Thursday, December 13, 2012

अभी भी ज़िन्दा हैं !

तद्भव -26  में  बहुत अच्छी  , पठनीय सामग्री है . कृष्णा सोबती के संस्मरण , राम विलास शर्मा की दृष्टि  और चिंतन के कुछ अंनछुए पक्ष, हिन्दी आख्यान पर रमेश उपाध्याय का  विचारोत्तेजक विमर्श    ; दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा  का भारत मे  शिक्षा और पाठ्यक्रम को ले कर  तथ्यों पर आधारित आलेख ;  कात्यायनी ,  गीत चतुर्वेदी, प्रीति चौधरी  और एकांत श्रीवास्तव की बेहतरीन कविताएं ................


इसी अंक से  यू . के. एस. चौहान की एक छोटी कविता जो मुझे बहुत पसन्द आई  --

वे मरे नहीं थे 

वे लगातार रोते हुए से दिख रहे थे
पर वे रो नहीं रहे थे शायद
दरअसल वे हँसते ही ऐसे थे
लगता था जैसे रो रहे हों

वे जाहिल और गँवार लग रहे थे
पर वे जाहिल और गँवार थे नहीं
दरअसल नासमझी में लोगों को उनके तौर तरीक़े
लगते थे जाहिल और गँवारों जैसे

वे मरे हुए ज़रूर लग रहे थे
पर वास्तव में वे मरे नहीं थे अभी
दरअसल वे जी रहे थे मरे हुए से

वे ज़मीन से उखड़ेहुए दरख्त की भाँति सूख रहे थे
पर उनकी जड़ें अभी
पूरी तरह ज़मीन से अलग नहीं हुईं थीं शायद
दरअसल
अपनी इन तमाम बुनियादी लाचारियों के बावजूद
उनके भीतर अभी भी
अपना अस्तित्व बचाए रखने की उत्कण्ठा बरकरार थी
और इस लिए वे चुपचाप
आखिरी संघर्ष की तय्यारी करने के लिए
बस तन कर खड़े ही होने वाले थे किसी वक़्त .

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