Thursday, November 19, 2015

बारहखड़ी की जगह बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं

  


अनुज लुगुन की कविताओं ने इधर बहुत प्रभावित किया है मुझे । कुछ कवियों पर इस से ज़्यादा टिप्पणी नहीं की जा सकती


शहर के दोस्त के नाम पत्र

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं
बॉक्साईट के गुलदस्ते सजे हैं
अभ्रक और कोयला तो
... थोक और खुदरा दोनों भावों से
मण्डियों में रोज़ सजाए जाते हैं
यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी
फूल की तरह खिलते हैं
इन्हें बेचने के लिए
सैनिकों के स्कूल खुले हैं,
शहर के मेरे दोस्त
ये बेमौसम के फूल हैं
इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती
अपने जूड़े के लिए गजरे
मेरी माँ नहीं बना सकती
मेरे लिये सुकटी या दाल
हमारे यहाँ इससे कोई त्योहार नहीं मनाया जाता,
यहाँ खुले स्कूल
बारहखड़ी की जगह
बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं
बाज़ार भी बहुत बड़ा हो गया है
मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता
यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है
कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब ख़बर फैल रही है कि
मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है ,
शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें
तो उनका ख़याल ज़रूर रखना
यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में
मैंने नमी देखी थी
और हाँ !
उन्हें शहर का रीति -रिवाज़ भी तो नहीं आता,
मेरे दोस्त
उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए
अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ ।














No comments:

Post a Comment