भूटान भूटान भूटान भ्की
राजधानी थिम्पू में विश्व शांति, करुणा और मैत्री की
सुमधुर हिमालयी धुनो की गुंजार के बीच SAARC शिखर सम्मेलन चल
रहा है. इस शुभ अवसर पर अपनी यह् ताज़ा कविता कान पुर से प्रकाशित हिन्दी साहित्य
की महत्वपूर्ण पत्रिका अकार के ताज़ा अंक से साभार
लगाने का लोभ सम्वरण नही कर पा रहा हूँ ..........
एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है
धुर
हिमालय में यह एक भीषण जनवरी है
आधी
रात से आगे का कोई वक़्त है
आधा
घुसा हुआ बैठा हूँ
चादर
और कम्बल और् रज़ाई में
सर
पर कनटोप और दस्ताने हाथ में
एक
नंगा कंप्यूटर हैंग हो गया है
जब
कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है .
तमाम
कविताएं पहुँच रहीं हैं मुझ तक हवा में
कविता
कोरवा की पहाड़ियों से
कविता
चम्बल की घाटियों से
भीम
बैठका की गुफा से कविता
स्वात
और दज़ला से कविता
कविता
कर्गिल और पुलवामा से
मरयुल
, जङ-थङ , अमदो और खम से
कविता
उन सभी देशों से
जहाँ
मैं जा नहीं पाया
जबकि
मेरे अपने ही देश थे वे.
कविताओं
के उस पार एशिया की धूसर पीठ है
कविताओं
के इस पार एक हरा भरा गोण्ड्वाना है
कविताओं
के टीथिस मे ज़बर्दस्त खलबली है
कविताओं
की थार पर खेजड़ी की पत्तियाँ हैं
कविताओं
की फाट पर ब्यूँस की टहनियाँ हैं
कविताओं
के खड्ड में बल्ह के लबाणे हैं
कविताओं
की धूल में दुमका की खदाने हैं
कविता
का कलरव भरतपुर के घना में
कविता
का अवसाद पातालकोट की खोह में
कविता
का इश्क़ चिनाब के पत्तनों में
कविता
की भूख विदर्भ के गाँवों में
कविता
की तराई में जारी है लड़ाई
पानी
पानी चिल्ला रही है वैशाली
विचलित
रहती है कुशीनारा रात भर
सूख
गया है हज़ारों इच्छिरावतियों का जल
जब
कि कविता है सरसराती आम्रपालि
मेरा
चेहरा डूब जाना चाहता है उस की संदल- माँसल गोद में
कि
हार कर स्खलित हो चुके हैं
मेरी
आत्मा की प्रथम पंक्ति पर तैनात सभी लिच्छवि योद्धा
जब
कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है.
सहसा
ही
एक
ढहता हुआ बुद्ध हूँ मैं अधलेटा
हिमालय
के आर पार फैल गया एक भगवा चीवर
आधा
कंबल में आधा कंबल के बाहर
सो
रही है मेरी देह कंचनजंघा से हिन्दुकुश तक
पामीर
का तकिया बनाया है
मेरा
एक हाथ गंगा की खादर में कुछ टटोल रहा है
दूसरे
से नेपाल के घाव सहला रहा हूँ
और
मेरा छोटा सा दिल ज़ोर से धड़कता है
हिमालय
के बीचों बीच.
सिल्क
रूट पर मेराथन दौड़ रहीं हैं कविताएं
गोबी
में पोलो खेल रहा है गेसर खान
क़ज़्ज़ाकों
और हूणों की कविता में लूट लिए गए हैं
ज़िन्दादिल
खुश मिजाज़ जिप्सी
यारकन्द
के भोले भाले घोड़े
क्या
लाद लिए जा रहे हैं बिला- उज़्र अपनी पीठ पर
दोआबा
और अम्बरसर की मण्डियों में
न
यह संगतराश बाल्तियों का माल- असबाब
न
ही फॉरबिडन सिटी का रेशम
और
न ही जङ्पा घूमंतुओं का
मक्खन,
ऊन और नमक है
जब
कि पिछले एक दशक से
या
हो सकता है उस से भी बहुत पहले से
कविता
में सुरंगें ही सुरंगें बन रही हैं !
खैबर
के उस पार से
बामियान
की ताज़ा रेत आ रही है कविता में
मेरी
आँखों को चुभ रही है
करआ-कोरम
के नुकीले खंजर
मेरी
पसलियों में खुभ रहे हैं
कविता
में दहाड़ रहा है टोरा बोरा
एक
मासूम फिदायीन चेहरा
जो
दिल्ली के संसद भवन तक पहुँच गया है
कविता
का सिर उड़ा दिया गया है
फिर
भी ज़िन्दा है कविता
सियाचिन
के बंकर में बैठे
एक
सिपाही की आँखें भिगो रहा है
कविता
में एक धर्म है नफरत का
कविता
में क़ाबुल और काश्मीर के बाद
तुरत
जो नाम आता है तिब्बत का
कविता
के पठारों से गायब है शङरीला
कविता
के कोहरे से झाँक रहा शंभाला
कविता
के रहस्य को मिल गया शांति का नोबेल पुरस्कार
जब
कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है.
अरे
, नहीं मालूम था मुझे
हवा
में पैदा होतीं हैं कविताएं !
क़तई
मालूम नहीं था कि
हवा
जो सदियों पहले लन्दन के सभागारों
और
मेनचेस्टर के कारखानों से चलनी शुरू हुई थी
आज
पॆंटागन और ट्विन –टॉवर्ज़ से होते हुए
बीजिंग
के तह्खानों में जमा हो गई है
कि
हवा जो अपने सूरज को अस्त नही देखना चाहती
आज
मेरे गाँव की छोटी छोटी खिड़कियो को हड़का रही है
हवा
के सामने कविता की क्या बिसात ?
हवा
चाहे तो कविता में आग भर दे
हवा
चाहे तो कविता को राख कर दे
हवा
के पास ढेर सारे डॉलर हैं
आज
हवा ने कविता को खरीद लिया है
जब
कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है .
दूर
गाज़ा पट्टी से आती है जब
एक
भारी भरकम अरब कविता
कम्प्यूटर
के आभासी पृष्ट पर
तैर
जाती हैं सहारा की मरीचिकाएं
शैं-
शैं करता
मनीकरण
का खौलता चश्मा बन जाता है उस का सी पी यू
कि
भीतर मदरबोर्ड पर लेट रही है
एक
खूबसूरत अधनंगी यहूदी कविता
पीली
जटाओं वाली
कविता
की नींद में भूगर्भ की तपिश
कविता
के व्यामोह में मलाणा की क्रीम
कविता
के कुण्ड में देशी माश की पोटलियाँ
कविता
की पठाल पे कोदरे की मोटी नमकीन रोटियाँ
आह!
कविता
की गंध में यह कैसा अपनापा
कविता
का यह तीर्थ कितना गुनगुना ....
जबकि
धुर हिमालय में
यह
एक ठण्डा और बेरहम सरकारी क्वार्टर है
कि
जिसका सीमॆंट चटक गया है कविता के तनाव से
अपने तमाम चमत्कृत करने वाले तेवरों के बावजूद कविता कितनी खाली सी है!इतिहास और भूगोल के बेरहम और बेजान विस्तारों से लगातार पहुँचती कविता जिसमें बुद्ध करुणा की मांग करते हैं, हवा के झोंकों से धराशायी हो जाती है. समृद्ध और भरी भरी दिखती कविता की देह पछुआ हवा के झोंके से नश्वर दिखाई देने लगती है.
ReplyDeleteअद्भुत अनुभव.प्रस्तुत करने का लोभ बना रहे.
''कविता की गंध में यह कैसा अपनापा
ReplyDeleteकविता का यह तीर्थ कितना गुनगुना ....''
अपने भीतर के चुंबकत्व से खींचती कविता....।
सुंदर!
"कविता में क़ाबुल और काश्मीर के बाद
ReplyDeleteतुरत जो नाम आता है तिब्बत का...."
हिमालय,बुद्ध और दो महाशक्ति...बेचारा कंफियूज़ भारत..!तिब्बत की आढ़ में बिसात बिछ रही है..हिमालय की हलचल यूं ही कब तक नज़रअंदाज़ होगी...हिमालय के असल परिदृश्य को स्पष्ट करती कविता...हिमालय पहाड़ मात्र नहीं..ये देश के कर्णधार कब समझेंगे?
Ajey, really thanks for this ba-hosh khanabadosh and Labaana kavita.
ReplyDeleteAshesh is with me; saying that he belongs to the Labaana of your poem.
I know that I belong to to the root- Lawanya- the later- Labana.
You know, khanabadosh means the dangerous and beautiful... the sober one. And, O, kambakht! you are that!
The poem is singing a hidden song in my nurves.
Thank you again.
baat niklegi to door talak jayegi
ReplyDeletebaat niklegi to door talak jayegi
ReplyDeletebehad achchi kavita.....padh kar man dvelit ho utha...
ReplyDeleteइतने सारे एंगल..... सभी का आभार.
ReplyDelete# संजय, आप की टिप्पणी की बेताबी से प्रतीक्षा रहती है. आप कविता मे घुस जाते हैं, महसूस कर सकता हूँ कि आप के सामने प्रस्तुत होने से पूर्व कविता एक मर्तबा सहम- सिहर जाती होगी. लेकिन यह भी सच है कि यह ट्रीट्मेंट आज की हिन्दी कविता को कहाँ नसीब है? कविता आप को प्यार करेगी दोस्त, और मैं भी .... पहले मुझे इस का शीर्षक * ढ्हती हुई कविता * सूझा था. फिर *ढहता हुआ बुद्ध* (The Reclining Buddha) ....और अंत मे यह. पर यह इधर का सच है. जिसे कहने से पहले पहाड़ कई बार सोचता है. और चुप हो जाता है. हिमालय आज भी विकसित विश्व को आशा भरी न्ज़रो से देखना *चाहता* है. लेकिन दूर दूर से उस तक फक़त हताशा के स्वर पहुँच रहे हैं . और वह क्षुब्ध है. हिमालय आज भी समृद्ध और भरा भरा है. लेकिन खोखला पन उस पे थोंपा जा रहा है. ..
# उदय प्रकाश जी आप का धन्यवाद कि कविता के वियाबान सुरंगों को भर देने वाली पंक्तियाँ आप ने रेखांकित की...
# स्नोवा और अशेष ... आप दोनो ने खुद को यहाँ पहचाना. शुक्रिया. यहाँ मेरे और भी कई दोस्त हैं. उन सब की तरफ से आप को बधाई.आप प्रथम आए हैं.
# लाहुली,निरंजन
मुझे शक़ था कि दूर दूर से आई हुई यह कविता दूर् तलक जाएगी और हैरान हूँ कि यह गई. इस स्नेह को कहाँ रक्खूँ ?
वेग है
ReplyDeleteआवेग है
उद्वेग है
अखिल भूमंडल को बाहों में भर लेने की बेचैनी है
बुद्ध और करुणा की टेक है
बर्फीली तूफानी रात में
कविता की पतवार है
थामे रहो बंधु
थामे रहो
socha na tha kavitayen aisi bhi hoti hongi....????? Adbhut!!!
ReplyDelete'एक बुद्ध कविता मे करुणा ढूँढ रहा है' आपकी इस बड़े फ़लक की कविता का विस्तार समूची पृथ्वी है ,और तारीफ की बात ये है कि यहाँ एक करुण -कथा भी चलती है जिसे सुनकर बेतरह बेचैन हो सकता है कोई भी,आपकी कविता ने बहुत देर तक सन्नाटे मे छोड़ दिया !!!
ReplyDeleteबहुत असमर्थ पा रहा हूं अपने को...इस रचना पर कुछ भी कहने के लिए.अजय भाई...बहुत ज्यादा समेट दिया है आपने,कविता के बहाने..लगभग पूरा इतिहास...और कविता की विडंबना.कविता का सिर उडा दिया गया है..फिर भी जिन्दा है कविता..hats off.
ReplyDeleteकविता को मै न केवल पढ रहा हूँ बल्कि इसे एक् चलचित्र की भांति देख भी रहा हूँ! एक पूरा एपिक, एक ओडिसी कविता की , उबड खाबड इतिहास के रास्तोँ से होता हुआ, तमाम मुश्किलोँ को लांघ कर आज जब हिमालय बना तो हवाओँ से हार बैठा? क़्या विड्म्बना है कि करुणा स्वँय को राख के ढेर मे ढूंढ रहा है !!! हिमयुग से ले कर सल्फर के गर्मा गर्म चश्मे तक कविता के इस अभूतपूर्व सफर का एक चश्मदीद ...... सुरेश विद्यार्थी !!!!
ReplyDeleteहवा के सामने कविता की क्या बिसात ?
ReplyDeleteहवा चाहे तो कविता में आग भर दे
हवा चाहे तो कविता को राख कर दे
हवा के पास ढेर सारे डॉलर हैं
आज हवा ने कविता को खरीद लिया है
जब कि एक बुद्ध कविता में करुणा ढूँढ रहा है .
अच्छी कविता
हवा चाहे तो कविता को राख कर दे
ReplyDeleteहवा के पास ढेर सारे डॉलर हैं.
कई जगह चौंकाती हुई ये कविता बहुत पसंद आई.
Anup Sethi ka mail, 21, 6, 2010
ReplyDeleteअजय जी,
यह कविता मैंने और सुमनिका ने अलग अलग तो पढ़ी थी. साथ में पढ़कर बात करना चाहते थे. आखिर कल थोड़ा सा मौका मिला. मजा आया. कविता में हर शै कविता में बदलती जाती है. बुद्ध या कवि का विराट रूप आ-हिमालय फैला है. और जैसे गूगल के पिकासा में फोटो पानी में तैरते हुए से स्क्रीन पर रहते हैं, कविता में सारी दुनिया के भूंखंड तैरते हुए से आ विराजते हैं. मुझे लगता है कि यहां वही भूखंड आते हैं, जहां कुछ तकलीफ, दुख, रोग, कमी है.. लेकिन सुमनिका को ऐसा नहीं लगता. उसके हिसाब से कवि इतना रमता है कि भूखंड आते चले जाते हैं.
भूखंड मतलब मिट्टी मलबा नहीं, पूरा पिंड है. जीवंत. भूत भविष्य और वर्ततान के पिंड. उनसे एक तरह से तदाकर होने की अनुभूति भी उसमें सम्मिलित है. इसलिए वे जीवंत हो उठते हैं.
और फिर उनमें करुणा की तलाश और मांग है. एक तड़प की तरह. एक टेक की तरह. इससे एक लयकारी बनती है.
यह एक मोटा सा ही आकलन है. क्योंकि शब्द-शब्द पढ़ते समय कई संदर्भ हमारी जानकारी की कमी के कारण अनखुले रह जाते हैं.
पर एक बहाव और उठान और उड़ान है जो हमें गगन विहारी बनाते हैं.
आमीन
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ReplyDeleteयह कविता बार-बार पढने का मन करता है, अजीब सी कशिश है...
ReplyDeleteवह इस लिए कि कविता का पाठ महज़ उस के अर्थ को समझने के लिए नहीं , अपितु उस का द्रव पी जाने के लिए होता है. जो बार बार पाठ् के बगैर सम्भव नहीं .जो कविता खुद को बार बार नहीं पढ़वा पाती पर्मेन्द्र भाई,मैं तो समझता हूँ कि वह अभागन होती है और बहुधा बाँझ रह जाती है.
ReplyDeleteलेकिन आप य्क़ीन करेंगे कि अभी कुछ दिन पूर्व मुझे एक कवि ऐसे मिले जो एक बार छप जाने के बाद फिर उस कविता का पाठ ज़रूरी नही समझते! क्या ऐसे लोगों को अपनी कविता पर भरोसा हो सकता है? मुझे तो शक है. मैं तो अपनी साधारण कविता का अंनगिनत बार पाठ करना चाहता हूँ.... हर पाठ उस मे कुछ न कुछ नया जोड़ देती है.
आप ने दोबारा पढ़ कर के मेरी कविता को समृद्ध किया, आभार!
पहली बार जब यह कविता पढ़िए थी अजेय, तो चमत्कृत हुआ था । तीसरे पाठ में अभिभूत हूँ। अभी कई बार पढ़ूँगा , कुछ लिखने से पहले। इस कविता के कथ्य और शिल्प में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर बात करना बहुत जरूरी है। यह तो कह ही चुका हूँ कि बात दूर तलाक जयेगी ।
ReplyDeleteदो बार पढ़ चुका हूँ... लगता है कि इस बार फिर कुछ रह गया...
ReplyDeleteयाद रह जाने वाली कविताओं में शामिल हो गयी ये कविता.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता .................
ReplyDeleteडालरी हवाओं से खदेड़ी गई करुणा हिमालय के शीर्ष की बर्फ के पीछे दुबक गई है !
अब उसे नीचे उतारने के लिए कोई भगीरथ प्रयास ही करना पड़ेगा !
बहुत ख़ूब। बहुत प्रासंगिक। बधाई।
ReplyDeleteबस एक शब्द.. अद्भुत !
ReplyDelete