Thursday, December 26, 2013

वे हल की मूठ पकड़ते थे और धान की खेती करते थे.



  • उदय प्रकाश 
(उदय प्रकाश के फेसबुक स्टेटस से साभार )


कहा सुना जाता है कि ईसा से पांच सौ नौ साल, आठ मास, अट्ठारह दिन, छह पहर पूर्व एक ऋषि का कुशीनगर से तीन कोस दूर के एक गांव में जन्म हुआ था. उनका नाम, सुना-कहा जाता है कि आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम था. वे हल की मूठ पकड़ते थे और धान की खेती करते थे. 
चालीस वर्ष बाद उन्होंने घर छोड़ दिया और विजन-विकट वन के एकांत में चले गये. उनसे कोई मिल नहीं सकता था. 
लोग उन्हें भूल जाते लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका क्योंकि वे हर रात नगर की ओर जाते राजमार्ग के आसपास उगे वृक्षों के तनों की खाल पर, उस समय की सबसे लोक- प्रचलित भाषा और लिपि में, जिन्हें राज्य द्वारा स्वीकृति तो नहीं थी परंतु लोक-व्यवहार में वही भाषा और वही लिपि सर्वाधिक प्रचलित थी, में प्रत्येक मास कुछ न कुछ लिख उत्कीर्ण कर जाते थे.
उनके द्वारा उत्कीर्ण किये गये वाक्य, आश्चर्य था कि उस क्षेत्र में दावाग्नि की भांति प्रज्वलित हो उठते थे. नगर ही नहीं, ग्राम और वनों में आश्रम बना कर शिष्य-शिष्याओं के साथ वन-विहार, जल-क्रीड़ा और विमर्शादि करते राज-ऋषियों के बीच भी आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति के वाक्य व्याकुलता और अंतर्दाह उत्पन्न करते.
हर जगह आचार्य वृहन्नर के वाक्यों की चर्चा होती.
राज्य, साम्राज्य और राज्यपोषित, राज्याभिषेकित ऋषि-मुनियों, विदूषकों तथा अन्य गणमान्यों, वृहन्नलाओं-गणिकाओं को भी आचार्य वृहन्नर के वाक्यों से भय और व्याकुलता की अनुभूति होती.
कहते हैं कि आचार्य वृहन्नर की खोज़ और उनके वध के लिए अनेक प्रयत्न किये गये. परंतु मान्यता है कि आचार्य वृहन्नर अपकीर्त्ति गौतम को किसी अज्ञात साधना या तप से सुदीर्घ जीवन का वर प्राप्त था. उनके वध के लिए नदियों में, जहां से वे जल ग्रहण करते थे, वहां विष घोल दिया गया, उनकी निष्ठा और तप को भंग करने हेतु विष-कन्याओं और वृहन्नलाओं को ही नहीं अपितु धतकर्म के अप-कार्य में निपुण वधिकों, व्याधों और आखेटकों को भी नियुक्त किया गया. उनके आहार एवं आजाविका से समस्त स्रोतों को अपहृत कर लिया गया. अपशब्द और अभिशाप को संचालित करने वाले समग्र संसाधनों को सक्रिय-सन्नद्ध कर दिया गया. परंतु दीर्घ जीवन के वर के कारण आचार्य वृहन्नर गौतम जीवित रहे आये और राजमार्ग के वृक्षों की त्वचा पर अपने वाक्य निरंतर उत्कीर्ण करते रहे, जिनसे दावाग्नि का प्रसार-विस्तार होता रहा

(जारी ) 

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