Thursday, November 7, 2013

इस त्‍यौहार का व्‍यापार से न जाने कब स्‍थापित हुआ रिश्‍ता

शिरीष की कविता में मुझे हाशिये के जीवन का सच्चा और तीखा दंश महसूस होता है . और कहन की बानगी ऐसी कि बिना बहुत  शोर मचाए बात मेरे पाठक की चेतना में प्रवेश ही नहीं कर जाती बल्कि वहाँ पर जमी हुई धूल गर्दा और कालिख की परतें बुहारने का भी काम करती हैं . और मैं गहराई से उस दंश और कड़वाहट के मूल कारणों की पड़ताल करने में प्रवृत्त हो पाता हूँ . कह सकता हूँ कि शिरीष की कविताई मेरी चेतना पर तमाम ज़रूरी प्रभाव छोड़ती है .  शिरीष की काव्याभिरुचियों के बारे और कविता के सम्बन्ध में उस के विचार आप इस ब्लॉग पर देख सकते हैं  इस दीपावली पर मुझे उस की एक सार्थक कविता मिली , जिसे वह *लगभग* कविता कह रहा है . लेकिन मुझे यह परफेक्ट लग रही है  बिना इजाज़त यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ 

आप सब को इस दीपावली की बिलेटेड  बधाई ! 


दीपावली 2013
  •  शिरीष कुमार मौर्य 

रंगीन रोशनियों की झालरें परग्रही लगती हैं
उनमें मनुष्‍यता का अनिवार्य उजाला नहीं है

शिवाकाशी के मुर्गा छाप पटाखे
सस्‍ते चीनी पटाखों से हार गए लगते हैं
गांवों में बारूद सुलगने से लगी आग से मरे कारीगरों की आत्‍माएं
यहां आकर कलपती हैं
यह पटाखों का नहीं अर्थशास्‍त्र का झगड़ा है
जो अब मुख्‍यमार्गों पर नहीं सफलता के गुप्‍त रास्‍तों पर चलता है

एक बेमतलब लगते हुंकारवादी नेता के समर्थन में
समूचे भारतीय कारपोरेट जगत का होना
देश में सबसे बड़े विनाशकारी पटाखे की तरह फटता है
एक दिन देश शिवाकाशी के उस जले गांव में बदल जाएगा
नई दीपावली मनाएगा

कारपोरेट लोक में प्रचलित नया शब्‍द है
वातानुकूलित कमरों में बैठे नए व्‍यापारी भूखे कीड़ों की तरह
बिलबिलाते हैं
उनकी बिलबिलाहट को सार्वजनिक करने हमारे मूर्ख और धूर्त नायक
छोटे-बड़े पर्दों पर आते हैं

इस दीपावली पर मेरा मन
किसी बच्‍चे के हाथ में एक ग़रीब पुरानी सीली फुलझड़ी की तरह
कुछ सेकेंड सुलगा
और बच्‍चे की तरह ही उदास होकर बुझ गया है 

टीवी की स्‍क्रीन पर लोकल चैनल के मालिक का
बधाई संदेश
चपल सर्प की भांति इधर से उधर सरक रहा है
वह शुभकामनोत्‍सुक व्‍यक्ति व्‍यापार-मंडल का अध्‍यक्ष है
और सत्‍तारूढ़ पार्टी का नगर अध्‍यक्ष भी
सत्‍तारूढ़ पार्टी बदल जाती है
मगर नगर अध्‍यक्ष वही रहता है

उसके पास अब दीपावली पर बहियों को बांधने के लिए
हत्‍यारे विचारों का नया बस्‍ता है

दीपावली का यूं मनाया भी जाना भी
एक हत्‍यारा विचार ही था सदियों से
जिसमें ग़रीब पहले मिट्टी के दिए जलाकर
और अब सस्‍ती झालर लगाकर शामिल हो रहा है
किसी ने नहीं सोचा
कि इस त्‍यौहार का व्‍यापार से न जाने कब स्‍थापित हुआ रिश्‍ता
मामूली जन की बहुत बड़ी पराजय थी
जो दोहराई जाती है कोढ़ी नकली रोशनियों  के साथ
साल-दर-साल

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