला को इन्दिरा गाँधी का प्रोडक्ट बताया और मैं उसे खालिस्तान आन्दोलन मे संघ परिवार की दोगली भूमिका समझाता रहा. अंततः हम दोनो सहमत थे कि राजनीति और सत्ता की हवस आदमी से कुछ भी करवा सकती है.


 
 बातचीत मे एक प्रसंग काँगड़ा की लोक नाट्य परंपरा “भगत” का भी आया . विनोद के मुताबिक यह पूरण भगत नामक आख्यान का ही लोक रूप था. तथा काँगड़ा के एक समुदाय विशेष मे इस की लोकप्रिय टोलियाँ थीं. मेरे लिए यह बड़ा रोचक था . बाद मे फोन पर नवनीत शर्मा ने इस पर असहमति जताई. उस ने मुझे सूचित किया चमन लाल जी ने लूणा का हिन्दी अनुवाद किया है और बलवंत गार्गी ने भी शायद . अनूप सेठी ने जानकारी दी कि ऊना वाले कुलदीप शर्मा भी लूणा का हिन्दी अनुवाद कर रहे थे. भगत के बारे गौतम शर्मा व्यथित के हवाले से बताया कि यह मूल रूप से कृष्ण कथा का मंचन है जिस मे समसायिक व्यंग्य और प्रहसन के साथ इतर प्रसंग भी जुड़ जाते हैं .मैने दौलत पुर काँगड़ा निवासी अपने पीयन महिन्दर चौधरी से पूछा तो उस ने बताया भगत की शुरुआत कृष्ण पूजा से ज़रूर होती है, लेकिन बाद में  फरमाईश पर किसी भी एक लोकप्रिय आख्यान का मंचन होता था – हीर राँझा,पूरण भगत , कृष्ण सुदामा , रूप बसंत, शामो नार, राजा रसालू , हरिश्चन्दर, ऐसे बहुत सारे नाटक खेले जाते हैं ...... . तो क्या पंजाब के लोकाख्यानो की जड़ें हिमाचल के देहात मे भी खोजी जा सकती है ? या उन के अवशेष ? जो भी हो भगत नाम की इस नाट्य विधा मे मेरी दिलचस्पी हो गई है. अब मैं इस बारे और ज़्यादा जानना चाहता हूँ. और बटालवी की लूणा को भी पढ़ना चाहता हूँ .
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इस मुलाक़ात में विनोद ने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि हम ने पंजाब से अलग हो कर एक बेशकीमती संस्कृति की ग्रोथ पर पाबन्दी लगा दी है. हमारी एक साँझी सांस्कृतिक विरासत थी. अजेय भाई, इस बटवारे में हम ने क्या खट लिया ? राजनैतिक सरहदों ने पंजाब और हिमाचल की साँस्कृतिक आवाजाही पर रोक लगा दी है जब कि तरह तरह के माफियाओं के लिए द्वार खुले रखे हुए हैं .

लगभग सही कहा है उस ने ; मैंने अपने आप से कहा -- यहाँ एक बहुत ही खराब क़िस्म का फिल्टर लग गया है जिस से हिमाचल की नई पीढ़ी को पंजाब की छाछ तो बखूबी मिल रही है, जब कि उस की क्रीम के स्वाद से वह वंचित रह गई है.? क्या पंजाब का इंटेल्लेक्ट भी इस तरह से सोचता होगा ?क्या उसे ऐसा सोचने की ज़रूरत है ? पता नहीं क्यों , पंजाब पर की गई हर चर्चा के अंत में मैं खुद को एक हीनता बोध से ग्रस्त पाता हूँ . मन के कोने मे एक पुरानी सी खटास पैदा हो जाती है ... ! कवियों वाली व्हिस्की की आखिरी घूँट में भी मुझे इस छाछ की फ्लेवर आई. इस फिल्टर का क्या उपाय किया जाय ?

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रात के लगभग 12 बजे लोअर केलंग में जनजातीय संग्रहालय के बाहर स्ट्रीट लाईट के नीचे मैं और अजय लाहुली उस के सेंट्रो एल एक्स मे बैठ , लाहुल की अस्मिता , देव परम्परा और मठव्यवस्था, मुख्यधारा और सबाअल्टर्न , जातिवाद , डिस्कस कर रहे हैं . पुलिस वाला आया है और अजय से थाने तक की लिफ्ट माँगी है क्यों कि उस का घर उधर ही पडता है...... साथ मे मुझे सो जाने की सलाह दी है .