(संस्मरण अंश)
कथा कार राज कुमार राकेश से मेरा परिचय 2002 - 03 के आस पास का है ।
उन से पहली मुलाक़ात अविस्मरणीय है । केलंग में अपने दफ्तर में किसी फाईल मे उलझा हुआ था। एक सम्भ्रांत से आदमी ने मेरे कमरे मे प्रवेश किया । बाल लम्बे लेकिन व्यवस्थित । नाक ऊँची और उस पर मोटे लेंस वाला चश्मा नफासत से टिका हुआ । क्या आप अजेय हैं ? उस की आवाज़ खासी भारी थी । रौबदार भी । केलंग में ऐसे गेटअप वाला आदमी या तो कोई बड़ा अफसर हो सकता है , या फिर कोई टुअरिस्ट । मैंने झिझकते हुए हामी भरी । वह बड़ी बेतकल्लुफी के साथ सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया । मेरा नाम राजकुमार राकेश है । कहानियाँ लिखता हूँ ..........
ओह ! मैंने खड़े हो कर नमस्ते की । सर , आप ! सॉरी मैं पहचान न पाया । मैं रोमाँचित था । इतना सीनियर लेखक मेरे दफ्तर में आया ! प्रमोद रंजन इन का ज़िक्र करता रहता था ।
प्रमोद रंजन शिमला से एक साप्ताहिक पत्र भारतेन्दु शिखर में दो पन्नों का साहित्यिक परिशिष्ट निकालता था । उस में वह मुझ जैसे पिछड़े इलाक़ो क़ॆ कम ज्ञात लेखकों पूरी तवज्जोह से, बल्कि कहना चाहिए कि पूरी सदाशयता के साथ छापता था । लम्बे लम्बे पत्र लिखता था और हम से लिखवाता भी था । हमारे पास भी खोने के लिए कुछ नहीं था तो जो जी में आया लिख मारते थे । कुल मिला कर प्रमोद रंजन के उस टेबलॉय्ड ने उन दिनों हिमाचल के साहित्यिक परिदृश्य में खलबली मचा रखी थी । साथ में मधुकर भारती जी का सर्जक तो सक्रिय था ही । उस में मैं छप चुका था । विपाशा तब बड़ी पत्रिका समझी जाती थी । बड़ा दबदबा था तब उस का । स्तर भी था और रुतबा भी । उसे हम लोग अपनी पहुँच से बाहर की चीज़ मानते थे।
अरे, यहाँ नहीं सर चलिए अन्दर चल कर बैठते हैं प्लीज़ ! मैं हडबड़ाते हुए उस आदमी का हाथ पकड कर जी. एम. साब के केबिन की तरफ ले गया । क्यों कि पूरे दफ्तर में वही एक ऐसी जगह थी जहाँ किसी सम्भ्रांत मेहमान को बिठाया जा सकता था । मन में सोच रहा था कि क्या सच मुच यह आदमी राजकुमार राकेश हो सकता है ?
कोई बात नहीं यार , वहीं ठीक था । आई वाज़ कम्फर्टेबल । ऐसा कुछ नहीं .....
नहीं सर, दर असल बॉस जिस दिन न हों दफ्तर की सफाई भी नहीं होती. और यह लाहुल है ... यहाँ मिनट में धूल जम जाती है ! तो फिक्शन लिखते हैं आप ?
हाँ शुरू मे तो कविताएं भी लिखीं ,यूँ ही कोई खास नहीं । पब्लिश भी नही कराईं । पर अब केवल फिक्शन । उस मे आप अपनी बात ज़्यादा स्पष्ट कर पाते हैं । ऐसे ही कोशिश करते रहते हैं । आप की कविताएं पढ़ी हैं मैं ने । काफी अच्छी लगीं । इधर पाँगी के सरकारी दौरे पर था तो सोचा कि केलंग के कवि से मिलता चलूँ .....
मैं अभिभूत था । ये तो सच मुच कथाकार राकेश ही लग रहे हैं । हम ने चाय पीते हुए घंटो बातें की । बहुत मज़ा आ रहा था । मुझे हिन्दी साहित्य के बारे अनेक मौलिक जानकारियाँ मिलीं और लेखकों के बारे फर्स्ट हैंड खबरें। मेरे लिए यह एक प्लेज़ेंट सरप्राईज़ था ! यह अनुभव मैं किस के साथ शेयर करता ? उन्हो ने अपनी किताबो के बारे बताया । मैं शर्मिन्दा था कि मैंने हिमाचल के लेखकों को बहुत कम पढ़ा है । मैंने पते नोट किए और राकेश जी की तमाम किताबें मँगा कर पढने की ठान ली ।
ऐसा करो तुम कुछ पत्रिकाएं पढ़ना शुरू कर लो । पहल, कथादेश और एक पत्रिका और बताई उन्होंने । मुझे पहली बार अहसास हुआ कि ये बड़ी पत्रिकाएं थीं । मैंने केवल इन का नाम सुना था लेकिन देखा/ पढ़ा कभी न था । राजेन्द्र यादव का ‘हंस’ शुरू से पढता था; लगभग सन ‘86 से । लेकिन अब मुझे उस से ऊब सी होने लगी थी । मुझे कुछ और , कुछ आगे का चाहिये था ..... और मुर्शिद मेरे सामने खड़ा था ! उन्हो ने मुझे इन ज़रूरी पत्रिकाओं के पते लिखवाए।
मैं ने इन पत्रिकाओं से पत्राचार करना शुरू किया और इस तरह मेरी बरबादी का एक और दौर शुरू हुआ ।
Yes
ReplyDeleteराज कुमार राकेश जी से मेरी पहली मुलाकात भी ऐसे ही हुई थी। मैं सपरिवार शिमला में यूटीआई के गेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। सुबह सुबह एक सज्जन मिलने आ गए और परिचय दिया - राज कुमार राकेश। मैं उन्हें जानता था, मिलना पहली बार हुआ। सहज, स्पष्ट, गर्मजोशी से भरे और बराबरी का व्यवहार करने वाले मित्रवत् । बाद में धर्मशाला में मुलाकात हुई। उसके विवरण अन्यत्र लिखे हैं।
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